पूनम शर्मा
केरल के त्रिशूर जिले के इरिंजलाकुडा नगर पालिका में स्थित श्री कूडलमणिक्यम मंदिर आज एक नए विवाद का केंद्र बन गया है। विवाद का विषय साधारण लगता है — मंदिर में फूल माला कौन बनाएगा? पर इस प्रश्न के पीछे आधुनिक हिंदू समाज में हो रहे एक गहरे परिवर्तन की कहानी छिपी है।
विवाद की शुरुआत तब हुई जब के. एस. अनुराग नामक युवक, जो एझावा समुदाय से आते हैं, को ‘कझाकम’ पद पर नियुक्त किया गया। यह पद पूजा संबंधी सहायक कार्यों जैसे कि देवता के लिए माला बनाना शामिल करता है। अनुराग की नियुक्ति जाति से नहीं बल्कि योग्यता से हुई — केरल देवस्वं भर्ती बोर्ड की परीक्षा के आधार पर।
यहीं से विवाद भड़क उठा। मंदिर के छह प्रमुख तंत्रियों (मुख्य पुजारियों) में से पाँच ने कार्य करने से इनकार कर दिया। उनका तर्क था कि नियुक्ति पारंपरिक परिवार की सहमति के बिना की गई और यह “परंपरा के विरुद्ध” है। सदियों से ये पद अंबलावासी परिवारों के उत्तराधिकार अधिकार (करय्मा प्रथा) के तहत सुरक्षित माने जाते रहे हैं।
आलोचकों के अनुसार, यह विरोध दरअसल जातीय पूर्वाग्रह का आवरण है। जब तक चयन उच्च जाति से होता रहा, तब तक परंपरा पर कोई प्रश्न नहीं उठा, पर जैसे ही एक पिछड़ी जाति (OBC) से उम्मीदवार चुना गया, परंपरा याद आ गई।
देवस्वं बोर्ड का कहना है कि 2015 के भर्ती बोर्ड अधिनियम के अनुसार सभी नियुक्तियाँ योग्यता के आधार पर होती हैं — किसी जातीय परंपरा के नहीं।
पुजारी परंपरा में हो रहा मौन परिवर्तन
कूडलमणिक्यम विवाद असल में एक बहुत बड़ी सामाजिक क्रांति का लक्षण है — पुजारी पद को सभी जातियों के लिए खोलना। यह परिवर्तन सिर्फ सामाजिक नहीं, बल्कि कानूनी संघर्ष का भी विषय बन चुका है। केरल उच्च न्यायालय में दायर याचिका W.P.(C) No. 3994/2024 में अखिल केरल तंत्रि समाजम ने देवस्वं बोर्ड की उस अधिकारिता को चुनौती दी है जिससे वे नई पुजारी प्रशिक्षण संस्थाओं को मान्यता देते हैं।
उनका दावा है कि केवल पारंपरिक तंत्रियों को ही यह अधिकार है कि कौन “शास्त्र सम्मत” पुजारी है।
पर इसी बहस के केंद्र में है एक संस्था — तंत्र विद्या पीठम (Thanthra Vidya Peedham – TVP) — जिसने इस सामाजिक बदलाव की नींव रखी।
‘संघ प्रेरित’ तंत्र विद्या पीठम: शांत क्रांति का केंद्र
एरणाकुलम में स्थित यह संस्था 1972 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े एक समाजसेवी ने स्थापित की थी। उद्देश्य था — सभी जातियों के युवाओं को वेद, तंत्र और पूजा-विधि की शिक्षा देकर पुजारी बनने का अवसर देना।
