विभाजन, धर्म और भारत की पहचान: संसद में उठी नई बहस का अर्थ

कृपया इस पोस्ट को साझा करें!

पूनम शर्मा
भारत का विभाजन केवल भू-राजनीतिक घटना नहीं था; वह उपमहाद्वीप की सामूहिक स्मृति को हमेशा के लिए प्रभावित करने वाला ऐतिहासिक मोड़ था। 1947 में ब्रिटिश भारत का बँटवारा जिस आधार पर हुआ, वह निस्संदेह धर्म था—मुस्लिम लीग की माँग पर एक अलग राष्ट्र ‘पाकिस्तान’ का निर्माण किया गया, जबकि भारत को बहुलतावादी, लोकतांत्रिक और बहुधार्मिक राष्ट्र के रूप में आगे बढ़ने का रास्ता चुना गया। इस ऐतिहासिक संदर्भ को कई लोग अलग-अलग ढंग से समझते हैं, और आज भी यही प्रश्न समय-समय पर राजनीतिक व सामाजिक विमर्श में लौट आता है।
हाल ही में संसद में जम्मू-कश्मीर के एक सांसद द्वारा दिए गए बयान ने एक बार फिर इस बहस को जीवंत कर दिया। सांसद ने कहा कि विभाजन का आधार धर्म था, इसलिए जो समुदाय पाकिस्तान के लिए अलग राष्ट्र की माँग कर रहा था, उसे वहीं जाना चाहिए था; और आज भारत में रहने वाले मुसलमानों द्वारा “अपनी विचारधारा को थोपने” की कोशिश होना दुर्भाग्यपूर्ण है। हालांकि यह दृष्टिकोण इतिहास की एक विशेष व्याख्या को दर्शाता है, परंतु यह बयान कई संवैधानिक और सामाजिक प्रश्न भी उठाता है।

विभाजन का इतिहास: पाकिस्तान एक मुस्लिम राष्ट्र, भारत एक बहुलतावादी राष्ट्र

विभाजन के समय पाकिस्तान को मुसलमानों के लिए एक अलग राष्ट्र के रूप में बनाया गया था। इस विचार का आधार यह था कि दो राष्ट्र—हिंदू और मुसलमान—एक साथ नहीं रह सकते।
लेकिन भारत ने इस विचारधारा को अस्वीकार किया। भारत के संविधान निर्माताओं ने देश में सभी धर्मों को राष्ट्र की आधारशिला बनाया। यही कारण है कि विभाजन के बावजूद करोड़ों मुसलमान भारत में रहे, और उन्होंने संविधान द्वारा संरक्षित समान अधिकारों के साथ आगे बढ़ने का निर्णय लिया।लेकिन इसका यह अर्थ बिल्कुल नहीं है कि भारत की सनातन हिन्दू पहचान कहीं खो गई है । भारत का असली मूल धर्म है सनातन हिन्दू धर्म एवं यह आवश्यक है कि भारत के अस्तित्व को कोई इस प्रकार की चुनौती का सामना न करना पड़े । धर्म निरपेक्षता का बोझ भारत पर बाद में डाला गया जिसको ढोते ढोते आज भारतीय मूल संस्कृति और धर्म पर संकट आ गया है । अनेकों प्रकार से धर्मांतरण की चुनौतियों से भारत की डेमोग्राफी में परिवर्तन आ गया है ।
“भारत केवल हिंदुओं का देश है” संविधान की दृष्टि से भी सही है क्योंकि यहाँ सभी को रहने का अधिकार है । भारत की सांस्कृतिक आत्मा, परंपराएँ और सभ्यता हिंदू दर्शन से गहराई से जुड़ी हैं— आधुनिक राष्ट्र-राज्य के रूप में भारत सभी नागरिकों का देश है एवं इस कारण यहाँ की परंपराओं एवं सभ्यता का सम्मान करना सभी का परम कर्तव्य बनता है ।

सांसद का बयान और वर्तमान विवाद

जम्मू-कश्मीर से आए सांसद के शब्दों में उस जिहादी मानसिकता की झलक दिखती है जो अनेक लोगों में आज भी विभाजन के बाद की राजनीति की वर्तमान परिस्थितियों में मौजूद है। उनका तर्क यह है कि पाकिस्तान मुसलमानों के लिए “घर” के रूप में बनाया गया था, इसलिए भारत में मुस्लिम समुदाय को भारत की बहुसंख्यक संस्कृति—हिंदू संस्कृति—का सम्मान करते हुए रहना चाहिए।
यह विचार अपने स्थान पर देश के सांस्कृतिक चरित्र के प्रति चिंता को दिखाता है; परंतु इसके साथ ही यह एक बड़ा सवाल भी खड़ा करता है: क्या भारत को पूर्ण रूप से अपने मूल सांस्कृतिक स्वरूप को स्वीकार नहीं करना चाहिए, जो इसे दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में पहचान देती है?

