विश्व राजनीति में में राष्ट्रवादी विचारधाराओं का पुनरुत्थान

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पूनम शर्मा
वैश्विक राजनीति में बदलता वैचारिक परिदृश्य

पिछले एक दशक में विश्व राजनीति में एक स्पष्ट और निर्णायक परिवर्तन देखा गया है। अमेरिका से लेकर यूरोप, एशिया और लैटिन अमेरिका तक राष्ट्रवादी विचारधाराओं का पुनरुत्थान हो रहा है। वामपंथी विचारधारा और वैश्विक उदारवादी समूह इसे अक्सर “फासीवाद की वापसी” के रूप में प्रस्तुत करते हैं, किंतु यह आकलन न केवल एकांगी है बल्कि ऐतिहासिक और सामाजिक यथार्थ से भी कटे हुए दृष्टिकोण को दर्शाता है। वास्तव में, यह वैश्विक प्रवृत्ति किसी तानाशाही सोच का नहीं, बल्कि दशकों से चले आ रहे वैचारिक असंतुलन के प्रति एक स्वाभाविक राजनीतिक प्रतिक्रिया और सुधारात्मक प्रक्रिया है।

शीत युद्ध के बाद वामपंथी वैचारिक वर्चस्व

शीत युद्ध के बाद, विशेषकर 1990 के दशक से, वामपंथी और उदारवादी वैश्विक अभिजात वर्ग ने राजनीति, शिक्षा, मीडिया और अंतरराष्ट्रीय संस्थानों पर लगभग एकाधिकार स्थापित कर लिया। ‘वैश्वीकरण’, ‘खुली सीमाएँ’, ‘सांस्कृतिक सापेक्षवाद’ और ‘उत्तर-राष्ट्रीय पहचान’ जैसे विचारों को नैतिक श्रेष्ठता का दर्जा दिया गया। इसके परिणामस्वरूप राष्ट्र-राज्य की अवधारणा को पुराना, खतरनाक और विभाजनकारी बताने का अभियान चलाया गया। लेकिन इस वैचारिक प्रयोग का सबसे बड़ा नुकसान आम नागरिकों को झेलना पड़ा।

आम जनता की समस्याएँ और अनसुनी पीड़ा

पश्चिमी देशों में बड़े पैमाने पर अवैध प्रवासन, रोजगार का क्षरण, सांस्कृतिक असुरक्षा और पहचान का संकट गहराता गया। यूरोप में स्थानीय परंपराओं और ईसाई-सांस्कृतिक विरासत को “अप्रासंगिक” कहकर हाशिए पर डाला गया, जबकि बहुसांस्कृतिकता के नाम पर समानांतर समाज पनपने लगे। अमेरिका में वैश्वीकरण ने औद्योगिक क्षेत्रों को खोखला कर दिया और मध्यम वर्ग आर्थिक अस्थिरता का शिकार हुआ। इन समस्याओं को उठाने वाला कोई नहीं था, क्योंकि वामपंथी विमर्श ने इन्हें ‘असहिष्णु’ या ‘दक्षिणपंथी घृणा’ करार देकर दबा दिया।

राष्ट्रवादी राजनीति का उभार: जन-असंतोष की अभिव्यक्ति

यही कारण है कि जब डोनाल्ड ट्रंप, ब्रेक्ज़िट, इटली में मेलोनी, फ्रांस में राष्ट्रवादी उभार या भारत में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद जैसी राजनीतिक धाराएँ सामने आईं, तो उन्हें व्यापक जनसमर्थन मिला। यह समर्थन किसी नफरत से नहीं, बल्कि उस लंबे समय से उपेक्षित असंतोष से उपजा है, जिसे वैश्विक अभिजात वर्ग ने सुनने से इनकार कर दिया था।

भारत में राष्ट्रवाद और औपनिवेशिक मानसिकता की चुनौती

भारत के संदर्भ में यह प्रक्रिया और भी स्पष्ट है। औपनिवेशिक मानसिकता से ग्रस्त वामपंथी इतिहास लेखन ने भारतीय सभ्यता, संस्कृति और राष्ट्रवादी आंदोलनों को या तो विकृत रूप में प्रस्तुत किया या उन्हें पूरी तरह नकार दिया। स्वतंत्रता के बाद भी “सेकुलरिज़्म” की आड़ में बहुसंख्यक समाज की सांस्कृतिक पहचान को अपराधबोध से जोड़ने का प्रयास किया गया। राष्ट्रवाद को संकीर्णता और साम्प्रदायिकता के समकक्ष रख दिया गया। लेकिन जब जनता ने अपनी सभ्यतागत जड़ों, परंपराओं और राष्ट्रीय स्वाभिमान को पुनः स्थापित करने का प्रयास किया, तो उसे भी ‘फासीवादी’ कहकर खारिज करने की कोशिश की गई।

आधुनिक राष्ट्रवाद: न दमनकारी, न विस्तारवादी

वास्तविकता यह है कि आज का राष्ट्रवाद न तो विस्तारवादी है और न ही दमनकारी। यह संप्रभुता, सांस्कृतिक आत्मसम्मान और लोकतांत्रिक उत्तरदायित्व की पुनःस्थापना की मांग करता है। यह वैश्विक सहयोग का विरोध नहीं करता, बल्कि एकतरफा नैतिक उपदेशों और वैचारिक थोपने की प्रवृत्ति का प्रतिरोध करता है। राष्ट्रवादी राजनीति यह सवाल उठाती है कि किसी भी देश के निर्णय उसकी जनता की इच्छा से तय होंगे या अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं, एनजीओ और अपारदर्शी वैश्विक नेटवर्क द्वारा।

लोकतंत्र का पुनर्जीवन या वैचारिक संतुलन की वापसी

इसलिए समकालीन विश्व राजनीति में राष्ट्रवादी विचारधाराओं का उभार किसी अंधकारमय भविष्य का संकेत नहीं, बल्कि लोकतंत्र के पुनर्जीवन का लक्षण है। यह उस व्यवस्था के प्रति असहमति है जिसने विचारों की विविधता को दबाया और एक ही वैचारिक ढांचे को ‘प्रगतिशीलता’ का पर्याय बना दिया। यह एक राजनीतिक सुधार है—एक संतुलन की वापसी—जिसमें राष्ट्र, संस्कृति और जनता की आवाज़ को फिर से केंद्र में रखा जा रहा है।

वामपंथ के लिए आत्ममंथन की आवश्यकता

वामपंथ यदि इस परिवर्तन को समझने के बजाय हर असहमति को फासीवाद कहकर खारिज करता रहा, तो वह न केवल जनता से और दूर होता जाएगा, बल्कि लोकतांत्रिक विमर्श को भी कमजोर करेगा। इतिहास गवाह है कि जब विचारधाराएँ आत्ममंथन से इंकार करती हैं, तब सुधार जनता स्वयं करती है—और आज विश्व उसी मोड़ पर खड़ा है।

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