सूचनाओं के समंदर में सच्चाई की मशाल थामे रहना ज़रूरी है

कृपया इस पोस्ट को साझा करें!

पूनम शर्मा
आज का भारत सूचना युग में जी रहा है । हर ओर खबरें हैं — सोशल मीडिया पर शोर , टीवी चैनलों पर चीखते पैनल और डिजिटल प्लेटफॉर्म पर लगातार चलती बहसें । इतनी सूचनाओं के बीच असली सच्चाई को पहचान पाना कठिन होता जा रहा है । ऐसे समय में कुछ ऐसे मंच अब भी हैं जो केवल ‘सुर्खियाँ’ नहीं , बल्कि सुर्खियों के पीछे की परतों को उजागर करते हैं । इसी उद्देश्य से हर सप्ताह कुछ कहानियाँ सामने आती हैं जो नागरिकों को यह समझने में मदद करती हैं कि लोकतंत्र केवल वोट की पर्ची से नहीं , जवाबदेही और जागरूकता से मज़बूत होता है ।
तीन अहम मुद्दे इस बहस के केंद्र में हैं — , राष्ट्रीय भाषा को लेकर ऐतिहासिक विमर्श , और भारतीय चिंतन से गढ़े गए विचारों की ताकत ।

सूचना के अधिकार पर मंडराता खतरा

जब नागरिक का अधिकार ही ठंडे बस्ते में डाल दिया जाए… भारत में सूचना का अधिकार RTI कोई मामूली क़ानून नहीं था । 2005 में जब यह लागू हुआ तो यह नागरिक को शासन के दरवाज़े पर दस्तक देने की ताकत दे गया । इसी का केंद्र था — केंद्रीय सूचना आयोग CIC — जो पारदर्शिता की रीढ़ बन सकता था । लेकिन आज यह संस्था कमज़ोर कर दी गई है ।
पिछले  वर्षों में कई बार इसे ‘बिना प्रमुख’ छोड़ दिया गया है । एक ऐसी संस्था जो नागरिक को शासन से जवाब दिला सकती थी , वह खुद ही दिशा-विहीन है । यह केवल प्रशासनिक लापरवाही नहीं , यह पारदर्शिता की भावना को कमजोर करने की कोशिश है । ऊपर से नया पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन एक्ट आया है , जो कई सूचनाओं को ‘संवेदनशील’ बताकर सार्वजनिक दायरे से बाहर कर सकता है । परंतु इतना होने के बावजूद भी  नागरिक की आँखों  पर परदा डालना , और व्यवस्था को और अपारदर्शी बनाना आज के युग में संभव नहीं है । भारत जैसे लोकतांत्रिक राष्ट्र में पारदर्शिता शासन की बुनियाद होती है । अगर जनता को ही सूचना से दूर रखा जाएगा , तो जवाबदेही कैसे सुनिश्चित होगी ? यह सवाल हर उस नागरिक का है जो भारत को एक मज़बूत और आत्मविश्वासी राष्ट्र के रूप में देखना चाहता है ।

भाषा — भारत की एकता का सूत्र  ।

हिंदी बनाम अन्य भारतीय भाषाएँ , और अंग्रेज़ी का बढ़ता दबदबा… लेकिन इस बहस की जड़ें आज की नहीं हैं । आज़ादी के आंदोलन के दौरान ही इस मुद्दे को बहुत गहराई से समझा गया था ।अंग्रेज़ी  भारत की साझा पहचान नहीं है । भारत को जोड़ने वाली भाषा भारत की मिट्टी से निकलनी चाहिए , बाहर से थोपी नहीं जानी चाहिए । गांधीजी ने तो हिन्दी को भी उर्दू के साथ जोड़कर हिन्दी अस्तित्वहीन कर दिया था और ‘हिंदुस्तानी’ की बात की । इसका उद्देश्य  जो भी रहा हो पर आज हम देखते हैं कि  हिन्दी भाषा के बहुत सारे शब्द अपना अस्तित्व खो रहे हैं , भाषा की शुद्धता को अक्षुण्ण रखना आज के समय में हिन्दी के लिए एक चुनौती स प्रतीत हो रहा है। भारत को भाषाई रूप से तोड़ना नहीं , जोड़ना उद्देश्य होना चाहिए है । हाँ , समय के साथ कुछ राजनीतिक दलों ने भाषाओं को वोट बैंक की रणनीति में बदल दिया । लेकिन भारत की आत्मा तो ‘एकता  में विविधता ’ है — और इस विविधता में भाषा सबसे बड़ी शक्ति है , कमजोरी नहीं । राष्ट्रवादी दृष्टिकोण से देखा जाए तो भारत की राष्ट्रीय भाषा का प्रश्न सिर्फ एक भाषाई बहस नहीं , बल्कि संस्कृति और सभ्यता की आत्मा से जुड़ा हुआ प्रश्न है । कोई भी राष्ट्र तभी सशक्त बनता है जब उसकी जनता एक साझा भाषा के माध्यम से संवाद कर सके , बिना किसी हीनभावना या भेदभाव के ।

विचारों की ताकत

विचार  की ताकत  राष्ट्र को गढ़ती है आज के डिजिटल युग में तात्कालिक खबरों का शोर है — लेकिन विचार , दर्शन और चिंतन की गहराई ही किसी राष्ट्र को स्थायित्व देती है । भारत में विचार केवल किताबों में नहीं , आंदोलनों में जीवित रहे हैं । डॉ. भीमराव अंबेडकर , स्वामी विवेकानंद , महर्षि अरविंद , सुभाष चंद्र बोस — इन सभी ने पढ़कर , सोचकर और लिखकर उस राष्ट्रवाद को जन्म दिया जो आज भी करोड़ों भारतीयों की आत्मा में बसता है । इसी परंपरा में कई आधुनिक विचारक भी हैं जिन्होंने अपने अध्ययन से सामाजिक और राष्ट्रीय विमर्श को गहराया । किताबें केवल ज्ञान का स्रोत नहीं होतीं — वे राष्ट्र निर्माण का औज़ार होती हैं ।

एक विचारशील नागरिक केवल खबरों से नहीं बनता , वह इतिहास , भाषा और विचारों के आधार पर अपनी राय बनाता है । और यही परिपक्व राय किसी भी लोकतंत्र को मज़बूती देती है ।

 लोकतंत्र की असली ताकत

जागरूक नागरिक इन तीनों कहानियों में एक स्पष्ट धागा है — सूचना , भाषा और विचार — यही किसी राष्ट्र के जीवित और जागरूक होने के तीन स्तंभ हैं । यदि सूचना आयोग को कमज़ोर किया जाता है तो नागरिक की आवाज़ दबती है । यदि भाषा को राजनीति का औज़ार बनाया जाता है तो सांस्कृतिक एकता को आघात पहुँचता है । और यदि विचारों को सीमित कर दिया जाए तो राष्ट्र केवल भीड़ बनकर रह जाता है , समाज नहीं । भारत को केवल आर्थिक नहीं , विचार और चेतना के स्तर पर भी आत्मनिर्भर बनना होगा । इसके लिए ज़रूरी है कि हर नागरिक — शासन से सवाल पूछे , अपनी भाषा और संस्कृति पर गर्व करे , और विचारों को ताकत बनाए , कमजोरी नहीं । यह वही मार्ग है जिसने भारत को गुलामी से स्वतंत्रता की ओर पहुँचाया — और यही मार्ग 21वीं सदी में विकसित भारत की राह तय करेगा ।

कृपया इस पोस्ट को साझा करें!
Leave A Reply

Your email address will not be published.