“रोहिंग्या विवाद पर CJI की टिप्पणी से उठी हलचल”

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पूनम शर्मा
रोहिंग्या विवाद पर न्यायपालिका में टकराव: असली सवाल राष्ट्रहित का या ‘डीप स्टेट’ की लॉबी का?

भारतीय न्यायपालिका में रोहिंग्या घुसपैठियों को लेकर चल रही हालिया बहस ने एक बार फिर यह प्रश्न खड़ा कर दिया है कि क्या देश की अदालतें राष्ट्रीय सुरक्षा और संप्रभुता के मुद्दों पर एकजुट हैं, या उनके भीतर भी कुछ समूह—चाहे वामपंथी विचारधारा वाला लॉबी हो, विदेशी फंडेड ‘ह्यूमन राइट्स नेटवर्क’ हो या स्वयंभू नैतिकता-वाहक—अपना निजी एजेंडा चला रहे हैं? पिछले सप्ताह इसी संदर्भ में मुख्य न्यायाधीश (CJI)  द्वारा टिप्पणी की गई: “क्या हम इन घुसपैठियों को रेड कार्पेट वेलकम दें?” बस, इसी टिप्पणी के बाद देश की अदालतों के भीतर और बाहर ‘प्रगतिशील’ लॉबी सक्रिय हो उठी। कुछ पूर्व जजों और कुछ वरिष्ठ अधिवक्ताओं ने CJI को पत्र लिखकर टिप्पणी को “अमानवीय” बताया। उन्होंने इसे ‘रिफ्यूजी राइट्स’ के खिलाफ बताया।

लेकिन इसके ठीक जवाब में 44 पूर्व जजों, नौकरशाहों और वरिष्ठ अधिकारियों ने कठोर भाषा में प्रतिवाद दर्ज कराया और साफ कहा कि—
CJI के खिलाफ चलाया जा रहा अभियान एक “मोटिवेटेड मिसन” है, जिसे बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए।

1. रोहिंग्या पर भारत का स्पष्ट कानूनी स्टैंड

सबसे महत्वपूर्ण बिंदु—जिस पर तथाकथित ह्यूमन राइट्स एक्टिविस्ट जानबूझकर चुप हैं—यह है कि भारत न तो 1951 के Refugee Convention का सदस्य है और न ही 1967 के उसके प्रोटोकॉल का।

यानी भारत की कानूनी बाध्यता शून्य है कि वह किसी भी अवैध घुसपैठिये को “शरणार्थी” का दर्जा दे।
फिर भी कुछ लॉबी ऐसे व्यवहार करती है जैसे भारत ‘संयुक्त राष्ट्र हाई कमिश्नर फॉर रिफ्यूजीज़’ का दफ्तर हो।

2. राष्ट्रीय सुरक्षा बनाम नकली मानवाधिकारवाद

सवाल यह है— जब कोई समूह घुसपैठ करता है, फर्जी आधार कार्ड, राशन कार्ड, मतदाता सूची में नाम और यहां तक कि नई पहचान बनाकर सरकारी नौकरियों तक पहुँचने लगता है, तब क्या वह ‘मानवाधिकार’ की ढाल का हकदार है? क्या “मानवाधिकार” का अर्थ केवल घुसपैठियों के लिए है,
या 135 करोड़ भारतीय नागरिकों के भी अधिकार हैं—
● सुरक्षित शहरों का अधिकार
● आर्थिक संसाधनों तक प्राथमिक पहुंच
● जनसंख्या-संतुलन बनाए रखने का अधिकार
● अपराध और चरमपंथ से सुरक्षा

अदालतें यदि विदेशी घुसपैठियों की पैरवी में आधी रात को खुल सकती हैं, लेकिन भारत के नागरिकों की सुरक्षा के लिए सख्त टिप्पणी होती है, तो क्या यह दोहरा मानदंड नहीं?

3. योगी आदित्यनाथ का मॉडल: पहचान → डिटेंशन → डिपोर्टेशन

यूपी सरकार ने पिछले महीनों में बड़ा कदम उठाया है— 17 जिलों में डिटेंशन सेंटर की व्यवस्था, जहाँ  रोहिंग्या और अन्य अवैध बांग्लादेशी घुसपैठियों को रखा जाएगा।

● इनकी की गई पहचान में बड़ी संख्या में फर्जी पहचान पत्र पकड़े गए।
● कई जगह यह देखने में आया कि पहले खुद को “असम निवासी” बताया गया, फिर बाद में “हिंदू नाम” लेकर पहचान छुपाने की कोशिश की गई।
● लखनऊ, नोएडा, गाजियाबाद, मेरठ जैसे शहरी क्षेत्रों में किराये पर कमरों में रहने वाले घुसपैठियों के नेटवर्क का खुलासा हुआ।

सरकार ने नागरिकों से अपील की है कि यदि उन्हें कोई संदिग्ध गतिविधि दिखे तो सूचना दें। यह मॉडल पूरे देश के लिए एक ‘टेस्ट केस’ माना जा रहा है।

4. वकीलों–न्यायाधीशों का ध्रुवीकरण: असली समस्या क्या है?

