पूनम शर्मा
भारत में विवाह केवल दो व्यक्तियों का साथ नहीं होता — यह परिवारों, परंपराओं और पीढ़ियों को जोड़ने वाला एक गहरा सांस्कृतिक बंधन है। लेकिन दिल्ली में आयोजित एक सेमिनार में सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस सूर्यकांत ने जो कहा, उसने इस संस्था को लेकर देशव्यापी बहस छेड़ दी है। उन्होंने कहा कि “शादी जैसी पवित्र व्यवस्था को सदियों से महिलाओं पर नियंत्रण के लिए इस्तेमाल किया गया है।” यह बयान भावनात्मक रूप से भारी और वैचारिक रूप से जटिल है।
इस वक्त यह सवाल उठना लाजमी है कि क्या वाकई विवाह महिलाओं को गुलाम बनाने का औज़ार रहा है या फिर एक सुनियोजित विमर्श के जरिए इस पवित्र संस्था को तोड़ने का प्रयास किया जा रहा है?
भारतीय समाज में विवाह का सांस्कृतिक अर्थ
भारतीय परंपरा में विवाह केवल एक सामाजिक अनुबंध नहीं बल्कि “संस्कार” माना जाता है — सोलह संस्कारों में से एक। यहां विवाह को दो आत्माओं के पवित्र मिलन और गृहस्थ धर्म के प्रारंभ के रूप में देखा गया है। पति-पत्नी का रिश्ता केवल भावनाओं का नहीं बल्कि कर्तव्यों, जिम्मेदारियों और सामाजिक स्थिरता का प्रतीक रहा है।
भारत में विवाह संस्था ने ही संयुक्त परिवार प्रणाली को जन्म दिया, जिसने समाज को स्थिरता और सुरक्षा दी। बच्चों का पालन-पोषण, बुजुर्गों का सम्मान और सामाजिक अनुशासन इसी संस्था से पोषित हुए हैं।
विवाह संस्था पर वैचारिक हमले क्यों बढ़ रहे हैं ?
पिछले कुछ वर्षों में वैश्विक स्तर पर विवाह को लेकर वैचारिक लड़ाइयाँ तेज़ हुई हैं। पश्चिमी देशों में “marriage as oppression” का विमर्श लंबे समय से चल रहा है। इसी के साथ विवाह को ‘पितृसत्ता का औज़ार’ बताने वाले कई अंतरराष्ट्रीय समूह भारत में भी वैचारिक रूप से सक्रिय हैं।
एनजीओ, पश्चिमी फंडिंग और कट्टर नारीवादी विचारधाराएँ अब विवाह को “पुरुष द्वारा महिला पर नियंत्रण का माध्यम” बताकर उसकी वैधता पर सवाल उठाने लगी हैं। इसके जरिए पारंपरिक पारिवारिक ढांचे को कमजोर करने की मुहिम चल रही है।
महिला अधिकार बनाम विवाह संस्था
यह सच है कि भारतीय समाज में कई जगह महिलाओं के साथ अन्याय हुआ, लेकिन इसका कारण विवाह नहीं बल्कि सामाजिक विकृतियां थीं। विवाह संस्था के भीतर भी सुधार की ज़रूरत रही है — जैसे समान उत्तराधिकार, घरेलू हिंसा के खिलाफ सख्त कानून, शिक्षा और आर्थिक स्वावलंबन।
लेकिन यह कहना कि विवाह मूलतः ‘गुलामी’ का औज़ार है, न केवल भारतीय परंपरा का अपमान है बल्कि लाखों-करोड़ों भारतीय महिलाओं की आस्था और गरिमा को भी ठेस पहुँचाता है। हजारों सालों से महिलाएं भी विवाह संस्था की समान रूप से संवाहक और संरक्षक रही हैं।
विवाह-विरोधी विमर्श की राजनीतिक पृष्ठभूमि
भारत में आज जो विमर्श चलाया जा रहा है, वह केवल सामाजिक सुधार नहीं बल्कि राजनीतिक और वैचारिक एजेंडा भी है। कई विदेशी विचारधाराएं और फंडिंग नेटवर्क भारतीय पारिवारिक व्यवस्था को ‘रूढ़िवादी ढांचा’ बताकर उसे तोड़ने की कोशिश कर रहे हैं।
विवाह को बोझ बताना
‘लिव-इन रिलेशन’ को सामान्य बनाना
मातृत्व और गृहस्थ जीवन को पिछड़ेपन से जोड़ना
पारिवारिक व्यवस्था को “आज़ादी का दुश्मन” बताना
इन सबके पीछे एक बड़ा “नैरेटिव युद्ध” (Narrative War) चल रहा है — जिसमें पारंपरिक भारतीय मूल्यों को पश्चिमी मॉडल के आगे झुकाने की कोशिश की जा रही है।
विवाह में सुधार हो, पर संस्था पर प्रहार नहीं
विवाह संस्था को बेहतर बनाना ज़रूरी है — महिलाओं को समान अधिकार, शिक्षा और सुरक्षा देना भी उतना ही महत्वपूर्ण। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि हम संस्था को ही गलत ठहराने लगें।
जरूरत इस बात की है कि विवाह को ‘पुरुष का आधिपत्य’ नहीं बल्कि ‘दोनों की साझेदारी’ के रूप में देखा जाए। समाज में महिलाओं के खिलाफ हिंसा के मामले निश्चित रूप से चिंता का विषय हैं, लेकिन उसका समाधान विवाह संस्था को तोड़ने में नहीं बल्कि उसे और सशक्त बनाने में है।
पश्चिम की राह नहीं, भारत का अपना रास्ता
भारत का विवाह मॉडल पश्चिमी देशों से बिल्कुल अलग है। वहां विवाह केवल अनुबंध है, जबकि भारत में यह परिवार और समाज की बुनियाद है। पश्चिम में विवाह-विरोधी विमर्श ने परिवारों को तोड़ा, अकेलेपन को बढ़ाया और सामाजिक विघटन को तेज़ किया।
भारत को उस राह पर नहीं चलना चाहिए। यहां विवाह में सुधार भारत की परंपरा और संस्कृति के अनुरूप होना चाहिए, न कि विदेशी विचारधाराओं की नकल में।
निष्कर्ष
सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस सूर्यकांत का बयान बहस को जन्म देता है — और बहस लोकतंत्र में जरूरी भी है। लेकिन यह बहस संतुलित होनी चाहिए। विवाह को गुलामी बताने की बजाय हमें इसे और समान, सुरक्षित और सशक्त बनाने की दिशा में सोचना होगा।
यह संस्था किसी के खिलाफ नहीं — बल्कि “दो आत्माओं और दो परिवारों के मिलन” का प्रतीक है। इसे कलंकित करने की जो साजिशें चल रही हैं, उन्हें पहचानने और रोकने की जिम्मेदारी समाज की है।
भारत में विवाह सिर्फ एक रिश्ता नहीं, बल्कि हमारी सभ्यता की जड़ है। और जड़ों पर प्रहार किसी समाज को कमजोर बना सकता है। इसलिए ज़रूरी है कि सुधार के नाम पर हम अपनी जड़ों को काट न दें।