भारत का सबसे प्राचीन खगोल ग्रंथ ‘महासलिलम्’ पुनः खोजा गया

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पूनम शर्मा 

भारत के वैदिक युग के आकाश-निरीक्षकों ने न केवल तारों और ग्रहों को देखा, बल्कि ब्रह्मांड को एक जीवित ग्रंथ की तरह पढ़ा। प्रो. आर. एन. अय्यंगर द्वारा संपादित और अनूदित संस्कृत ग्रंथ ‘महासलिलम् – आ वेदाङ्ग टेक्स्ट ऑन एस्ट्रल साइंसेज़ (वृद्धगार्गीय ज्योतिष का 24वां अङ्ग) इस परंपरा की गूंज को फिर से जीवित करता है। यह ग्रंथ, जिसे भारत के सबसे पुराने खगोलीय ग्रंथों में गिना जा सकता है, इस बात का साक्षी है कि जब दूरबीनें नहीं थीं, तब भी वैदिक ऋषि तारों, धूमकेतुओं, ग्रहों और संक्रांतियों का सूक्ष्म अध्ययन कर रहे थे।

इसरो प्रमुख ने किया विमोचन

28 दिसंबर 2024 को बेंगलुरु के मिथिक सोसाइटी में इसरो के अध्यक्ष डॉ. एस. सोमनाथ ने इस पुस्तक का विमोचन किया  था । यह कार्यक्रम केवल एक विमोचन नहीं, बल्कि भारत के प्राचीन और आधुनिक विज्ञान के बीच एक प्रतीकात्मक संगम था। इस अवसर पर केंद्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. श्रीनिवास वरखेडी भी उपस्थित थे।

खोया हुआ ग्रंथ फिर उजाले में

महासलिलम्, वृद्धगार्गीय ज्योतिष का चौबीसवां अङ्ग है, जो ऋषि वृद्धगार्ग के नाम से जुड़ा है। यह भाग सदियों से लुप्त माना जाता था, केवल कुछ उद्धरणों में ही उसका उल्लेख मिलता था। प्रो. अय्यंगर ने भारत और विदेश के विभिन्न पुस्तकालयों से 11 पांडुलिपियों को एकत्र कर इसका आलोचनात्मक संस्करण तैयार किया और संस्कृत से अंग्रेज़ी में अनुवाद किया।

‘महासलिलम्’ का अर्थ ही अपने आप में दार्शनिक है। ‘सलिल’ यानी जल, परंतु यहां यह उस आदिकालीन तरल अंधकार (अन्धं तमः) का प्रतीक है, जिससे सृष्टि की उत्पत्ति हुई। आधुनिक विज्ञान की भाषा में, यह ‘डार्क मैटर’ की अवधारणा से जुड़ता है — वह अदृश्य ऊर्जा जो प्रकाश को जन्म देती है।

प्रश्नों से भरी ऋषियों की संवाद परंपरा

यह ग्रंथ महर्षि विश्वामित्र और वृद्धगार्ग के बीच संवाद के रूप में रचा गया है। विश्वामित्र वह प्रश्न पूछते हैं जो आज का वैज्ञानिक भी पूछ सकता है —
“आकाश और पृथ्वी की उत्पत्ति कैसे हुई? तारों की गति का कारण क्या है? ग्रहण क्यों लगते हैं? समय का स्वरूप क्या है?”

वृद्धगार्ग उत्तर में भौतिक और आध्यात्मिक तत्त्वों को एक साथ पिरोते हैं। वे बताते हैं कि किस प्रकार ‘ब्रह्माण्ड’ रूपी अंडा फटकर आकाश और पृथ्वी बना, सूर्य और चंद्रमा मेरु पर्वत के चारों ओर घूमते हैं, और 108 खगोलीय पिंडों (7 ग्रह और 101 केतु या धूमकेतु) का स्वतंत्र अस्तित्व है।

ग्रंथ में सूर्य की गति, चंद्रग्रहण का छह-मासिक चक्र, पूर्णिमा की सटीक गणना और ग्रहों की चाल का विवरण मिलता है।

वैज्ञानिक परंपरा का सबसे पुराना ग्रंथ?

