मासिक धर्म अवकाश अधिकार है, एहसान नहीं: भारत को 78 साल से इंतज़ार क्यों?

दुनिया के कई देशों में महिलाओं को मासिक धर्म अवकाश का कानूनी अधिकार है, लेकिन भारत में अब तक कोई राष्ट्रीय नीति लागू नहीं हुई।

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प्रतिज्ञा राय
नई दिल्ली, 30 अक्टूबर:कल्पना कीजिए एक ऐसी दुनिया की, जहां हर महिला बिना दर्द, थकान या भय के कार्यस्थल जा सके। जहां मासिक धर्म पर कोई फुसफुसाहट न हो, बल्कि खुलकर संवेदनशील बातचीत हो। अफसोस, भारत में यह कल्पना अब भी वास्तविकता से कोसों दूर है।

आज़ादी के 78 वर्ष बीत चुके हैं, लेकिन भारत में अब तक एक भी राष्ट्रीय कानून नहीं है जो महिलाओं को मासिक धर्म के दौरान विश्राम का कानूनी अधिकार दे। सवाल यह नहीं है कि महिलाएं काम करने में सक्षम हैं या नहीं, सवाल यह है कि क्या समाज उनके जैविक सच को स्वीकारने को तैयार है।

जब जापान ने पहल की, भारत मौन रहा

1947 में, जब भारत गुलामी की जंजीरें तोड़ रहा था, उसी साल जापान ने अपने श्रम कानून में महिलाओं को मासिक धर्म अवकाश का अधिकार दिया। वहां यह माना गया कि यह कोई “रियायत” नहीं बल्कि “स्वास्थ्य का मूल अधिकार” है।

इंडोनेशिया ने अगले वर्ष दो दिनों के अवकाश का कानून बनाया, कोरिया ने 2001 में, ताइवान ने 2002 में, वियतनाम ने 2020 में, और स्पेन ने 2023 में इसे सवेतन अधिकार बना दिया।
यह वो देश हैं जिन्होंने माना कि महिला शरीर की जैविक लय को भी नीति में स्थान मिलना चाहिए।
लेकिन भारत, जहां महिला देवी के रूप में पूजित हैं, वहां आज भी मासिक धर्म का विषय कानाफूसी से आगे नहीं बढ़ा।

संसद में आवाज तो उठी, पर सुनवाई नहीं हुई

अब तक किसी भी सरकार ने संसद में इस विषय पर आधिकारिक बिल नहीं पेश किया। हां, कुछ निजी विधेयक जरूर आए, जैसे 2022 में  सांसद हिबी ईडन का “द राइट ऑफ वीमेन टू मेंस्ट्रुअल लीव एंड फ्री एक्सेस टू मेंस्ट्रुअल प्रोडक्ट्स बिल”।

इसमें महिलाओं के लिए तीन दिन की सवेतन छुट्टी, छात्राओं के लिए अवकाश और मुफ्त स्वच्छता उत्पादों का प्रस्ताव था। मगर यह भी बाकी निजी विधेयकों की तरह संसद में ही ठहर गया। शायद इसलिए क्योंकि हमारे नीति निर्माण का दायरा अब भी पुरुष-प्रधान नजरिए से संचालित है, जो महिलाओं के दर्द को न तो महसूस कर सकता है और न ही उसके सामाजिक परिणामों को समझता है।

भारत में भी कुछ कदम उठे हैं

हालांकि राष्ट्रीय स्तर पर अब तक कोई नीति नहीं बनी है,
लेकिन कुछ राज्य सरकारों और निजी संस्थानों ने आगे बढ़कर यह पहल की है।
इन प्रयासों ने साबित किया कि संवेदनशील नीतियाँ बनाना असंभव नहीं, बस इच्छाशक्ति चाहिए।

> आइए देखें, भारत में अब तक किन राज्यों और संस्थानों ने यह सराहनीय कदम उठाया है —

भारत में कहाँ मिलता है मासिक धर्म अवकाश?

(कुछ राज्यों और संस्थानों में लागू नीतियाँ — संक्षेप में)

राज्य/संस्थान नीति वर्ष लाभार्थी
बिहार 2 दिन विशेष (सवेतन) अवकाश 1992 महिला सरकारी कर्मचारी
केरल छात्राओं के लिए मासिक धर्म अवकाश 2023 राज्य की विश्वविद्यालयों की छात्राएँ
Zomato 10 दिन वार्षिक अवकाश नीति 2020 महिला कर्मचारी
Byju’s, Swiggy, Culture Machine सीमित मासिक धर्म अवकाश नीति 2020 के बाद निजी क्षेत्र की महिला कर्मचारी

नीति का मतलब राहत नहीं, स्वीकार्यता है

भारत की लगभग आधी कामकाजी महिलाएं हर महीने शारीरिक पीड़ा, कमजोरी और मानसिक थकान झेलती हैं। कई अध्ययन बताते हैं कि दर्द के बावजूद महिलाएं काम पर जाती हैं, क्योंकि छुट्टी मांगना “कमजोरी” समझा जाता है।
एक राष्ट्रीय नीति इस सोच को पलटने का माध्यम बन सकती है।

इसके तीन प्रमुख पहलू होने चाहिए,

  • हर महिला को प्रत्येक माह कम से कम दो दिन की वैधानिक सवेतन छुट्टी।
  • असंगठित क्षेत्र, घरेलू कर्मचारी, और गिग वर्कर्स को भी इसका लाभ मिले।
  • शिकायतों या भेदभाव से निपटने के लिए स्वतंत्र प्राधिकरण की स्थापना की जाए।

साथ ही, स्कूलों, कॉलेजों और दफ्तरों में संवेदनशीलता कार्यक्रम चलाने होंगे ताकि मासिक धर्म को लेकर शर्म और संकोच की दीवारें गिर सकें।

विरोध और भ्रांतियां

कई उद्योगपति और अर्थशास्त्री इसे “उत्पादकता घटाने वाला” कदम कहते हैं। पर सच्चाई इसके उलट है।
ILO और IMF के विश्लेषण बताते हैं कि यदि भारत महिलाओं की कार्य भागीदारी बढ़ाए, तो GDP में 27 प्रतिशत तक की छलांग संभव है।

दुनिया की अर्थव्यवस्थाएं तब बढ़ती हैं जब वे महिला श्रम को बाधा नहीं, अवसर समझती हैं।
भारत के लिए यह नीति केवल ‘महिला-मुद्दा’ नहीं बल्कि आर्थिक नीतियों का सुधार भी है।

समय है असली समानता दिखाने का

हमारी बेटियां उस दौर में हैं जहां वे मंगल पर पहुंचने की तैयारी कर रही हैं, फिर भी कार्यस्थलों पर मासिक धर्म के दौरान आराम मांगना अपराध जैसा बना दिया गया है।
क्या यह विरोधाभास नहीं कि जो समाज महिला को शक्ति कहता है, वही उसके दर्द पर चुप है?

मासिक धर्म अवकाश किसी अहसान की मांग नहीं—यह एक साहसिक स्वीकृति की मांग है कि महिला शरीर को भी समाज की नीतियों में यथार्थ रूप से जगह मिले।जब तक कोई राष्ट्र अपनी आधी आबादी की पीड़ा को समझने की नीतियों में दर्ज नहीं करता, तब तक उसका विकास अधूरा रहेगा।

भारत को अब शर्म नहीं, संवेदना दिखानी होगी। उसे यह स्वीकारना होगा कि मासिक धर्म पर चुप्पी नहीं, नीति बननी चाहिए।

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