भारत की नई आतंकवाद-रोधी नीति: संयम नहीं, अब निर्णायक प्रतिरोध का युग
मोदी सरकार ने तोड़ा ‘संवाद या संयम’ का भ्रम — अब आतंकवाद को राष्ट्र की गरिमा और अस्तित्व से जोड़ा जा रहा है
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यूपीए दौर में आतंकवाद पर सरकारी प्रतिक्रिया रही धीमी और अस्पष्ट, 26/11 इसका प्रतीक बना।
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मोदी सरकार ने दिखाया कि शक्ति और कूटनीति विरोधी नहीं, बल्कि एक ही रणनीति के दो पहलू हैं।
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‘ऑपरेशन सिंदूर’ जैसे अभियानों से भारत ने दुनिया को दिया सशक्त संदेश, आतंक के समर्थक भी जवाबदेह होंगे।
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पिछले एक दशक में आतंकवादी घटनाओं में भारी कमी; जम्मू-कश्मीर और माओवादी क्षेत्र अब अपेक्षाकृत शांत।
पूनम शर्मा
नई दिल्ली, 28 अक्टूबर: भारत की नई आतंकवाद-रोधी नीति ने उस दौर की गलत सोच को समाप्त कर दिया है जब आतंकवाद के जवाब में सरकारें या तो “संयम” दिखाने या “संवाद” करने की बात करती थीं। मोदी सरकार के दौर में यह भ्रम टूट गया है — अब आतंकवाद को केवल सुरक्षा या कूटनीति का मामला नहीं, बल्कि राष्ट्र की गरिमा और अस्तित्व के प्रश्न के रूप में देखा जा रहा है।
यूपीए युग: जब राज्य मौन था
साल 2004 से 2012 के बीच भारत में आतंकवाद ने कई बार खूनी तांडव मचाया। दिल्ली, मुंबई, जयपुर, पुणे, पटना — कोई भी सुरक्षित नहीं था। लेकिन इन घटनाओं के दौरान सरकार की प्रतिक्रिया हमेशा धीमी, अस्पष्ट और अक्सर ‘संवाद’ के पर्दे में छिपी रही।
2008 के मुंबई हमले ने इस कमजोरी को सबसे ज्यादा उजागर किया। पाकिस्तान से नावों के जरिए आए आतंकवादियों ने सैकड़ों निर्दोषों की जान ली, और भारत की खुफिया व सुरक्षा व्यवस्था की पोल खोल दी। उस समय की सरकार का रवैया न केवल असंवेदनशील था बल्कि राष्ट्र के आत्मविश्वास पर भी चोट करने वाला था।
झूठा द्वंद्व: ‘कूटनीति या प्रतिरोध’
26/11 के बाद तत्कालीन राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार शिवशंकर मेनन ने अपनी पुस्तक Choices: The Making of India’s Foreign Policy में लिखा कि “बल का प्रयोग सीमित है और कूटनीति भी सीमित।” लेकिन यही सोच एक झूठा द्वंद्व थी — मानो भारत को या तो बात करनी है या जवाब देना है, दोनों एक साथ नहीं।
वास्तव में, मोदी सरकार ने यह दिखा दिया कि सच्ची कूटनीति शक्ति से संचालित होती है, न कि कमजोरी से। आतंकवाद से निपटने के लिए अब कोई ‘या तो-या’ की स्थिति नहीं है। जब तक भारत अपनी शर्तों पर नियम तय नहीं करता, तब तक कूटनीति का कोई अर्थ नहीं।
नए भारत का दृष्टिकोण: ऑपरेशन सिंदूर और उससे आगे
‘ऑपरेशन सिंदूर’ इस नए दृष्टिकोण का प्रतीक बना। जैसा कि रक्षा विश्लेषक जॉन स्पेंसर ने कहा — “भारत ने स्पष्ट कर दिया कि अब आतंकवाद को अलग-थलग घटनाओं के रूप में नहीं देखा जाएगा, बल्कि जो भी उसे समर्थन या शरण देगा, उसे भी जिम्मेदार ठहराया जाएगा।”
मोदी सरकार की ज़ीरो टॉलरेंस नीति ने सीमापार आतंकवाद, धार्मिक कट्टरता और “न्यूक्लियर ब्लैकमेल” जैसी पुरानी चुनौतियों को नए आत्मविश्वास से जवाब दिया है।
दशक भर में बदलाव: घटते हमले, बढ़ती समन्वय शक्ति
पिछले एक दशक में भारत में आतंकवादी घटनाओं में भारी कमी आई है। जम्मू-कश्मीर, जो कभी आतंक का गढ़ माना जाता था, अब पिछले 25 वर्षों में सबसे शांत है। माओवादी हिंसा भी अपने अंतिम दौर में है।
इस बदलाव के पीछे सिर्फ सैन्य रणनीति नहीं, बल्कि बहुआयामी नीति है — जिसमें पुनर्वास, स्थानीय विकास, और समुदाय आधारित भरोसे का निर्माण शामिल है।
साथ ही, अब इंटीग्रेटेड ज्वाइंट ऑपरेशन्स, रियल टाइम इंटेलिजेंस शेयरिंग, नए NSG केंद्र, और अत्याधुनिक तकनीकी विश्लेषण के कारण आतंक की साजिशें समय रहते नाकाम की जा रही हैं।
अतीत की भूलें और वर्तमान का सबक
यूपीए काल में आतंकियों के हौसले इसलिए बढ़े क्योंकि उन्हें यकीन था कि भारत सिर्फ निंदा करेगा, कार्रवाई नहीं। “सलामी स्लाइसिंग” और “ब्लीडिंग बाय अ थाउज़ंड कट्स” की पाकिस्तानी रणनीति ने इसी ढीले रवैये से जन्म लिया।
आज भारत का संदेश स्पष्ट है — अगर सीमा पार से एक गोली चलेगी, तो जवाब दोगुना ताकतवर होगा। यह वही “वास्तविक निवारक शक्ति” है जो पहले गायब थी।
निष्कर्ष: शक्ति ही सर्वोत्तम कूटनीति है
मोदी सरकार की नई आतंकवाद-रोधी नीति ने दिखाया है कि कूटनीति और प्रतिरोध दो विपरीत रास्ते नहीं हैं, बल्कि एक ही रणनीति के दो आयाम हैं। जब राष्ट्र दृढ़ता दिखाता है, तभी संवाद सार्थक होता है।
भारत ने आखिरकार उस युग को पीछे छोड़ दिया है जब आतंकवाद को “संवेदना” और “संयम” के नाम पर सहा जाता था। अब यह राष्ट्र न केवल अपने नागरिकों की रक्षा करता है, बल्कि अपने शत्रुओं को भी यह संदेश देता है — भारत को अब केवल एक बार नहीं, हमेशा तैयार रहना होगा, पर दुश्मन के लिए एक बार की गलती ही अंत साबित होगी