प्रो. अय्यंगर का मानना है कि महासलिलम् की रचना 1800–1600 ईसा पूर्व, यानी मगधी युग में हुई थी। उस समय ग्रीष्म संक्रांति ‘मघा नक्षत्र’ में पड़ती थी। यह काल लगध के ‘वेदांग ज्योतिष’ से भी बहुत पुराना है।

इन सूक्ष्म खगोलीय विवरणों से सिद्ध होता है कि भारत उस युग में ही सौर-चंद्र वर्षचक्र, संक्रांति (आयन) की गणना, और पंचवर्षीय युग प्रणाली जैसे अवधारणाओं से परिचित था।

प्रो. अय्यंगर का असाधारण शोध

प्रो. आर. एन. अय्यंगर, जो कभी भारतीय विज्ञान संस्थान (IISc) से जुड़े रहे और अब जैन विश्वविद्यालय के ‘सेंटर फॉर एंशिएंट हिस्ट्री एंड कल्चर’ में प्रोफेसर हैं, एक दुर्लभ विद्वान हैं — इंजीनियर, भूकंप वैज्ञानिक और संस्कृतज्ञ — तीनों एक साथ।

उनकी पूर्व कृति पराशरतंत्र (2013) ने पहले ही यह प्रमाणित किया था कि भारतीय खगोलविदों ने बाबिलोन या यूनान से पहले ही धूमकेतुओं, ग्रहणों और ग्रहों की गति को व्यवस्थित रूप से दर्ज किया था। महासलिलम् ने उस दावे को और प्राचीनता प्रदान की है।

विज्ञान और अध्यात्म का अद्भुत संगम

महासलिलम् का विशेष आकर्षण यह है कि यह विज्ञान और आध्यात्म को अलग नहीं करता। जब वृद्धगार्ग कहते हैं कि सूर्य की गति से दिन और रात बनते हैं, या कि “काल ही समस्त गतियों का मूल कारण है,” तो यह केवल दार्शनिक नहीं, बल्कि वैज्ञानिक कथन भी है।

यह ग्रंथ उस युग का प्रतिनिधि है जब प्रकृति की माप और उपासना एक ही साधना मानी जाती थी।

पुस्तक की विशेषताएँ

केंद्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित यह पुस्तक लगभग 321 पृष्ठों की है।
इसमें पद्मश्री प्रो. एम. डी. श्रीनिवास का विस्तृत प्रस्तावना लेख है, जो इसे वैदिक से सिद्धांत काल तक की खगोल परंपरा में रखता है।
संस्कृत में प्रो. वीरनारायण एन. के. पंडुरंगी का ‘पूर्ववाक्य’ दार्शनिक दृष्टि देता है।

प्रो. अय्यंगर की भूमिका इस ग्रंथ को खोज और पुनर्संरचना की वैज्ञानिक यात्रा की तरह प्रस्तुत करती है— कैसे विभिन्न पांडुलिपियों की तुलना की गई, पाठभेदों को सुलझाया गया, और प्रत्येक तकनीकी शब्द को आधुनिक खगोल विज्ञान से जोड़ा गया।

सभ्यता की निरंतरता का प्रमाण

महासलिलम् केवल एक ग्रंथ नहीं, सभ्यता की स्मृति है। यह दिखाता है कि भारत में विज्ञान की परंपरा केवल ग्रह-नक्षत्रों की पूजा तक सीमित नहीं थी, बल्कि अवलोकन, गणना और तर्क पर आधारित थी।

जब इसरो प्रमुख स्वयं इसका विमोचन करते हैं, तो यह प्रतीक है कि जो सभ्यता कभी ध्रुवतारा देखकर दिशा पहचानती थी, वही आज उपग्रहों और रॉकेटों से अंतरिक्ष नाप रही है।

निष्कर्ष

महासलिलम् न केवल एक पुरातन ज्योतिष ग्रंथ है, बल्कि प्राचीन और आधुनिक भारत के बीच एक सेतु है।
यह हमें याद दिलाता है कि सत्य की खोज — चाहे वह मंत्रों से हो या गणना से — भारतीय चिंतन की आत्मा रही है।
प्रो. अय्यंगर का यह कार्य न केवल एक ग्रंथ की पुनः प्राप्ति है, बल्कि यह प्रमाण है कि भारत की वैज्ञानिक चेतना उतनी ही पुरानी है जितनी उसकी सभ्यता स्वयं।

(आभार : स्रोत स्वराज्य)

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