पूनम शर्मा
बिहार की राजनीति एक बार फिर अप्रत्याशित मोड़ पर पहुँच चुकी है। जिस गठबंधन पर विपक्ष ने पूरे राज्य में अपनी उम्मीदें टिकाई थीं, उसी महागठबंधन की नींव अब भीतर से हिलने लगी है। सबसे बड़ा झटका आया है वीआईपी (विकासशील इंसान पार्टी) प्रमुख मुकेश सहनी की तरफ से, जिन्होंने मतदान से ठीक पहले अपने समर्थकों को ऐसा संदेश दिया जिससे पूरे समीकरण बदल गए।
दरअसल, मुकेश सहनी ने अपने समर्थकों से कहा कि वे “अपने मन की सुनें”—अर्थात् जहाँ वीआईपी उम्मीदवार नहीं हैं, वहाँ एनडीए को वोट करें। यह बयान महागठबंधन के लिए किसी राजनीतिक विस्फोट से कम नहीं था। सहनी के इस रवैये ने यह स्पष्ट कर दिया कि तेजस्वी यादव के नेतृत्व पर अब सभी सहयोगी दलों का भरोसा डगमगाने लगा है।
तेजस्वी यादव से बढ़ती दूरी
सूत्र बताते हैं कि सहनी की नाराज़गी कोई अचानक की घटना नहीं है। सीट बंटवारे के समय से ही वीआईपी और राजद के बीच मतभेद गहराते गए। पिछली बार भाजपा ने अपने कोटे से वीआईपी को 11 सीटें दी थीं, लेकिन इस बार राजद ने सहनी को उम्मीद के मुताबिक़ सम्मान नहीं दिया।
तेजस्वी यादव ने जब महागठबंधन की ओर से डिप्टी सीएम उम्मीदवार की घोषणा की, तो सहनी को यह उम्मीद थी कि उन्हें इस पद की दावेदारी का अवसर मिलेगा। परंतु न तो उन्हें पर्याप्त सीटें दी गईं और न ही प्रचार में प्राथमिकता। यही वह बिंदु था जहाँ से रिश्ते बिगड़ने शुरू हुए।
सहनी बार-बार तेजस्वी से आग्रह करते रहे कि कुछ प्रमुख क्षेत्रों में उनके उम्मीदवारों को मौका दिया जाए—खासकर घोड़ा पोराम जैसे इलाक़ों में, जहाँ निषाद समाज की निर्णायक भूमिका होती है। लेकिन उनकी बातें अनसुनी रह गईं। जब राजद ने वहाँ से अफ़ज़ल अली को टिकट दिया, तो सहनी समर्थक भड़क गए। निषाद समुदाय ने इसे “पीठ में छुरा भोंकने” जैसा बताया।
“सन ऑफ मल्लाह” की राजनीति और सामाजिक समीकरण
मुकेश सहनी खुद को “सन ऑफ मल्लाह” कहकर अपनी पहचान बनाते रहे हैं। बिहार की राजनीति में यह सिर्फ़ एक नारा नहीं, बल्कि निषाद समाज के सशक्तिकरण का प्रतीक बन चुका है। सहनी ने वर्षों से इस समाज को राजनीतिक पहचान देने का प्रयास किया है।
अब जब तेजस्वी यादव के नेतृत्व में उन्हें हाशिए पर धकेला गया, तो उनका असंतोष स्वाभाविक था। यही कारण है कि उन्होंने अपने समर्थकों को इशारा किया कि वे उन दलों का साथ दें जो उनके सम्मान को समझते हैं—और यह संकेत स्पष्ट रूप से एनडीए के पक्ष में गया।
एनडीए को अप्रत्याशित लाभ
महागठबंधन की इस अंदरूनी टूट का सबसे बड़ा फायदा एनडीए को मिलता दिख रहा है।
दरभंगा से लेकर मुजफ्फरपुर तक निषाद समुदाय का वोट बैंक अब राजद से खिसकता दिख रहा है। सहनी के समर्थक उन क्षेत्रों में भाजपा-जदयू प्रत्याशियों को समर्थन दे रहे हैं जहाँ वीआईपी चुनाव नहीं लड़ रही।
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यह “साइलेंट स्विंग” बिहार के कई सीटों पर परिणाम पलट सकता है।
