कैसे होगा राजतिलक, जब नहीं मिलेगा महिलाओं को उचित संख्या में टिकट??

चुनावी मंचों पर महिला सशक्तिकरण के वादे गूंजे, लेकिन टिकट बंटवारे में दलों ने फिर दोहराई वही पुरानी राजनीति, वंशवाद, प्रतीकवाद और उपेक्षा का खेल जारी।

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प्रतिज्ञा राय
नई दिल्ली, 05 नवंबर:
महिला सशक्तिकरण या राजनीतिक प्रतीकवाद?
बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में महिलाओं की भूमिका एक बार फिर बहस के केंद्र में है। अदालतों, मंचों और घोषणापत्रों में महिला सशक्तिकरण के वादे गूंजते रहे हैं, लेकिन जब बात टिकट वितरण की आती है तो तस्वीर कुछ और ही दिखाई देती है। महिलाओं को राजनीति में ‘समान भागीदारी’ का वादा करने वाले दल, वास्तविकता में उन्हें सीमित संख्या में ही अवसर दे रहे हैं। ये कैसी राजनीति हैं? कैसा महिला कल्याण? ये भी उल्लेखनीय है कि प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की महिला सशक्तिकरण के प्रति उदारता से ही संसद में नारी शक्ति वंदन विधेयक पारित हुआ! स्वतंत्र भारत के इतिहास का ये वंदनीय कदम हैं।

हालांकि गृहिणी, शिक्षित, उद्यमी और सामाजिक रूप से सक्रिय महिलाएं राजनीति में उतरी हैं, लेकिन यह भागीदारी अभी भी औपचारिक प्रतीत होती है। इसके अलावा जिन महिलाओं को उम्मीदवार बनाया जाता है, उनकी पृष्ठभूमि भूमि राजनीतिक परिवारों से ज़्यादा देखी जा रही है, जिस पर सभी राजनीतिक दलों को समग्र चिंतन की आवश्यकता है।

महिला उम्मीदवारों के आंकड़े और सच्चाई

बिहार चुनाव 2025 में कुल 2,616 उम्मीदवारों में से केवल 258 महिलाएं हैं—यानी लगभग 10%। यह अनुपात पिछले दो चुनावों की तुलना में गिरावट दर्शाता है। दिलचस्प बात यह है कि महिला वोटरों का प्रतिशत लगातार बढ़ रहा है, लेकिन उन्हें टिकट मिलने की दर उसी अनुपात में नहीं बढ़ी। ये महिला कल्याण की बात करने वाले राजनीतिक दलों के लिए समग्र चिंतन जरूरी है।

2020 में महिला उम्मीदवारों की सफलता दर 7% थी, जबकि पुरुषों की 10% रही। इससे स्पष्ट है कि महिला प्रतिनिधित्व में न केवल अवसरों की कमी है, बल्कि चुनावी सफलता का अनुपात भी सीमित है।

परिवारवाद और बाहुबली प्रभाव

इस बार भी अधिकांश महिला उम्मीदवारों का चयन वंशवाद या पारिवारिक पृष्ठभूमि के आधार पर हुआ है। राजद की 24 में से 23 महिलाएं किसी न किसी राजनीतिक परिवार से जुड़ी हैं, वहीं भाजपा में 13 में से 9 उम्मीदवारों की पारिवारिक या संगठनात्मक पहचान पहले से स्थापित है।

यह प्रवृत्ति यह दिखाती है कि महिला सशक्तिकरण के नाम पर पार्टियां राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ा रही हैं। इसलिए ऐसा लगता है कि भारतीय राजनीति में अब आम या पहली पीढ़ी की महिलाओं के लिए प्रवेश का रास्ता अब भी कठिन है। बाहुबली नेताओं की पत्नियाँ, बेटियाँ, या रिश्तेदार उम्मीदवार बन रही हैं, जबकि सामाजिक रूप से सक्रिय महिलाएं हाशिए पर हैं। कोई दल और नेता कुछ भी दावा करे, परंतु ये सच्चाई है।

महिला मतदाता: शक्ति या सिर्फ वोट बैंक?

