सरोज कुमारी
जो भक्त गुरुघर, मंदिर, भंडारे से प्रसाद बांध कर घर ले जाते हैं । उनके लिए गुरु संदेश -:-
श्री गुरु नानक देव जी से एक महिला भक्त कहने लगी :- महाराज मैंने सुना है आप सभी के दुःख दूर करते हो ।मैं बहुत दुखी हूँ ।मैं रोज सेवा करती हूं फिर भी दुखी हूँ ऐसा क्यों ?
श्री गुरु नानक देव जी :-
तुम दुसरों का दुःख अपने घर लाती हो इस लिए दुखी हो* वह बोली महाराज मुझे कुछ समझ नहीं आया ?
गुरु जी कहने लगे भंडारे का मतलब है इच्छा अनुसार या एक रोटी खाना और अपने प्रभु का शुकर मनाना। पर तूं तो रोज थैलियों में दाल,सब्जी,रायता,खीर भर के ले जाती हो। अपने घर में सभी को खिलाती हो और बाकी बचा हुआ बासी भंडारे के प्रसाद को कूड़ेदान में फेंक देती हो या जानवरों को डाल देती हो।
तुम नहीं जानती कि भंडारे के प्रसाद का एक छोटे से टुकड़े में भी प्रभु की वो ही कृपा रहती है जितना के भंडारे प्रसाद में होती है
तूं भर-भर कर प्रसाद घर ले जाती है तूं ये नहीं जानती कि * इस भंडारे के प्रसाद से कितनों के दुःख दूर होने थे ?
और तूने अपने सुख के लिए दुसरों के दुख दूर नहीं होने दिए,तुम उनके सारे दुख अपने घर ले जाती हो और दुखी रहती हो।
तेरे दुख तो दिन दुगने रात चोगुने बढ़ रहे हैं ,उसमें हम क्या करें बता ?
भक्त की आँखों से पर्दा हट गया जोर-जोर से रोने लगी और बोली :- महाराज मुझे क्षमा करो अब मैं नियमानुसार ही भंडारे मैं प्रसाद ग्रहण करूंगी।
गुरु जी ने समझाया कि इंसान अपने दुःख खुद खरीदता है पर उसे पता नहीं चलता इसलिए *भंडारे में अपनी भूख जितना ही खाना चाहिए,जूठन कभी नहीं छोड़नी चाहिए,भंडारे प्रसाद को भर कर घर कभी नहीं लाना चाहिए,
जय बाबा की ! जय गुरुदेव की