पूनम शर्मा
भारत की राजनीति में कई ऐसे नेता हुए जिन्होंने अपने कार्यकाल में देश के हितों की रक्षा के बजाय, अंतरराष्ट्रीय “सद्भावना” के नाम पर भारत की सुरक्षा, खुफिया ढांचे और विदेश नीति को कमजोर किया। ऐसे दो नाम हैं—आई.के. गुजराल और हामिद अंसारी। एक ने प्रधानमंत्री रहते हुए पाकिस्तान और उसके सहयोगी देशों के प्रति इतनी “मृदु” नीति अपनाई कि भारत के खुफिया नेटवर्क तक को खतरे में डाल दिया। दूसरा, उपराष्ट्रपति रहते हुए बार-बार ऐसे वक्तव्य देता रहा जिसने भारत की आंतरिक नीतियों पर ही सवाल उठाए, मानो वह देश के बजाय किसी और विचारधारा के प्रति जवाबदेह हो।
गुजराल डॉक्ट्रिन: आदर्शवाद की आड़ में राष्ट्रीय आत्मघात
आई.के. गुजराल की विदेश नीति, जिसे “गुजराल डॉक्ट्रिन” कहा गया, उस समय भारत की सबसे बड़ी कूटनीतिक भूल साबित हुई। इस नीति के तहत उन्होंने पड़ोसी देशों को “एकतरफा सद्भावना” दिखाने की बात कही — यानी भारत बिना किसी शर्त के अपने पड़ोसियों की मदद करे, भले वे भारत के खिलाफ काम कर रहे हों।
इस नीति के तहत RAW (रिसर्च एंड एनालिसिस विंग) के कई विदेशी ऑपरेशन्स को बंद करवा दिया गया। पाकिस्तान और बांग्लादेश में भारत के जो खुफिया एजेंट वर्षों की मेहनत से तैनात थे, उन्हें वापस बुला लिया गया। यह फैसला इतना घातक था कि पाकिस्तान की आईएसआई ने बाद में खुलेआम कहा — “गुजराल साहब ने हमारी आधी मेहनत बचा दी।”
भारत की सुरक्षा प्रणाली को गहरा झटका लगा। सीमापार आतंकवाद के खिलाफ भारत की आंखें और कान कमजोर पड़ गए। यही वह समय था जब पाकिस्तान ने कारगिल और कश्मीर में घुसपैठ की नई रणनीति बनानी शुरू की। गुजराल के आदर्शवादी सपने की कीमत देश ने सुरक्षा संकट के रूप में चुकाई।
पाकिस्तान पर भरोसा और भारत की भूल
गुजराल का यह मानना कि “पड़ोसी से दुश्मनी नहीं रखनी चाहिए” सही था, लेकिन उन्होंने इसे कूटनीति की जगह “भावना” बना दिया। उन्होंने पाकिस्तान पर भरोसा कर लिया — उस समय जब पाकिस्तान खुलकर आतंकवाद को “राज्य नीति” बना चुका था। नतीजा यह हुआ कि भारत को बार-बार धोखा मिला — चाहे वह कारगिल का युद्ध हो या संसद पर हमला।
गुजराल का यह कदम उस दौर में लिया गया जब आईएसआई ने भारत में आतंकी नेटवर्क को गहराई तक फैला दिया था। लेकिन प्रधानमंत्री गुजराल उस खतरे को स्वीकारने की बजाय उसे “भाईचारे” की भाषा में ढकते रहे। इतिहास गवाह है — भावनाओं से नहीं, दृढ़ नीतियों से देश की रक्षा होती है।
हामिद अंसारी: संवैधानिक पद पर वैचारिक पक्षपात
अब बात करते हैं हामिद अंसारी की। उपराष्ट्रपति जैसे गरिमामय पद पर रहते हुए भी उनके कई बयानों ने देश की एकता पर प्रश्न उठाए। उन्होंने बार-बार कहा कि “भारत में मुसलमान असुरक्षित हैं,” या “बहुसंख्यकवाद बढ़ रहा है।” ये बयान ऐसे समय में आए जब भारत ने सामाजिक समरसता और सांप्रदायिक सौहार्द की दिशा में लगातार प्रयास किए।
अंसारी के बयान न केवल देश के भीतर विभाजन की भावना को बढ़ाते थे, बल्कि अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत की छवि को भी नुकसान पहुंचाते थे।
एक उपराष्ट्रपति का कर्तव्य राष्ट्र की एकता और संविधान की गरिमा की रक्षा करना होता है, न कि किसी विशेष समुदाय की असुरक्षा को अंतरराष्ट्रीय विमर्श का विषय बनाना।
कई बार उनके बयान इतने राजनीतिक लगे कि यह प्रश्न उठने लगा — क्या वे वास्तव में एक संवैधानिक अधिकारी की तरह सोच रहे हैं या कांग्रेस और वामपंथी खेमे की विचारधारा से संचालित?
जब विदेश मंच से देश पर प्रहार हुआ
हामिद अंसारी के कई भाषण विदेशों में दिए गए जिनमें उन्होंने भारत की आंतरिक नीतियों पर ही हमला बोला। यह कूटनीतिक रूप से अनुचित और नैतिक रूप से आपत्तिजनक था।
एक संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति द्वारा अपने ही देश की आलोचना, विदेशी मंच से करना — यह न केवल देश की गरिमा का हनन है बल्कि शत्रु राष्ट्रों के हाथों में एक वैचारिक हथियार देना है।
दो युग, एक गलती — राष्ट्रहित से ऊपर विचारधारा
आई.के. गुजराल और हामिद अंसारी दोनों अलग-अलग कालखंडों के राजनेता थे, पर दोनों में एक समानता थी — उन्होंने राष्ट्रहित को वैचारिक आदर्शों से नीचे रखा। गुजराल ने पाकिस्तान से “दोस्ती” के नाम पर खुफिया नेटवर्क तोड़ा, अंसारी ने “सेक्युलरिज्म” के नाम पर देश की एकता पर प्रहार किया।
भारत एक ऐसा देश है जो भावनाओं से नहीं, सख्त संकल्प से चलता है। यहाँ किसी भी नीति का मूल्यांकन “राष्ट्रहित” से किया जाना चाहिए, न कि किसी विचारधारा की किताब से।
निष्कर्ष
आई.के. गुजराल की विदेश नीति और हामिद अंसारी की वैचारिक बयानबाज़ी — दोनों ही उस सोच की प्रतीक थीं जिसमें “दूसरे की सहमति” को “राष्ट्र की सुरक्षा” से ज़्यादा महत्व दिया गया। इन दोनों के दौर ने हमें यह सिखाया कि “सद्भावना” कभी-कभी आत्मघाती भी हो सकती है।
राष्ट्रनीति में करुणा हो सकती है, पर कमज़ोरी नहीं। भारत को ऐसे नेतृत्व की ज़रूरत है जो “विलॉन्गिंग” (belonging) की भावना रखे — जो अपने देश से पहले किसी और विचारधारा या देश को जवाबदेह न सम