घोटाले, बेल और बिखरी राजनीति: राजद-कांग्रेस गठबंधन में खो गया नैतिक आधार और दिशा

बेल पर नेता, गंभीर आरोप और मौन सहयोगी

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प्रतिज्ञा राय
समग्र समाचार सेवा
नई दिल्ली, 25 अक्टूबर: घोटाले, बेल और बिखरी राजनीति दो दल, एक जैसी दिशाहीनता

बिहार की राजनीति में इन दिनों गर्मी सिर्फ चुनावी नहीं, सियासी अहंकार और अविश्वास से भी बढ़ रही है।एक तरफ कांग्रेस है ,जो कभी देश की धुरी मानी जाती थी, और अब अपने ही निर्णयों और सहयोगियों के दबाव में झुकती दिखाई दे रही है।
दूसरी ओर राजद है, जो अपने पुराने ढर्रे और बेल पर चल रहे प्रमुखों के साए से निकल नहीं पा रही।

दोनों दलों की यह कहानी एक ही निष्कर्ष की ओर ले जाती है: जब नेतृत्व खुद कानून और नैतिकता के घेरे में हो, तो जनता के बीच विश्वसनीयता का दावा खोखला ही लगता है।

जब पोस्टर ही बयान बना

पटना के एक होटल में लगी तस्वीर ने बिहार के गठबंधन की हकीकत बयान कर दी।
महागठबंधन की संयुक्त प्रेस कॉन्फ्रेंस में बैकग्राउंड में सिर्फ एक चेहरा था — तेजस्वी यादव का।
राहुल गांधी, जिन्होंने कभी इस गठबंधन को नैतिक आधार देने की कोशिश की थी, पोस्टर से नदारद थे।

कांग्रेस के भीतर यह सवाल उठा भी, लेकिन जवाब वही पुराना ,“हम गठबंधन धर्म निभा रहे हैं।”
दरअसल, धर्म निभाने के नाम पर कांग्रेस अपने ही कार्यकर्ताओं की अनदेखी कर रही है, जबकि लालू परिवार की मनमानी पर चुप्पी साधे है।

बेल पर नेता, भारी आरोप और मौन सहयोगी

महागठबंधन के दोनों प्रमुख चेहरों पर गंभीर आरोप हैं।
एक ओर लालू प्रसाद यादव और उनके परिवार पर भ्रष्टाचार के तमाम मामले हैं, जिनमें कई पर आरोप तय हो चुके हैं, जबकि दूसरी ओर कांग्रेस भी अपने शीर्ष नेतृत्व पर चल रहे पुराने आर्थिक प्रकरणों से मुक्त नहीं हो पाई।

तेजस्वी यादव स्वयं बेल पर हैं; उनके खिलाफ आईआरसीटीसी केस में अदालत में सुनवाई जारी है।
ऐसे में जनता यह सवाल पूछ रही है, जो खुद न्यायालय के भरोसे टिका है, वह जनता के न्याय की रक्षा कैसे करेगा?

घटती साख और सस्ती रणनीति

कांग्रेस ने दबाव में आकर तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री चेहरा मान लिया, लेकिन इस फैसले का मकसद जनता से ज़्यादा अपनी हार का ठीकरा किसी और पर फोड़ना था।
अगर चुनाव में असफलता मिलती है, तो कांग्रेस यह कह सके कि यह राज्यस्तरीय निर्णय था, शीर्ष नेतृत्व का नहीं।

वहीं, राजद ने कांग्रेस को सिर्फ एक “वोट बैंक” के औजार की तरह इस्तेमाल किया, चाहे सीट बंटवारा हो या प्रचार मंच, हर जगह कांग्रेस का नाम गौण रहा।

जनता के लिए सियासी संदेश

दोनों दलों की यह राजनीति बताती है कि गठबंधन अब किसी विचारधारा का मेल नहीं, बल्कि व्यक्तिगत वर्चस्व का सौदा बन चुका है।

जब दोनों दलों का हाईकमान अदालत की तारीख़ों में उलझा हो और प्रदेश नेतृत्व सीटों और छींटाकशी में, तब बिहार का मतदाता आखिर क्या करे, वोट डाले या तमाशा देखे? एक तरफ बेल पर चल रहे नेता नैतिकता के पाठ पढ़ा रहे हैं, तो दूसरी ओर उनका साथी संविधान और गठबंधन दोनों की व्याख्या अपने हिसाब से कर रहा है।

जनता सोचती है, जिनके घर के कैलेंडर पर तारीखें न्यायालय की हों और राजनीतिक मीटिंगें आपसी झगड़ों की, वे विकास की बात करेंगे या सिर्फ बयानबाज़ी की बेल संभालेंगे? लगता है, अब बिहार की राजनीति FIR, कोर्ट डेट और सीट बंटवारे की चाय-मीटिंगों पर चल रही है,
जहां जनता का ‘हक़’ भाषणों की फाइल में दबा है, और लोकतंत्र पार्टी-पत्रों के बीच कहीं खो गया है।

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