वोटर लिस्ट शुद्धिकरण बौखलाया विपक्ष आखिर विपक्ष को डर किस बात का है ?

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पूनम शर्मा
भारत में लोकतंत्र की सबसे बड़ी ताकत उसकी मतदाता सूची (Voter List) है — यही वह आधार है जो जनता के अधिकारों को तय करती है और हर नागरिक की आवाज़ को चुनाव तक पहुँचाती है। लेकिन जब मतदाता सूची ही गड़बड़ हो जाए, जब एक ही पते पर सैकड़ों नाम दर्ज हों या मृत और अवैध मतदाताओं के नाम बने रहें, तब लोकतंत्र की जड़ें हिल जाती हैं।

यही स्थिति पिछले कुछ वर्षों में बार-बार सामने आई। बिहार में जब चुनाव आयोग ने विशेष अभियान चलाकर मतदाता सूची का Special Intensive Revision (SIR) किया, तो  बिहार में लगभग 47 लाख फर्जी वोटर पाए गए — यानी 47 लाख ऐसे नाम जो या तो मृतक थे, या उस क्षेत्र में रहते ही नहीं थे, या किसी और पते पर दोबारा दर्ज थे।

अब जब चुनाव आयोग ने यह प्रक्रिया पूरे देश में शुरू करने की घोषणा की है, तो विपक्ष के कई नेता बौखला उठे हैं। कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, डीएमके और वामपंथी दलों ने इस पहल को “राजनीतिक साजिश” बताना शुरू कर दिया है। सवाल यह है कि जो प्रक्रिया पारदर्शिता लाने और लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए की जा रही है, उसका डर विपक्ष को क्यों सता रहा है?

1. विपक्ष का पहला डर – वोटर डिलीशन या सच्चाई का उजागर होना

विपक्षी दलों का पहला आरोप यह है कि SIR के नाम पर “वैध वोटरों” के नाम हटाए जाएंगे। लेकिन सच तो यह है कि फर्जी वोटरों की सबसे अधिक संख्या उन्हीं इलाकों में पाई जाती है जहाँ विपक्षी दल वर्षों से वर्चस्व में हैं।

बिहार का उदाहरण सबके सामने है — 47 लाख फर्जी वोट हटाए गए, जिनमें से अधिकांश वोटर ऐसे क्षेत्रों से थे जहाँ विपक्ष को परंपरागत बढ़त मिलती रही है। इससे यह स्पष्ट होता है कि विपक्ष की कई सीटें इन फर्जी वोटों के सहारे सुरक्षित थीं।

आज जब चुनाव आयोग पूरे देश में वोटर सूची का शुद्धिकरण करने जा रहा है, तो विपक्ष को डर है कि उसका यह “फर्जी वोट बैंक” खत्म हो जाएगा।

2. चुनाव से पहले SIR की शुरुआत पर राजनीति

कांग्रेस और उसके सहयोगी दल आरोप लगा रहे हैं कि SIR को चुनावों से कुछ महीने पहले शुरू किया गया ताकि “सत्ता पक्ष को फायदा हो।”
लेकिन यह तर्क इसलिए कमजोर पड़ जाता है क्योंकि SIR एक समान रूप से उन राज्यों में भी हो रहा है जहाँ भाजपा की सरकारें हैं (जैसे गुजरात, उत्तर प्रदेश) और उन राज्यों में भी जहाँ विपक्षी दल सत्ता में हैं (जैसे पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु)।

इससे यह साफ होता है कि चुनाव आयोग की प्रक्रिया किसी पार्टी विशेष के हित में नहीं बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर शुद्धता लाने के लिए है।
विपक्ष का विरोध इसलिए नहीं कि प्रक्रिया गलत है, बल्कि इसलिए कि अब वे वोटर सूची की गड़बड़ियों का फायदा नहीं उठा पाएंगे।

3. चुनाव आयोग पर भरोसे की कमी या डर का बहाना?

विपक्ष अब कहता है कि उसे चुनाव आयोग पर भरोसा नहीं है। लेकिन यह वही आयोग है जिसने स्वतंत्र भारत में सात दशकों से अधिक समय तक सैकड़ों निष्पक्ष चुनाव कराए हैं।
जब परिणाम विपक्ष के पक्ष में आते हैं, तब आयोग “निष्पक्ष” कहलाता है, और जब पारदर्शिता की बात आती है, तो वही आयोग “पक्षपाती” घोषित कर दिया जाता है।

असल में विपक्ष इस समय जनता के मुद्दों से कट चुका है। उनके पास विकास, रोजगार, या सुशासन पर कोई ठोस एजेंडा नहीं है। इसलिए उनका पूरा जोर चुनावी गणित और जातीय समीकरणों पर रहता है — और इसमें “फर्जी वोटरों” की भूमिका उनके लिए अत्यंत महत्वपूर्ण रही है।