यह वर्ष भी प्रतीकात्मक था — 1931-32 के मंदिर प्रवेश आंदोलन की स्वर्ण जयंती, जिसे श्री नारायण गुरु के आध्यात्मिक आंदोलन से प्रेरणा मिली थी। नारायण गुरु ने जन्माधारित जातीय व्यवस्था को चुनौती देकर स्वयं मंदिरों की स्थापना की थी।
तंत्र विद्या पीठम ने विद्वान वैदिक आचार्यों के सहयोग से ऐसा पाठ्यक्रम बनाया जो वेद, तंत्र और कर्मकांड की संपूर्ण शिक्षा देता था। पर इसकी सबसे बड़ी उपलब्धि थी — कांची कामकोटि पीठ के शंकराचार्य श्री जयेन्द्र सरस्वती का सार्वजनिक समर्थन।
यह समर्थन इस क्रांति को वैदिक आशीर्वाद जैसा था — यानी जाति-मुक्त पुजारी प्रशिक्षण को स्वयं परंपरा की मान्यता मिली। इसने संघर्ष नहीं, बल्कि सद्भाव से परिवर्तन का रास्ता खोला।
मौन निर्माण, बिना प्रचार
तंत्र विद्या पीठम ने कोई आंदोलन नहीं चलाया, कोई नारे नहीं दिए — उसने बस काम किया। उसने प्रशिक्षित, योग्य पुजारियों की एक पूरी पीढ़ी तैयार की।
जब त्रावणकोर देवस्वं बोर्ड को पुजारी चाहिए थे, तब TVP के प्रतिनिधि साक्षात्कार पैनल में बैठे। और जब 2017 में केरल सरकार ने SC और OBC समुदायों से दर्जनों पुजारियों की नियुक्ति की, तो इसे ‘प्रगतिशील सरकार की जीत’ कहा गया।
परंतु असल में, यह उपलब्धि उस संस्थागत तैयारी का परिणाम थी जो संघ प्रेरित संस्थाओं ने दशकों तक चुपचाप की थी।
“परंपरा से मुक्ति” नहीं, बल्कि “परंपरा का पुनरुद्धार”
अक्सर विमर्श यह कहता है कि हिंदू धर्म ने जातिवाद पैदा किया और बौद्ध धर्म समानता लाया। पर इतिहास बताता है कि कई बार बौद्ध-जैन परंपराओं की कठोर अहिंसा और नैतिक संहिताओं ने कुछ पेशों को “अशुद्ध” ठहराकर उन्हें सामाजिक रूप से हीन बना दिया।
प्राचीन बौद्ध विनय पिटक में ‘फूल बीनने वाला’, ‘शिकारी’, ‘बांस बुनने वाला’ जैसे पेशों को हिन जाति कहा गया है। यही विचार धीरे-धीरे ‘अछूत’ वर्ग की अवधारणा को जन्म देता गया।
वास्तव में, आज जब एक एझावा युवक देवता के लिए माला बनाता है, तो वह हिंदू धर्म से अलग नहीं जा रहा — बल्कि वेदों की उस भावना को पुनर्जीवित कर रहा है जो हर कर्म को यज्ञ का अंग मानती है।
यही भावना भक्तिकाल में मीरा, तुलसी, नामदेव और रविदास जैसे संतों ने दोहराई — कि भक्ति में जन्म नहीं, भाव का महत्व है।
असली कहानी संघर्ष की नहीं, समाधान की है
कूडलमणिक्यम मंदिर का यह विवाद किसी न किसी रूप में सुलझ जाएगा। पर असली कहानी यह है कि अब पहली बार सभी समुदायों से योग्य पुजारी तैयार हैं।
यह परिवर्तन नारेबाजी से नहीं, संस्थान निर्माण से आया। किसी ने आंदोलन किया, किसी ने विरोध, पर एक समूह ने शिक्षा और प्रशिक्षण का मार्ग चुना।
मंदिर की वह माला, चाहे कोई भी बनाए, अब एक नए सामाजिक ताने-बाने से बुनी जा रही है — उस धैर्य, समर्पण और दूरदृष्टि से, जिसने धर्म को जीवित रखा और समाज को जोड़ा।
 
			