अफगानिस्तान : नई कूटनीतिक दिशा की शुरुआत
भारत-अफगान रिश्तों में नई गर्माहट: सुरक्षा चिंताओं के बीच काबुल मिशन को दूतावास में अपग्रेड करने की तैयारी
पूनम शर्मा
2021 में अमेरिकी और नाटो बलों की अफगानिस्तान से अचानक वापसी के बाद जिस राजनीतिक अस्थिरता और शक्ति शून्यता का दौर शुरू हुआ, उसने दक्षिण एशिया के सुरक्षा समीकरणों को गहराई से प्रभावित किया। तालिबान की सत्ता वापसी ने जहां वैश्विक स्तर पर अनिश्चितता बढ़ाई, वहीं भारत के सामने यह प्रश्न खड़ा हुआ कि नई हकीकत में कूटनीतिक और रणनीतिक रूप से कैसे संतुलन साधा जाए। अब तीन साल बाद, भारत ने तालिबान-नेतृत्व वाले अफगानिस्तान के साथ अपने संबंधों को “व्यावहारिक सहयोग” के ढांचे में फिर से परिभाषित करने की दिशा में ठोस कदम उठाए हैं।
हाल ही में भारत और अफगानिस्तान के बीच उच्चस्तरीय वार्ता हुई जिसमें तालिबान सरकार के विदेश मंत्री अमीर खान मुत्ताकी ने भारत के विदेश मंत्रालय के प्रतिनिधियों से मुलाकात की। इस बैठक को न केवल क्षेत्रीय स्थिरता के लिहाज से बल्कि भारत की पश्चिमी सीमा की सुरक्षा नीति के दृष्टिकोण से भी एक अहम मोड़ माना जा रहा है।
काबुल में भारतीय मिशन की बहाली — संकेत एक नई शुरुआत का
भारत ने 2021 में तालिबान के सत्ता में आने के बाद काबुल में अपना दूतावास बंद कर दिया था और केवल एक सीमित “तकनीकी मिशन” संचालन के लिए रखा गया था। लेकिन अब यह संकेत मिल रहे हैं कि भारत इस तकनीकी मिशन को पूर्ण राजनयिक दूतावास के रूप में अपग्रेड करने की तैयारी में है।
यह कदम यह दर्शाता है कि भारत अब अफगानिस्तान के साथ संपर्क केवल मानवीय सहायता या सीमित संवाद तक नहीं रखना चाहता, बल्कि दीर्घकालिक रणनीतिक उपस्थिति कायम रखने की दिशा में बढ़ रहा है।
भारत के लिए अफगानिस्तान में दूतावास का संचालन सिर्फ राजनयिक औपचारिकता नहीं है — यह क्षेत्र में भारत की जमीन पर उपस्थिति, सुरक्षा जानकारी के आदान-प्रदान, और पाकिस्तान समर्थित आतंकवादी गतिविधियों की निगरानी के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है।
साझा सुरक्षा चिंताएँ — आतंकवाद और सीमा पार खतरा
भारत और तालिबान दोनों इस समय इस्लामिक स्टेट–खुरासान प्रांत (ISKP) और अन्य चरमपंथी गुटों की गतिविधियों से चिंतित हैं। अफगानिस्तान की अस्थिरता का सीधा असर भारत के उत्तरी सीमांत राज्यों पर पड़ सकता है।
मुत्ताकी और भारतीय प्रतिनिधियों की बैठक में यह बात स्पष्ट रूप से उभरकर आई कि दोनों देशों के बीच “साझा सुरक्षा चिंता” एक संभावित सहयोग का आधार बन सकती है।
तालिबान की सरकार को भी यह एहसास है कि उसकी स्थिरता तभी बनी रह सकती है जब वह भारत जैसे बड़े क्षेत्रीय खिलाड़ी से न्यूनतम कूटनीतिक सहयोग बनाए रखे। दूसरी ओर भारत भी यह समझता है कि अफगानिस्तान को पूरी तरह से पाकिस्तान के प्रभाव क्षेत्र में छोड़ देना दीर्घकालिक रूप से दक्षिण एशिया के संतुलन को अस्थिर कर सकता है।
आर्थिक और मानवीय आयाम
भारत ने पिछले दो दशकों में अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण में 3 अरब डॉलर से अधिक की सहायता दी है। सड़कों, स्कूलों, संसद भवन, और बिजली परियोजनाओं से लेकर स्वास्थ्य सुविधाओं तक — भारत की उपस्थिति वहाँ विकास का पर्याय रही है।
तालिबान के शासन के बाद भी भारत ने अनाज, दवा और मानवीय राहत सामग्री की आपूर्ति जारी रखी है।
अब कूटनीतिक पुनर्संपर्क का अर्थ यह भी होगा कि भारत अपने अधूरे विकास परियोजनाओं को फिर से शुरू कर सकेगा, और अफगान जनता के साथ अपनी ऐतिहासिक मित्रता को पुनर्जीवित कर सकेगा।
भू-राजनीतिक परिप्रेक्ष्य: भारत की रणनीतिक मजबूरी और अवसर
अफगानिस्तान का भूगोल भारत के लिए “भू-राजनीतिक कुंजी” की तरह है। यह क्षेत्र मध्य एशिया तक पहुंच और चीन–पाकिस्तान गठजोड़ की निगरानी दोनों के लिए अहम है।
चीन इस समय तालिबान सरकार के साथ आर्थिक समझौते कर रहा है, जबकि पाकिस्तान अपनी पुरानी रणनीति के तहत काबुल पर प्रभाव बनाए रखना चाहता है। ऐसे में भारत के लिए अफगानिस्तान में वापसी का अर्थ है — एक रणनीतिक रिक्तता को भरना और क्षेत्रीय शक्ति-संतुलन को पुनः परिभाषित करना।
यह कदम न केवल भारत की West Asia outreach policy को मजबूती देगा, बल्कि ईरान और रूस जैसे पारंपरिक साझेदारों के साथ सहयोग के नए मार्ग भी खोलेगा।
भारत की “Realpolitik” — आदर्श से व्यावहारिकता की ओर
भारत ने अभी तक तालिबान शासन को औपचारिक मान्यता नहीं दी है, परंतु उसका यह रुख स्पष्ट है कि “जमीन की वास्तविकता” को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता।
काबुल में मिशन अपग्रेड करने का निर्णय भारत की Realpolitik का प्रतीक है — यानी, वैचारिक असहमति के बावजूद व्यावहारिक सहयोग को प्राथमिकता देना।
यह नीति भारत को सुरक्षा और आर्थिक हितों की रक्षा करने के साथ-साथ अफगान जनता के बीच अपनी सकारात्मक छवि बनाए रखने में भी मदद करेगी।
संभावित चुनौतियाँ
हालांकि, यह रास्ता आसान नहीं है। तालिबान सरकार की मानवाधिकार नीतियों, महिलाओं की शिक्षा पर प्रतिबंध, और चरमपंथी गुटों से दूरी बनाए रखने की उसकी सीमित क्षमता भारत के लिए चिंता का विषय बनी रहेगी।
इसके अलावा, पाकिस्तान द्वारा अफगानिस्तान में “सुरक्षा मध्यस्थ” की भूमिका निभाने की कोशिशें भारत की नीतिगत गति को प्रभावित कर सकती हैं।
भारत को यह संतुलन साधना होगा कि वह तालिबान से संवाद रखे लेकिन अपनी लोकतांत्रिक और मानवाधिकार मूल्यों से समझौता न करे।