बिहार में महिला मतदाता पुरुषों की तुलना में अधिक संख्या में वोट डालती हैं। 2020 के चुनाव में महिला मतदान प्रतिशत पुरुषों से लगभग 4% अधिक था। फिर भी, उन्हें राजनीतिक दलों में टिकट देने के मामले में गंभीरता से नहीं लिया गया।

राजनीतिक दलों के लिए महिलाएं अब भी “वोट बैंक” हैं, न कि “निर्णय लेने वाली भागीदार”। यह विडंबना तब और बढ़ जाती है जब हर दल अपने घोषणापत्र में महिलाओं को आत्मनिर्भर, सशक्त और आर्थिक रूप से स्वतंत्र बनाने के वादे तो करता है—पर टिकट वितरण के वक्त वही वादे यथार्थ के धरातल पर खरे नहीं उतरते।

दलवार रणनीतियाँ और दावे

राजद (RJD): तेजस्वी यादव ने “जीविका दीदी” और महिला मतदाताओं के लिए 30,000 रुपये की नकद सहायता की घोषणा की। लेकिन टिकट वितरण में यह प्रतिबद्धता दिखाई नहीं दी, जबकि तेजस्वी के परिवार में भी महिलाओं की प्रधानता हैं। नौ भाई-बहनों में उनकी बहनों की संख्या सात हैं।

भाजपा (BJP): पार्टी ने महिला सुरक्षा, रोजगार और उद्यमिता के वादे किए, पर 13 टिकटों के अलावा कोई ठोस पहल नहीं की। पार्टी को इस मुद्दे पर और विचार करने की जरूरत है।

जदयू (JDU): मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की “नारी सशक्तिकरण” की नीति के बावजूद, महिला प्रत्याशियों की संख्या सीमित रही। सबको पता है कि पिछले तीन चुनावों में जदयू को महिला मतदाताओं ने खुलकर कर साथ दिया।

कांग्रेस (INC): 5 महिला उम्मीदवारों के साथ पार्टी का प्रदर्शन कमजोर रहा। यहाँ भी राहुल गांधी की कथनी और करनी में अंतर साफ़ दिखायी दे रहा है।

जन सुराज पार्टी : कभी चुनाव प्रबंधक व रणनीतिकार रहे प्रशांत किशोर की पार्टी ने 25 महिला उम्मीदवार उतारकर अपेक्षाकृत साहसिक कदम तो उठाया, लेकिन उनके भविष्य को लेकर कई प्रकार की अटकलें सुनने को मिल रहेी हैं।

बसपा (BSP): 26 महिला प्रत्याशी उतारकर महिला भागीदारी बढ़ाने का प्रयास किया गया, जबकि बसपा का कोई खास वोट बैंक बिहार में नहीं बताया जाता है। फिर भी बसपा प्रमुख बहन मायावती का यह कदम सराहनीय कहा जा सकता है।

सामाजिक और राजनीतिक परिप्रेक्ष्य

चुनावी राजनीति में जातीय समीकरणों के प्रभाव से बिहार भी मुक्त नहीं है। महिला उम्मीदवारों का चयन भी जातिगत और क्षेत्रीय समीकरणों को ध्यान में रखकर किया जा रहा है। इस कारण “सशक्तिकरण” की जगह “सामाजिक गणित” प्राथमिकता बनती दिख रही है।

यह प्रवृत्ति राजनीति में महिलाओं की स्वायत्तता को सीमित करती है। महिलाएं टिकट तो पाती हैं, पर नीति निर्माण या संगठनात्मक निर्णयों में उनकी भूमिका अक्सर प्रतीकात्मक रहती है।

बिहार विधानसभा चुनाव 2025 ने यह स्पष्ट किया है कि महिला सशक्तिकरण की राह अब भी लंबी और कठिन है। महिलाएं वोटर के रूप में सशक्त हैं, लेकिन नेता के रूप में अब भी उपेक्षित। राजनीतिक दलों को चाहिए कि वे महिलाओं को वंशवाद, जातिवाद, और प्रतीकवाद से ऊपर उठकर वास्तविक नेतृत्व दें।

जब तक आम महिलाओं को टिकट और राजनीतिक प्रशिक्षण नहीं मिलेगा, तब तक “महिला सशक्तिकरण” सिर्फ भाषणों और पोस्टरों तक सीमित रहेगा।

बिहार की आधी आबादी अब पहले से ज्यादा जागरूक है। आने वाले चुनावों में यह जागरूकता दलों को मजबूर करेगी कि वे महिला भागीदारी को “सजावट” नहीं, बल्कि “सत्ता में साझेदारी” समझें। तभी सच्चे अर्थों में बिहार में महिला सशक्तिकरण और लोकतांत्रिक समानता का सपना पूरा होगा।

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