कांग्रेस की स्थिति भी नाज़ुक
महागठबंधन के भीतर केवल वीआईपी ही नहीं, कांग्रेस भी गंभीर असंतोष झेल रही है।
कांग्रेस को 61 सीटें दी गईं, परंतु इनमें से कई सीटों पर “फ्रेंडली फाइट” की स्थिति बन गई है — यानी जहाँ कांग्रेस और राजद, दोनों ने उम्मीदवार खड़े कर दिए।
यह सीधे तौर पर गठबंधन की एकता पर सवाल खड़ा करता है। कांग्रेस नेताओं का आरोप है कि राजद ने मुस्लिम-यादव वोट बैंक को अपने पक्ष में समेटने की कोशिश की, जबकि सहयोगी दलों को हाशिए पर छोड़ दिया।
राहुल गांधी की “वोट चोरी” की बयानबाज़ी भी इसी निराशा का संकेत है। दिल्ली में आयोजित प्रेस कॉन्फ्रेंस में उन्होंने हरियाणा चुनावों में वोट गड़बड़ी का मुद्दा उठाया, लेकिन राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यह बयान उनकी पार्टी की बिहार में संभावित हार की आहट से उपजा है।
प्रशांत किशोर की भूमिका और नई उलझनें
दूसरी ओर, बिहार में प्रशांत किशोर (PK) की जनसुराज पार्टी भी अजीब स्थिति में फँसी हुई है।
उनके कई उम्मीदवार अंदरखाने से एनडीए प्रत्याशियों को समर्थन दे रहे हैं। जिन क्षेत्रों में उन्होंने उम्मीदवार उतारे थे, वहाँ अब वोट कटवा की भूमिका निभाने से उनके समर्थक असहज महसूस कर रहे हैं।
ऐसे में प्रशांत किशोर की पार्टी का असर भी घटा है, और कई स्थानीय नेताओं ने भाजपा-जदयू के साथ अप्रत्यक्ष समझौता कर लिया है।
महागठबंधन की अंदरूनी कलह का असर
संपूर्ण परिदृश्य पर नज़र डालें तो महागठबंधन अब चारों तरफ़ से दबाव में है।
एक ओर वीआईपी की नाराज़गी और दूसरी ओर कांग्रेस का असंतोष—दोनों ने राजद के लिए मुश्किलें बढ़ा दी हैं।
तेजस्वी यादव, जो कुछ महीने पहले तक “मुख्यमंत्री पद के दावेदार” के रूप में देखे जा रहे थे, अब अपने गढ़ पटना तक सीमित होते नज़र आ रहे हैं।
महागठबंधन के भीतर की असंतोषपूर्ण फुसफुसाहट अब खुले बग़ावत में बदल रही है। सहनी समर्थकों के संदेश, कांग्रेस की आपसी फाइट, और जनसुराज के वोट-कटवा प्रभाव ने महागठबंधन को अंदर से खोखला कर दिया है।
निष्कर्ष: सत्ता की राह बदलती दिख रही है
बिहार की राजनीति में यह चुनाव केवल सीटों का नहीं, बल्कि सामाजिक प्रतिनिधित्व का भी संघर्ष बन गया है।
निषाद समुदाय का झुकाव एनडीए की ओर और यादव-मुस्लिम समीकरण की ढील—ये दोनों कारक राज्य के परिणामों को पूरी तरह बदल सकते हैं।
तेजस्वी यादव का “यादव वर्चस्व” और राहुल गांधी का “वोट चोरी” नैरेटिव अब जनता के बीच असर खोता जा रहा है।
इसके उलट, एनडीए अपने संगठन, जमीनी कार्य, और सामाजिक समीकरणों के दम पर बढ़त बनाता दिख रहा है।
राजनीति में कहा जाता है — “जिस दिन सहयोगी असंतुष्ट हो जाएं, सत्ता दूर हो जाती है।”
और आज यही बिहार की सच्चाई बन चुकी है।
महागठबंधन भीतर से टूट रहा है, और एनडीए की फसल राजनीतिक रूप से पक चुकी है।