4. पारदर्शिता और डेटा को लेकर दिखावटी चिंता

विपक्ष यह कहकर शोर मचा रहा है कि चुनाव आयोग स्पष्ट नहीं कर रहा कि वोटरों को हटाने या जोड़ने का मापदंड क्या होगा। लेकिन आयोग पहले ही कह चुका है कि हर मतदाता को एक यूनिक वेरिफिकेशन फॉर्म दिया जाएगा, जिससे वह अपने विवरण की पुष्टि कर सके।

पारदर्शिता की पूरी प्रक्रिया निर्धारित है — लेकिन विपक्षी दल जानबूझकर भ्रम फैला रहे हैं ताकि लोगों के बीच डर और अविश्वास पैदा किया जा सके।
सच यह है कि यदि कोई नागरिक वैध भारतीय मतदाता है, तो उसका नाम सूची से हटाना असंभव है। डर सिर्फ उन्हें है जो जानते हैं कि उनके समर्थकों में हजारों “डुप्लीकेट” या “बोगस” नाम हैं।

5. अल्पसंख्यक और प्रवासी मतदाताओं के नाम पर राजनीति

कांग्रेस और उसके सहयोगी दल यह तर्क देते हैं कि SIR से प्रवासी मजदूरों और गरीब तबकों के नाम हट सकते हैं। लेकिन बिहार और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में यह भी देखा गया कि सबसे अधिक फर्जी नाम इन्हीं वर्गों के नाम पर बनाए गए थे।
यानी जिन गरीबों और अल्पसंख्यकों के नाम का सहारा लेकर विपक्ष राजनीति करता है, उन्हीं के नाम पर फर्जी वोटर बनाकर लोकतंत्र के साथ खिलवाड़ किया गया।

यह विरोध इसलिए है क्योंकि SIR उनकी राजनीतिक “सप्लाई चेन” पर प्रहार कर रहा है।

6. NRC से जोड़ना: जनता को गुमराह करने की कोशिश

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन ने SIR की तुलना “मिनी-NRC” से कर दी।
यह तुलना पूरी तरह गलत है — क्योंकि NRC नागरिकता की जांच का दस्तावेज था, जबकि SIR सिर्फ वोटर सूची का सत्यापन है।

फिर भी विपक्ष इसे साम्प्रदायिक रंग देने की कोशिश कर रहा है ताकि एक बार फिर अल्पसंख्यक मतदाता भयभीत होकर उनके पक्ष में लामबंद हो जाएं। यह राजनीति का सबसे पुराना हथकंडा है।

7. विकास नहीं, वोटों की राजनीति

सच्चाई यह है कि आज विपक्षी दलों के पास विकास का कोई एजेंडा नहीं बचा है। न रोजगार पर कोई ठोस नीति, न ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर कोई दृष्टि, न उद्योग या शिक्षा सुधार पर कोई योजना।
ऐसे में जब जनता से सीधा संवाद करने का साहस नहीं, तो वोटर लिस्ट में हेरफेर ही उनका सहारा रह गया है।

अब जब चुनाव आयोग ने यह व्यवस्था शुरू की है कि “एक व्यक्ति – एक वोट” का सिद्धांत सख्ती से लागू हो, तो विपक्ष को लगता है कि उनकी “फर्जी वोट राजनीति” समाप्त हो जाएगी।

 पारदर्शी लोकतंत्र से डरने वालों की पहचान

SIR कोई राजनीतिक अभियान नहीं, बल्कि लोकतंत्र की शुद्धता का अभियान है। यह पहल सुनिश्चित करेगी कि भारत के चुनाव न केवल स्वतंत्र हों बल्कि विश्वसनीय भी हों। विपक्ष अगर वास्तव में लोकतंत्र का पक्षधर होता, तो वह इस प्रक्रिया का स्वागत करता। लेकिन जब किसी पार्टी की राजनीति फर्जी वोटरों पर टिकी हो, तो पारदर्शिता उसके लिए सबसे बड़ा खतरा बन जाती है। आज देश को यह समझना होगा कि SIR का विरोध लोकतंत्र का नहीं, बल्कि फर्जी वोटों की राजनीति का विरोध है। चुनाव आयोग देश को एक निष्पक्ष और स्वच्छ चुनाव प्रणाली की ओर ले जा रहा है — और जो दल इसका विरोध कर रहे हैं, वे अनजाने में खुद को लोकतंत्र विरोधी खेमे में खड़ा कर रहे हैं।

भारत का लोकतंत्र तभी मजबूत रहेगा, जब हर वोट सही होगा, हर मतदाता वास्तविक होगा, और हर दल जनता के असली भरोसे से चुनाव जीतेगा — न कि बोगस वोटरों के सहारे।

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