इंग्लैंड चर्च में पहली महिला आर्कबिशप: बदलती मानसिकता का संकेत
सारा मलैली की नियुक्ति न केवल धार्मिक परंपरा में बदलाव है, बल्कि लैंगिक समानता और आधुनिक सोच की विजय भी
पूनम शर्मा
ब्रिटेन के धार्मिक इतिहास में शुक्रवार का दिन एक ऐतिहासिक परिवर्तन लेकर आया। 10 डाउनिंग स्ट्रीट से जारी घोषणा में बताया गया कि लंदन की बिशप सारा मलैली को चर्च ऑफ इंग्लैंड की पहली महिला आर्कबिशप ऑफ कैंटरबरी नियुक्त किया गया है। यह नियुक्ति न केवल चर्च के इतिहास में अभूतपूर्व है, बल्कि यह उस गहरी सोच के बदलाव का प्रतीक है जो सदियों से पुरुष-प्रधान धार्मिक व्यवस्था में धीरे-धीरे आकार ले रहा है।
850 साल पुरानी परंपरा में पहली महिला
राइट रेवरेन्ड एंड राइट ऑनरेबल डेम सारा मलैली, जो अब दुनिया भर के 165 देशों में फैले 8.5 करोड़ एंग्लिकन समुदाय की आध्यात्मिक प्रमुख होंगी, 850 साल पुराने पद के लिए चुनी जाने वाली पहली महिला हैं। यह पद पूर्व आर्कबिशप जस्टिन वेल्बी के इस्तीफे के बाद खाली हुआ था। वेल्बी ने पिछले वर्ष एक बाल शोषण मामले में चर्च से जुड़े अधिवक्ता पर लगे आरोपों और कथित कवर-अप विवाद के कारण पद छोड़ा था।
ब्रिटेन के प्रधानमंत्री कियर स्टार्मर ने इस नियुक्ति का स्वागत करते हुए कहा,
“चर्च ऑफ इंग्लैंड इस देश की आत्मा का हिस्सा है। इसके गिरजाघर, विद्यालय और संस्थाएं हमारे समाज के ताने-बाने में बुने हुए हैं। सारा मलैली का चयन एक प्रेरणादायक क्षण है—वह इस भूमिका में आने वाली पहली महिला हैं और मुझे विश्वास है कि वह हमारे राष्ट्रीय जीवन में अहम भूमिका निभाएंगी।”
राजा चार्ल्स तृतीय ने औपचारिक रूप से इस नियुक्ति को मंजूरी दी है।
नर्स से आर्कबिशप तक: सारा की असाधारण यात्रा
63 वर्षीय सारा मलैली की कहानी केवल धार्मिक पदोन्नति की नहीं, बल्कि सेवा और सहानुभूति की यात्रा है। वह जनवरी 2026 में सेंट पॉल्स कैथेड्रल, लंदन में होने वाले “कन्फर्मेशन ऑफ इलेक्शन” समारोह में आधिकारिक रूप से आर्कबिशप बनेंगी। इसके बाद मार्च में कैंटरबरी कैथेड्रल में औपचारिक इंस्टॉलेशन सर्विस आयोजित होगी।
सारा ने कहा,
“मैं इस नई सेवा को उसी भावना में स्वीकार कर रही हूं, जिसमें मैंने किशोरावस्था में पहली बार ईश्वर की पुकार सुनी थी — सेवा की भावना के साथ। मेरे लिए यह हमेशा दूसरों को सुनने, उन्हें जोड़ने और उनके जीवन में आशा व उपचार लाने का प्रयास रहा है।”
सारा का जीवन दिखाता है कि नेतृत्व केवल पवित्र वस्त्र पहनने से नहीं, बल्कि मानवता को समझने की संवेदना से आता है।
बदलाव की दिशा: धर्म में समानता की नई सुबह
