अमेरिका में भारतीयों की खामोश ताकत

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पूनम शर्मा

अमेरिका में लगभग 50 लाख भारतीय मूल के लोग रहते हैं । इनमें से अधिकतर उच्च शिक्षा प्राप्त , आर्थिक रूप से सम्पन्न और तकनीकी व पेशेवर क्षेत्रों में अग्रणी हैं । भारतीय-अमेरिकी औसत अमेरिकी परिवारों की तुलना में तीन गुना अधिक आय अर्जित करते हैं , लेकिन इसके बावजूद उनकी राजनीतिक आवाज़ अमेरिकी सत्ता गलियारों में गूंजती नहीं है ।
सवाल यह है — इतनी ताकत होने के बावजूद यह समुदाय राजनीतिक रूप से अदृश्य क्यों है ?  ‘H-1B मानसिकता’ और राजनीतिक संकोच कई भारतीय प्रवासी अमेरिका में या तो H-1B वर्क वीज़ा पर आए हैं या फिर उस व्यवस्था से जुड़े हैं । दशकों से यह वीज़ा भारतीय IT पेशेवरों की अमेरिका में उपस्थिति की रीढ़ रहा है । लेकिन इस वीज़ा व्यवस्था ने एक मानसिकता भी पैदा कर दी है — “चुप रहो और काम करो” । कई प्रवासी खुलकर किसी राजनीतिक मुद्दे पर बोलने से डरते हैं , क्योंकि उन्हें लगता है कि नागरिकता प्रक्रिया , ग्रीन कार्ड या नौकरी पर इसका असर पड़ सकता है । इस डर ने राजनीतिक भागीदारी को सीमित कर दिया है ।

विभाजित पहचान और न बोल पाने की दुविधा भारतीय-अमेरिकी समुदाय अपने भीतर भी कई धाराओं में बंटा हुआ है — धर्म , राज्य , भाषा और वैचारिक झुकावों के आधार पर । कुछ लोग अमेरिका में पूरी तरह ‘मेनस्ट्रीम’ में घुलमिल गए हैं तो कुछ भारत से भावनात्मक रूप से जुड़े हैं । ऐसे में किसी एक मुद्दे पर एकजुट होकर राजनीतिक दबाव बनाना मुश्किल हो जाता है । जब चीन , इस्लामिक लॉबी या अन्य समूह संगठित होकर नीतियों को प्रभावित कर सकते हैं , वहीं भारतीय समुदाय किसी एक सुर में बोल ही नहीं पाता । अमेरिकी राजनीति में ‘लो-प्रोफाइल’ रणनीति भारतीय-अमेरिकी डॉक्टर , प्रोफेसर , इंजीनियर और टेक-सीईओ अमेरिका की रीढ़ माने जाते हैं , लेकिन राजनीतिक मंचों पर उनकी सक्रियता बहुत सीमित है । न तो बड़े पैमाने पर राजनीतिक चंदा दिया जाता है , न संगठित ‘प्रेशर ग्रुप’ बनता है । जहाँ  यहूदी और चीनी समुदाय अपने हितों की रक्षा के लिए लॉबिंग समूह चलाते हैं , वहीं भारतीय समुदाय अब भी ‘साइलेंट अचीवर्स’ बना हुआ है — सफल , लेकिन राजनीतिक रूप से निष्क्रिय ।

भारत को लेकर मौन क्यों ?

जब अमेरिका भारत पर व्यापारिक शुल्क बढ़ाता है , H-1B पर भारी टैक्स लगाता है या कश्मीर जैसे संवेदनशील मुद्दों पर बयान देता है — तब भारतीय समुदाय की तरफ से कोई संगठित , तेज़ प्रतिक्रिया नहीं आती । कुछ लोग सोशल मीडिया पर नाराज़गी जताते हैं , लेकिन राजनीतिक हलचल नहीं होती । यह खामोशी कई बार अमेरिकी प्रशासन को यह संकेत भी देती है कि भारतीय समुदाय ‘राजनीतिक दबाव’ नहीं बनाता — और यही कमजोरी बन जाती है।

‘कंफर्ट ज़ोन’ और ‘क्वाइट डिग्निटी’ कई भारतीय मानते हैं कि अमेरिका में सफलता का मतलब है — मेहनत करना , टैक्स देना और शांत रहना । यह मानसिकता उनकी पीढ़ियों में समा चुकी है । उन्हें लगता है कि राजनीति में उतरना या ‘पब्लिक पॉलिसी’ पर बोलना उनकी सामाजिक स्थिति को अस्थिर कर सकता है । लेकिन यह ‘क्वाइट डिग्निटी’ अब एक ग्लास सीलिंग बन चुकी है — जो उन्हें सामाजिक और आर्थिक शिखर पर तो रखती है , लेकिन राजनीतिक रूप से हाशिये पर ।

आर्थिक ताकत लेकिन राजनीतिक चुप्पी भारतीय-अमेरिकी समुदाय अमेरिका की टेक इंडस्ट्री , स्वास्थ्य क्षेत्र और शिक्षा में विशाल योगदान देता है । गूगल , माइक्रोसॉफ्ट , IBM जैसे कई दिग्गज संगठनों में भारतीय शीर्ष पदों पर हैं । परंतु आर्थिक ताकत के बावजूद राजनीतिक प्रतिनिधित्व नगण्य है । अमेरिकी कांग्रेस में गिने-चुने ही भारतीय मूल के सांसद हैं , और वे भी अक्सर भारत से जुड़े मसलों पर बहुत संयमित रुख अपनाते हैं ।  समाधान संगठन और राजनीतिक चेतना अगर भारतीय-अमेरिकी समुदाय चाहता है कि उसकी आवाज़ अमेरिकी नीति निर्माण में सुनी जाए , तो उसे संगठन , लॉबिंग और राजनीतिक सहभागिता की दिशा में आगे बढ़ना होगा । उस  स्थानीय स्तर पर सक्रियता बढ़ाना  पॉलिसी थिंक टैंक और लॉबी ग्रुप बनाना अमेरिकी चुनावों में संगठित भागीदारी  भारत से जुड़े मुद्दों पर साझा रुख

निष्कर्ष

भारतीय अमेरिकी समुदाय अमेरिका में ‘शांत ताकत’ तो है , लेकिन ‘राजनीतिक ताकत’ नहीं । अगर यह समुदाय एकजुट होकर अपनी आवाज़ बुलंद करे , तो अमेरिकी नीतियों पर प्रभाव डालना असंभव नहीं । भारत और अमेरिका दोनों के हित में होगा कि भारतीय डायस्पोरा अपनी राजनीतिक पहचान को केवल ‘टेक्नोक्रेट’ तक सीमित न रखे , बल्कि एक सशक्त नागरिक समूह के रूप में उभरे ।

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