स्कूल हैं, शिक्षक हैं… लेकिन छात्र नहीं! आखिर जिम्मेदारी किसकी है?

कहीं शिक्षक बिना पढ़ाए वेतन पा रहे, तो कहीं एक शिक्षक के भरोसे हैं सैकड़ों बच्चे

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7,993 स्कूलों में एक भी छात्र नहीं, फिर भी तैनात हैं 20,817 शिक्षक
  • 1 लाख से अधिक स्कूल सिर्फ एक शिक्षक पर चल रहे, जिनमें 33 लाख बच्चे पढ़ रहे
  • पश्चिम बंगाल में सबसे ज़्यादा ज़ीरो एनरोलमेंट स्कूल, आंध्र प्रदेश में एकल शिक्षक स्कूलों की भरमार
  • मंत्रालय ने कहा, “राज्यों को शिक्षक तैनाती में संतुलन और जवाबदेही सुनिश्चित करनी चाहिए”

प्रतिज्ञा राय

नई दिल्ली, 31 अक्टूबर: भारत की शिक्षा व्यवस्था पर एक बार फिर गंभीर सवाल खड़े हो गए हैं। हाल ही में जारी UDISE रिपोर्ट 2024–25 ने चौंकाने वाला खुलासा किया है—देश में 7,993 स्कूल ऐसे हैं, जहाँ एक भी छात्र नहीं है, लेकिन 20,817 शिक्षक अब भी तैनात हैं। दूसरी ओर, 1 लाख से अधिक स्कूल ऐसे हैं जो सिर्फ एक शिक्षक के भरोसे चल रहे हैं, जिनमें 33 लाख बच्चे पढ़ रहे हैं। सवाल यह है कि यह विरोधाभासी स्थिति बनी कैसे और इतने वर्षों से सुधार क्यों नहीं हो पाया?

असमान तैनाती या लापरवाही?

शिक्षा मंत्रालय ने इन आंकड़ों को जारी करते हुए राज्यों से जवाब मांगा है कि आखिर ऐसी स्थिति क्यों है। लेकिन यह सवाल खुद मंत्रालय पर भी उठता है। क्योंकि यह डेटा हर साल मंत्रालय के अधीन तैयार होने वाली रिपोर्ट से ही सामने आता है।
अगर पिछले वर्षों से ही ऐसी गड़बड़ियाँ जारी हैं, तो फिर मॉनिटरिंग व्यवस्था कहाँ नाकाम रही?
राज्यों से डेटा लेने, उसका विश्लेषण करने और सुधार के निर्देश जारी करने की जिम्मेदारी मंत्रालय की ही होती है। ऐसे में सिर्फ “राज्यों को आईना दिखाना” काफी नहीं है, बल्कि नीति स्तर पर जवाबदेही तय करना भी जरूरी है।

सबसे बड़ी गड़बड़ी, संसाधनों का असंतुलित उपयोग

यह आंकड़े भारत की शिक्षा व्यवस्था की असली समस्या को उजागर करते हैं, संसाधनों का असमान वितरण।
जहाँ कुछ स्कूलों में बच्चे ही नहीं हैं, वहाँ शिक्षक खाली बैठे वेतन पा रहे हैं। वहीं, कई स्कूलों में एक ही शिक्षक सैकड़ों बच्चों को संभालने को मजबूर है।
ऐसे में न तो शिक्षक अपना काम ईमानदारी से कर पाते हैं, न ही बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मिल पाती है।

सबसे अधिक “ज़ीरो एनरोलमेंट स्कूल” पश्चिम बंगाल में हैं, 3,812 स्कूल, जिनमें 17,965 शिक्षक कार्यरत हैं। तेलंगाना, मध्य प्रदेश, झारखंड, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड जैसे राज्यों में भी दर्जनों स्कूल बिना छात्र के हैं।
दूसरी ओर, “एकल शिक्षक वाले स्कूल” की संख्या आंध्र प्रदेश में 12,912 और उत्तर प्रदेश में 9,508 है, यह संख्या किसी भी विकसित देश की तुलना में बहुत बड़ी है।

समस्या की जड़ , राजनीति और जवाबदेही की कमी

पश्चिम बंगाल में शिक्षकों की भर्ती सालों से विवादों में रही है। रिपोर्ट संकेत देती है कि कई जगहों पर राजनीतिक प्रभाव के कारण गैरज़रूरी शिक्षकों की नियुक्तियाँ की गईं।
दूसरी तरफ, कुछ गरीब और दूरदराज़ क्षेत्रों में पर्याप्त शिक्षक नहीं पहुँचाए गए।
यह दर्शाता है कि शिक्षा को अब भी राजनीति का औजार समझा जा रहा है, न कि विकास का आधार।

शिक्षा मंत्रालय और राज्य सरकारों के बीच जवाबदेही की कमी ने इस समस्या को और गहरा किया है। मंत्रालय कहता है “शिक्षा राज्य का विषय है”, और राज्य कहते हैं “फंड केंद्र से आता है” इस आपसी जिम्मेदारी टालने के खेल में नुकसान सिर्फ छात्रों का हो रहा है।

सुधार की दिशा क्या हो सकती है?

1. स्कूलों का पुनर्गठन (Merger) – जिन स्कूलों में छात्र नहीं हैं, उन्हें पास के स्कूलों में जोड़ा जाए।

2. तैनाती नीति में पारदर्शिता – शिक्षक भर्ती और पोस्टिंग का डिजिटल ट्रैकिंग सिस्टम बनाया जाए।

3. जवाबदेही तय हो – केवल रिपोर्ट जारी करने से नहीं, बल्कि अधिकारियों पर कार्रवाई से सुधार संभव है।

4. गुणवत्ता पर जोर – छात्र-शिक्षक अनुपात 1:30 (या पिछड़े इलाकों में 1:25) का पालन सुनिश्चित किया जाए।

5. निरंतर ऑडिट और थर्ड-पार्टी सर्वेक्षण- ताकि हर साल सिर्फ डेटा नहीं, बल्कि वास्तविक स्थिति की जांच हो।

भारत के शिक्षा ढांचे में सुधार की बात दशकों से की जा रही है, पर जमीनी बदलाव आज भी अधूरा है।
खाली स्कूलों में बैठे शिक्षक और भीड़ वाले स्कूलों में अकेले जूझते अध्यापक, यह दोनों ही तस्वीरें बताती हैं कि नीति और अमल के बीच गहरी खाई है।
जब तक मंत्रालय और राज्य दोनों अपने स्तर पर जवाबदेही और पारदर्शिता नहीं लाते, तब तक “हर बच्चे को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा” सिर्फ एक नारा बनकर रह जाएगा।

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