चर्च ऑफ इंग्लैंड, जो सदियों तक पुरुषों के वर्चस्व का केंद्र रहा, अब एक आध्यात्मिक समावेशन की ओर बढ़ रहा है। जब 2018 में सारा मलैली को लंदन की पहली महिला बिशप नियुक्त किया गया था, तब भी यह खबर ब्रिटिश समाज में आशा का प्रतीक बनी थी।
उनसे पहले वह क्रेडिटन डायोसीज़ में बिशप थीं, और 2001 में जब उन्होंने धर्म सेवा (ordination) ग्रहण की, उससे पहले वह ब्रिटिश सरकार की चीफ नर्सिंग ऑफिसर थीं — और वह भी केवल 37 वर्ष की आयु में।
उनका यह परिवर्तन — कैंसर नर्स से लेकर ब्रिटेन के सर्वोच्च धार्मिक पद तक — इस बात का प्रमाण है कि समाज अब प्रतिभा को लिंग से नहीं, कर्म से आंकने लगा है।
बदलती मानसिकता और ब्रिटिश समाज की परिपक्वता
सारा मलैली की नियुक्ति उस बड़े सामाजिक बदलाव का हिस्सा है जो पश्चिमी समाज में पिछले कुछ वर्षों से स्पष्ट रूप से देखा जा रहा है।
जहां कभी चर्च की दीवारें महिलाओं के लिए बंद थीं, अब वही चर्च उन्हें नेतृत्व सौंप रहा है। यह परिवर्तन केवल धार्मिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और बौद्धिक परिपक्वता का संकेत है।
आज की युवा पीढ़ी, चाहे ब्रिटेन में हो या भारत में, यह समझने लगी है कि नेतृत्व का आधार क्षमता है, न कि लिंग।
मलैली का चयन इस सोच को मजबूत करता है कि धार्मिक संस्थाओं को भी समाज की बराबरी की दिशा में कदम बढ़ाना चाहिए।
विश्वास और सेवा का पुल
सारा ने अपने बयान में कहा,
“मैं इस भूमिका की विशाल जिम्मेदारी को शांति और विश्वास के साथ स्वीकार करती हूं। जैसा कि अब तक ईश्वर ने मेरा साथ दिया है, मुझे भरोसा है कि आगे भी वे मेरा मार्गदर्शन करेंगे।”
उनकी यह भावना बताती है कि आधुनिक धर्मगुरु का स्वरूप बदल रहा है — वह केवल प्रवचन देने वाला नहीं, बल्कि सुनने, समझने और समाधान ढूंढने वाला मार्गदर्शक है।
ऐतिहासिक बाधाओं को तोड़ती महिलाएं
सारा मलैली का उदाहरण इस बात का प्रमाण है कि महिलाओं की भागीदारी अब परंपरागत सीमाओं को लांघ रही है। राजनीति से लेकर न्यायपालिका और अब धर्म तक, महिलाएं अपनी जगह बना रही हैं।
यह नियुक्ति केवल एक व्यक्ति की जीत नहीं, बल्कि उन सदियों से मौन आवाज़ों की जीत है, जिन्हें चर्च की घंटियों में शायद ही कभी सुना गया था।
बदलाव की बयार सिर्फ इंग्लैंड तक सीमित नहीं
सारा मलैली की नियुक्ति विश्वभर में धार्मिक संस्थाओं को एक संदेश देती है — कि विश्वास का मार्ग तभी सार्थक है जब वह समानता की ओर ले जाए।
चर्च ऑफ इंग्लैंड का यह कदम केवल लैंगिक समानता नहीं, बल्कि नैतिक प्रगति का उदाहरण है।
यह संकेत देता है कि धर्म अब केवल परंपरा का रक्षक नहीं, बल्कि परिवर्तन का वाहक भी बन सकता है।
सारा मलैली की यह यात्रा इस बात की गवाही देती है कि जब समाज सुनने लगता है, तो इतिहास बदल जाता है।