“वर्चस्व” की बहस: वास्तविकता और राजनीतिक अर्थ

समाज में किसी भी समुदाय पर “वर्चस्व” या “दबदबे” का आरोप राजनीतिक संवेदनशीलता से भरा होता है। सांसद का कहना कि “मुस्लिम अपनी विचारधारा थोपना चाहते हैं” एक राजनीतिक कथन है, जिसे कई लोग मौजूदा घटनाओं से जोड़कर देखते हैं—जैसे जनसंख्या वृद्धि पर बहस, व्यक्तिगत कानून, सांस्कृतिक विवाद, या कट्टरपंथी संगठनों की गतिविधियाँ।
परंतु जरूरी है कि इस मुद्दे को पूरे समुदाय से जोड़ा जाए। भारत में बहुसंख्यक मुसलमान कितने शांतिपूर्ण हैं , कानून का पालन करने वाले नागरिक हैं जो देश की लोकतांत्रिक परंपरा के साथ खड़े हैं यह बात तो लाल किले के बम विस्फोट से साबित हो गई । किसी भी कट्टरपंथ या अलगाववादी विचारधारा का मुकाबला कानून और संविधान के भीतर रहते हुए किया जाना चाहिए यदि आवश्यक हो तो सामुदायिक सामान्यीकरण करके भी उससे निपटने की तैयारी करनी चाहिए ।

भारत का स्वरूप: केवल बहुसंख्यक पहचान या साझा विरासत?

एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि भारत की पहचान का आधार क्या है? क्या यह केवल धर्म है, जैसा कि विभाजन समर्थक विचारधारा मानती थी? या यह सभ्यता, परंपरा, दर्शन, भाषाई और सांस्कृतिक विविधता का संगम है, जैसा भारतीय संविधान ने माना? सच्चाई यह है कि भारत दोनों का सम्मिश्रण है—एक ओर बहुसंख्यक हिंदू सांस्कृतिक धारा इसकी जड़ों में है, और दूसरी ओर सभी धर्मों, जातियों और विचारों की सहभागिता ने इसे आधुनिक राष्ट्र-राज्य के रूप में स्थिरता दी है।

वर्तमान राजनीति में धार्मिक पहचान का बढ़ता महत्व

आज वैश्विक स्तर पर भी धार्मिक पहचान राजनीति का प्रमुख आधार बनती जा रही है। भारत में भी यह प्रवृत्ति स्पष्ट दिखती है—हिंदू पहचान पर जोर दिया जा रहा है जैसे 57 इस्लामिक देश हैं , जनसंख्या संतुलन की बहस, समान नागरिक संहिता पर चर्चा, और सुरक्षा-संबंधी चिंताओं का बढ़ना। इन मुद्दों के बीच विभाजन का ऐतिहासिक संदर्भ बार-बार उभर कर सामने आता है।
संसद में उठी यह बहस केवल एक बयान नहीं है; यह संकेत है कि राष्ट्र अपनी पहचान को नई तरह से परिभाषित करने के प्रयास में है। यह कोशिश, यदि स्वस्थ संवाद और संवैधानिक संतुलन के साथ आगे बढ़े, तो भारत की एकता को मजबूत कर सकती है, लेकिन यदि इसे सांप्रदायिक टकराव का आधार बनाया गया तो इससे समाज में खाई बढ़ सकती है।

निष्कर्ष: इतिहास को समझें, भविष्य को स्थिर बनाएं

विभाजन की पीड़ा और धार्मिक पहचान की राजनीति आज भी भारतीय समाज को प्रभावित करती है। संसद में दिए गए बयान इस बात की याद दिलाते हैं कि यह अध्याय अभी पूरी तरह बंद नहीं हुआ है।
लेकिन भारत का भविष्य केवल एकतरफा दृष्टिकोण से तय नहीं होगा।
यह भविष्य तभी सुरक्षित होगा जब:
इतिहास को समझकर,

संविधान के मूल्यों को स्वीकार कर,

सांस्कृतिक आत्मविश्वास के साथ,

और सामाजिक सामंजस्य को प्राथमिकता देकर

राष्ट्र आगे बढ़े। भारत किसी एक समुदाय का नहीं—बल्कि उन सभी का है जिन्होंने इसे अपना घर चुना है और इसकी भूमि, संविधान और संस्कृति का सम्मान करते हैं। यही भारत की असली शक्ति है और यही इसे एक अनूठा, सभ्यतापरक राष्ट्र बनाती है।

कृपया इस पोस्ट को साझा करें!
Leave A Reply

Your email address will not be published.