पूनम शर्मा
1 दिसंबर 2025 का दिन भारतीय कर व्यवस्था में एक महत्वपूर्ण मोड़ बन सकता है। केंद्र सरकार लोकसभा में दो अहम विधेयक—केंद्रीय उत्पाद शुल्क संशोधन विधेयक, 2025 और हेल्थ सिक्योरिटी से नेशनल सिक्योरिटी सेस विधेयक, 2025—पेश करने वाली है। सतही तौर पर यह कदम सिर्फ कर ढांचे के तकनीकी पुनर्गठन जैसा लगता है, लेकिन इसके पीछे कहीं गहरे आर्थिक और सामाजिक संकेत छिपे हैं।
जीएसटी मुआवजा उपकर, जो 2017 में अस्थायी व्यवस्था के रूप में शुरू हुआ था और बाद में कोविड-19 के कारण 2026 तक बढ़ाया गया, अब समाप्ति की ओर है। यह उपकर राज्यों को मुआवजा देने के लिए था, लेकिन तंबाकू और पान मसाला जैसे उत्पादों पर इससे भारी कर वसूला जाता रहा। अब जब इसका अंत निकट है, सरकार एक नया ढांचा तैयार कर रही है ताकि इन “सिन गुड्स” पर कर का बोझ कम न हो और स्वास्थ्य-संबंधी नुकसान को नियंत्रण में रखने की कोशिश जारी रहे।
क्या सिर्फ उपकर हट रहा है? या सरकार यह मान रही है कि तंबाकू अब भी खतरा है?
नया केंद्रीय उत्पाद शुल्क संशोधन विधेयक स्पष्ट करता है कि तंबाकू उत्पादों पर कर में कोई ढील नहीं दी जाएगी। बल्कि सरकार अपने राजस्व और सार्वजनिक स्वास्थ्य—दोनों को ध्यान में रखते हुए ऐसी स्थिति बनाना चाहती है, जहाँ उत्पाद शुल्क दरें बढ़ाकर भी मौजूदा कर भार को बनाए रखा जा सके। यह महत्वपूर्ण इसलिए है क्योंकि तंबाकू से होने वाले स्वास्थ्य नुकसान पर देश हर वर्ष अरबों रुपए खर्च करता है।
दूसरी ओर, हेल्थ सिक्योरिटी से नेशनल सिक्योरिटी सेस का प्रस्ताव पान मसाले पर नया कर लगाएगा। दिलचस्प बात यह है कि इसे भविष्य में अन्य उत्पादों पर भी लागू करने का विकल्प खुला रखा गया है—एक संकेत कि सरकार “उच्च-जोखिम उपभोग” को लेकर और सख्त हो सकती है।
क्या केवल कर व्यवस्था का मुद्दा है? या यह समाजिक प्राथमिकताओं को लेकर सरकार की नई सोच है?
इन विधेयकों का समय भी उतना ही महत्वपूर्ण है जितनी उनकी सामग्री। एक तरफ सरकार आर्थिक विकास, विनिर्माण और निवेश को बढ़ावा देने की बात करती है, वहीं दूसरी ओर वह यह स्वीकार भी करती है कि कुछ उद्योग आर्थिक रूप से लाभदायक हों, फिर भी सामाजिक दृष्टि से हानिकारक हैं। प्रश्न यह है—क्या कर बढ़ाना ही समाधान है?
भारत में तंबाकू का उपयोग गहरी सामाजिक जड़ों में है—किसी के लिए यह आदत है, किसी के लिए तनाव का साथी, किसी के लिए रोजगार का आधार। लेकिन इसका स्वास्थ्य प्रभाव—कैंसर, फेफड़ों की बीमारियाँ, मौखिक कैंसर—पूरे समाज पर भारी बोझ डालते हैं। ऐसे में कर सिर्फ राजस्व का साधन नहीं बनते; वे एक संदेश भी देते हैं: “हानिकारक वस्तुओं की कीमत समाज को चुकानी पड़ती है।”
क्या यह कर गरीबों पर अतिरिक्त बोझ बनेंगे?
तंबाकू और पान मसाले की खपत का एक बड़ा हिस्सा निम्न-आय वर्ग से आता है। कर बढ़ने से इन उत्पादों की कीमतें और बढ़ेंगी। क्या इससे खपत घटेगी? या फिर लोग सस्ती, अनियमित और अधिक हानिकारक विकल्पों की ओर मुड़ेंगे? यह नीति-निर्माताओं के लिए कठिन सवाल है। कर बढ़ाने के साथ-साथ सरकार को नशा-मुक्ति कार्यक्रमों, स्वास्थ्य जागरूकता और गरीब परिवारों के लिए समर्थन योजनाओं पर भी उतना ही ध्यान देना होगा।
अंत में—क्या यह विधेयक कर सुधार है, या एक व्यापक सामाजिक सुधार की शुरुआत?
इन विधेयकों को केवल वित्तीय दस्तावेजों की तरह देखने की गलती नहीं करनी चाहिए। ये भारत में स्वास्थ्य, आदत और सामाजिक व्यवहारों को लेकर एक नई बहस को जन्म दे सकते हैं। जब सरकार राजस्व और सार्वजनिक सुरक्षा के बीच संतुलन खोजने की कोशिश करती है, तब नागरिकों को भी सोचना चाहिए—क्या हम ऐसी आदतों को छोड़ने के लिए तैयार हैं, जो हमारे स्वास्थ्य और भविष्य को नुकसान पहुँचाती हैं?