प्रतिज्ञा राय
नई दिल्ली, 5 नवंबर: वरिष्ठ अधिवक्ता इंदिरा जयसिंग ने सुप्रीम कोर्ट से मांग की है कि भारत में यौन सहमति की कानूनी उम्र 18 से घटाकर 16 वर्ष की जाए।
उनका कहना है कि 16–18 वर्ष के किशोरों के बीच बने रिश्तों को अपराध मानना उनके संवैधानिक अधिकारों और निजता का उल्लंघन है।
यह दलील सुनने में प्रगतिशील लगती है, पर असल में यह किशोर सुरक्षा कानूनों की नींव को कमजोर करने वाला कदम है।
यह सुधार नहीं, बल्कि लापरवाही में लिपटा जोखिमपूर्ण प्रयोग है, जो भारत की सामाजिक और मनोवैज्ञानिक वास्तविकता से टकराता है।
कानून की सुरक्षा क्यों ज़रूरी है
POCSO कानून (Protection of Children from Sexual Offences Act, 2012) का उद्देश्य केवल अपराधियों को दंडित करना नहीं, बल्कि बच्चों को संभावित यौन शोषण से बचाना भी है।
भारत जैसे देश में, जहां बाल विवाह, मानव तस्करी, लैंगिक हिंसा और ऑनलाइन ग्रूमिंग जैसी समस्याएँ अभी भी आम हैं, सहमति की उम्र घटाना इन अपराधों को “सहमति” की आड़ में वैधता का ढोंग रच सकता है
कई बार 16–18 वर्ष की लड़कियाँ भावनात्मक दबाव, सामाजिक स्थिति या प्रेम-भ्रम में हाँ कह देती हैं, लेकिन वह हाँ स्वतंत्र इच्छा नहीं होती।
अगर कानून उन्हें “वयस्क” मान ले, तो उनकी सुरक्षा की ढाल खत्म हो जाएगी, और अपराधी “सहमति” का बहाना बनाकर बच निकलेंगे।
परिपक्वता और निर्णय क्षमता का प्रश्न
कानूनी दृष्टि में “सहमति” केवल ‘हाँ’ नहीं, बल्कि सचेत, सूचित और स्वतंत्र निर्णय है।
मगर विज्ञान कहता है कि 16 साल की उम्र में मस्तिष्क का प्रीफ्रंटल कॉर्टेक्स, जो निर्णय और आत्म-नियंत्रण को संचालित करता है, अभी पूरी तरह विकसित नहीं होता।
इसीलिए तो 16 वर्षीय को मतदान, गाड़ी चलाने या शराब खरीदने की अनुमति नहीं है।
फिर वही समाज कैसे मान सकता है कि वे यौन सहमति के लिए परिपक्व हैं?
यूनेस्को और यूनिसेफ के अध्ययन बताते हैं कि कम उम्र में यौन सक्रियता से मानसिक तनाव, अपराधबोध और अवसाद बढ़ते हैं।
इसलिए कानून का दायित्व केवल स्वतंत्रता देना नहीं, बल्कि संरक्षण सुनिश्चित करना भी है।
जब आदर्शवाद टकराता है भारतीय हकीकत से
पश्चिमी देशों में “टीन एज ऑटोनॉमी” और “फ्रीडम टू चूज़” जैसे तर्क किसी हद तक संभव हैं,
लेकिन भारत की हकीकत अलग है, यहाँ अब भी पितृसत्ता, बाल विवाह, जातिगत और धार्मिक हिंसा हावी है।
यहाँ किशोर संबंधों को समाज सहजता से नहीं स्वीकारता; कई बार ऐसे रिश्ते हिंसा या सामाजिक बहिष्कार में बदल जाते हैं।
POCSO के कुछ केस पारिवारिक दबाव में दर्ज होते हैं, लेकिन इस वजह से पूरे कानून को बदलना न्याय की बजाय जोखिम है।