CJI की टिप्पणी को लेकर पत्र लिखने वाले वकीलों और पूर्व न्यायाधीशों के बारे में भी सवाल उठ रहे हैं: कुछ लोग वही हैं जिन्होंने पहले भी कई संवेदनशील मामलों को “विचारधारा” के आधार पर मोड़ने की कोशिश की। कुछ नामों पर विदेशी एनजीओ फंडिंग के संदर्भ में सवाल उठ चुके हैं। कुछ उन समूहों से जुड़े हैं जिन्होंने अजमल कसाब जैसे आतंकियों के लिए रातों-रात सुनवाई की पैरवी की थी। यदि न्यायपालिका के अंदर भी दो लॉबी बन रही हैं—एक राष्ट्रहित की और एक बिना जवाबदेही वाली ‘एडवोकेसी लॉबी’—तो यह लोकतंत्र के लिए सबसे खतरनाक स्थिति है।

5. न्यायालय की आलोचना बनाम न्यायपालिका को दबाव में लेना

44 पूर्व जजों ने सही कहा— प्रक्रिया की आलोचना हो सकती है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट संस्थान की नहीं। यहाँ विवाद का केंद्र यही है: क्या CJI की सख्त टिप्पणी से नाराज होकर ‘इमेज डैमेज’ अभियान चलाया जा सकता है? क्या न्यायिक स्वतंत्रता का अर्थ यह भी है कि कुछ लॉबी बिना किसी जवाबदेही के ‘पब्लिसिटी’ और ‘मोरल पोस्टरिंग’ के लिए न्यायपालिका पर हमले करें?

6. सीधा प्रश्न: रोहिंग्या की पैरवी करने वालों को फंडिंग कहाँ से?

आपने अपने मूल संवाद में एक महत्वपूर्ण प्रश्न उठाया था— जो कथित एक्टिविस्ट भारतीय नागरिकों की जगह रोहिंग्या का पक्ष ले रहे हैं, उन्हें फंडिंग कहाँ से मिल रही है? यह सवाल अब सिर्फ राजनीतिक नहीं रहा— यह राष्ट्रीय सुरक्षा और आर्थिक पारदर्शिता दोनों का मुद्दा है। जाँच  एजेंसियों को देखना चाहिए—
● क्या यह विदेशी लॉबी है?
● क्या यह डीप स्टेट की योजनाबद्ध रणनीति है?
● क्या यह भारत की जनसांख्यिकीय संरचना बदलने की दीर्घकालिक योजना का हिस्सा है?

7. मुद्दा रोहिंग्या नहीं—भारतीय नागरिकों के अधिकार हैं

यह बहस किसी समुदाय के खिलाफ नहीं, बल्कि राष्ट्रीय संप्रभुता और भारतीय नागरिकों के अधिकारों के पक्ष में है। जो समूह रोहिंग्या के लिए रातों-रात न्यायपालिका पर दबाव बनाते हैं, वे शायद भूल जाते हैं कि—
● अवैध घुसपैठ भारत के आंतरिक सुरक्षा ढांचे को चरमराती है।
● सीमावर्ती राज्यों की जनसांख्यिकी बदलती है।
● अपराध, मानव-तस्करी, फर्जी दस्तावेज़, हथियार और ड्रग नेटवर्क बढ़ते हैं।
● स्थानीय गरीबों का रोजगार छिनता है।

और सबसे बड़ा सवाल:
जब भारत का नागरिक अपने ही देश में अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करे, तो उसका प्रतिनिधित्व कौन करेगा?
निष्कर्ष

रोहिंग्या विवाद सिर्फ “ह्यूमन राइट्स” का मामला नहीं— यह भारत की संप्रभुता, जनसांख्यिकीय सुरक्षा, न्यायिक स्वतंत्रता और विदेशी फंडिंग वाले नेटवर्क की असलियत का परीक्षण है। मुख्य न्यायाधीश की टिप्पणी ने एक ऐसी बहस को उजागर किया है जिसे दबा दिया गया था— क्या भारत अपनी कानून व्यवस्था से समझौता कर विदेशी घुसपैठियों को ‘रेड कार्पेट’ दे? या राष्ट्रहित सर्वोच्च मानकर न्यायपालिका और सरकार दोनों स्पष्ट और कठोर कदम उठाएं? यूपी मॉडल और 44 पूर्व जजों की चिट्ठी यह संकेत देती है कि देश की बड़ी सोच अब रोहिंग्या पर ‘समस्या’ के रूप में एकजुट हो रही है, समाधान के रूप में नहीं। क्योंकि यह तय है— भारत के संसाधनों पर पहला अधिकार भारतीय नागरिकों का ही है।

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