पूनम शर्मा
हाल ही में जिस तरह राहुल गांधी मस्कट और प्रियंका गांधी न्यूयॉर्क रवाना हुए, उस पर सवाल उठना स्वाभाविक है। दोनों ही देश के सांसद हैं, जिम्मेदार पदों पर हैं, और संकट की इस घड़ी में जनता की उम्मीद इनसे थी कि वे भारत में रहकर हालात का सामना करें। लेकिन जब देश के भीतर धमाकों की जाँच चल रही हो और विपक्ष के शीर्ष नेता विदेश भाग जाएँ , तो यह चुप्पी बहुत कुछ कहती है। कांग्रेस पार्टी को यह स्पष्ट करना होगा कि आखिर इन यात्राओं का उद्देश्य क्या है — निजी या किसी और वजह से जुड़ा हुआ?
हरियाणा की अल-फलाह यूनिवर्सिटी एवं जौहर यूनिवर्सिटी
इसी बीच हरियाणा की अल-फलाह यूनिवर्सिटी पर भी सवाल उठ रहे हैं। यह विश्वविद्यालय कांग्रेस शासनकाल में स्थापित हुआ था और लंबे समय से इस पर कतर से फंडिंग मिलने के आरोप लगते रहे हैं। सूत्रों के अनुसार, यहां करीब 40 प्रतिशत छात्र कश्मीर से आते हैं और इनमें से कई डॉक्टर, इंजीनियर और टेक्निकल प्रोफेशनल बनते हैं। लेकिन समस्या तब पैदा होती है जब शिक्षा के नाम पर इन संस्थानों में वैचारिक रूप से कट्टरपंथी सोच पनपने लगती है।
यूपी में आजम खान की जौहर यूनिवर्सिटी का उदाहरण सामने है — जिसे समय रहते योगी आदित्यनाथ सरकार ने कानून के दायरे में लाकर कई संदिग्ध गतिविधियों से बचाया। अगर ऐसा न हुआ होता, तो संभव है कि जौहर यूनिवर्सिटी भी “अल-फलाह” जैसी संस्थाओं के रास्ते पर चली जाती। यह साफ है कि अल-फलाह यूनिवर्सिटी जैसी जगहों को अब कठोर जाँच के दायरे में लाना जरूरी है। यदि किसी भी स्तर पर विदेशी (खासकर कतर या अरब देशों) की फंडिंग का इस्तेमाल भारत विरोधी विचार फैलाने या युवाओं को भटकाने में हो रहा है, तो ऐसी संस्थाओं को तुरंत बंद किया जाना चाहिए।
राष्ट्र सुरक्षा का प्रश्न
भारत के लिए यह खतरे की घंटी है कि “शिक्षा” के नाम पर कट्टरपंथ फैलाने का नया माध्यम तैयार हो चुका है। जब कोई यूनिवर्सिटी डॉक्टरों और इंजीनियरों के रूप में ऐसे लोगों को समाज में भेजती है जिनके विचार भारत-विरोधी हैं, तो यह देश की सुरक्षा के लिए सीधा खतरा है। यह सोचना ही भयावह है कि जिन पर देश के स्वास्थ्य और तकनीक की जिम्मेदारी है, वही किसी विचारधारा से प्रेरित होकर राष्ट्रविरोधी गतिविधियों में शामिल हो सकते हैं।
रिपोर्टों के अनुसार, कुछ डॉक्टरों और प्रोफेसरों को अरब देशों से सीधे आर्थिक सहायता भी मिल रही है — जैसे “डॉक्टर शाहीन” जैसे नामों पर कथित रूप से 40 लाख रुपये तक की विदेशी फंडिंग पहुँची है। यह पैसा सिर्फ पढ़ाई या शोध के नाम पर नहीं आता, बल्कि इसके पीछे एक वैचारिक एजेंडा छिपा होता है। यही कारण है कि ऐसे नेटवर्क धीरे-धीरे भारत के भीतर वैचारिक और सामाजिक असंतुलन पैदा कर रहे हैं।
यह सवाल अब गंभीर हो चुका है कि क्या भारत की कुछ यूनिवर्सिटियाँ “कट्टरपंथ के कारखाने” बनती जा रही हैं? क्या इन संस्थानों के माध्यम से हमारे ही बीच से ऐसे लोग तैयार किए जा रहे हैं जो देश की नींव को कमजोर करना चाहते हैं? अगर ऐसा है, तो यह सिर्फ शिक्षा या राजनीति का मुद्दा नहीं, बल्कि राष्ट्र सुरक्षा का प्रश्न है।
भारत के नागरिकों को भी अब यह समझना होगा कि “शांतिप्रिय” या “सेक्युलर” जैसे आवरण के पीछे कौन सी वैचारिक राजनीति चल रही है। कतर, अफगानिस्तान और कुछ अन्य अरब देशों को भारत और उसके बहुलतावादी समाज से असहजता रही है। यही कारण है कि वे भारत के भीतर सांस्कृतिक और धार्मिक आधार पर वैमनस्य फैलाने की कोशिश करते हैं — कभी फंडिंग के माध्यम से, कभी मीडिया और विश्वविद्यालयों के जरिए।
आज भारत में करीब 50 हजार से अधिक डॉक्टर और इंजीनियर ऐसे विश्वविद्यालयों से शिक्षा प्राप्त कर चुके हैं। अधिकांश निश्चित रूप से ईमानदार और देशभक्त हैं, लेकिन यदि कुछ प्रतिशत भी वैचारिक रूप से प्रभावित हैं, तो यह आने वाले समय में बड़ी समस्या बन सकती है। हमें “कट्टरपंथ की बीजशाला” को समय रहते पहचानना होगा।
सरकार को चाहिए कि वह ऐसी सभी निजी और धार्मिक फंडिंग से चलने वाली यूनिवर्सिटियों की विस्तृत जाँच कराए। किसी भी विदेशी दान, ट्रस्ट, या एनजीओ के जरिए आने वाले पैसों की पारदर्शिता सुनिश्चित की जाए। भारत की शिक्षा व्यवस्था का उद्देश्य ज्ञान और सेवा होनी चाहिए — न कि विचारधारात्मक युद्ध का प्रशिक्षण।
और अंत में, देश के नेताओं से यह अपेक्षा है कि वे संकट के समय देश में रहकर जनता को नेतृत्व दें, न कि विदेशों में छिप जाएँ । जब जनता की आँखों में सवाल हों, तो नेताओं की जिम्मेदारी है कि वे जवाब दें — न कि मौन रहकर शक को गहराएँ ।
भारत अब उस मोड़ पर है जहाँ सिर्फ बंदूक नहीं, बल्कि “विचार” भी एक हथियार बन चुका है। इसलिए अब जरूरी है कि हम न केवल सीमा की रक्षा करें, बल्कि कक्षाओं और विश्वविद्यालयों के भीतर भी राष्ट्र की सुरक्षा सुनिश्चित करें। यही आज के भारत की सच्ची देशभक्ति है।