समाधान यह नहीं कि सुरक्षा की उम्र घटा दी जाए, बल्कि यह है कि यौन शिक्षा और संवाद को मज़बूत किया जाए।
छिपे खतरे: ग्रूमिंग, दबाव और ‘लव जिहाद’
सीधी बात यह है, सहमति की उम्र घटाने से ग्रूमिंग और यौन शोषण के नए रास्ते खुल जाएंगे, जिनमें कई “रोमांटिक रिलेशनशिप” का रूप धारण करेंगे।
हम पहले ही देख चुके हैं कि किस तरह कुछ शिकारी “लव जिहाद” जैसे जाल बुनते हैं, जहां वे किशोर लड़कियों की भावनाओं का इस्तेमाल कर उन्हें धर्म परिवर्तन या शोषण की ओर धकेलते हैं।
वर्तमान कानून के तहत, ऐसे सभी मामले “वैधानिक बलात्कार” की श्रेणी में आते हैं।
लेकिन अगर 16 साल की सहमति को कानूनी मान्यता मिल गई, तो यह शिकारियों के लिए कानूनी ढाल बन जाएगी।
भारत पहले से ही बाल यौन शोषण की घटनाओं में दुनिया के अग्रणी देशों में है।
ऐसे में सुरक्षा कमजोर करना भविष्य की पीढ़ी के साथ खिलवाड़ है।
यह परिवर्तन “सहमति” और “शोषण” के बीच की वह स्पष्ट रेखा मिटा देगा, जो हमेशा स्पष्ट और अटल रहनी चाहिए।
इंदिरा जयसिंग की मुहिम: प्रगति या उकसावा?
इंदिरा जयसिंग का महिलाओं के अधिकारों में योगदान ऐतिहासिक है, लेकिन यह ताज़ा प्रस्ताव विवेकहीन आदर्शवाद की झलक देता है।
उनका यह कहना कि POCSO कानून “अंतर-जातीय या अंतर-धार्मिक जोड़ों” को निशाना बनाता है, आधा सच और खतरनाक सरलीकरण है।
झूठे मामलों को रोकने के लिए कानूनी प्रक्रिया में सुधार किया जा सकता है,
लेकिन सुरक्षा ढांचे को कमजोर करना हर किशोर को खतरे में डाल देगा।
POCSO कानून 2012 में इसलिए बना था कि नाबालिगों को यौन शोषण से बचाया जा सके, अब उसी कानून को “स्वतंत्रता” के नाम पर बदलना सुधार नहीं, विनाशकारी कदम होगा।
न्यायिक दृष्टिकोण: सावधानी का संकेत
देश की कई अदालतें मान चुकी हैं कि हर सहमति आधारित रिश्ता अपराध नहीं,
पर साथ ही उन्होंने यह भी चेताया है कि कानून में ढील से दुरुपयोग के नए रास्ते खुल सकते हैं।
सुप्रीम कोर्ट का भी रुख स्पष्ट है, बच्चों की सुरक्षा सर्वोच्च प्राथमिकता है।
अगर वास्तव में सुधार चाहिए, तो पहले यौन शिक्षा, परामर्श, रिपोर्टिंग सिस्टम और निगरानी तंत्र को मज़बूत करें,
न कि सुरक्षा कानूनों की धार को कुंद करें।
निष्कर्ष: सुरक्षा ही असली स्वतंत्रता है
भारत अपने बच्चों के साथ सामाजिक प्रयोग नहीं कर सकता।
16 साल की उम्र में हमारी बेटियों को चाहिए, शिक्षा, सुरक्षा और अवसर,
ना कि “यौन स्वतंत्रता” के नाम पर कानूनी भ्रम।
कानून का उद्देश्य केवल व्यक्तिगत आज़ादी की रक्षा नहीं, बल्कि सामूहिक सुरक्षा की गारंटी भी है।
सहमति की उम्र घटाने के बजाय, ज़रूरत है कि हम किशोरों को निर्णय की समझ, मानसिक परिपक्वता और आत्म-सुरक्षा की शिक्षा दें।