लालू-काल का एक और किस्सा: 100 करोड़ के वन घोटाले को दबाने का आरोप!
तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद पर न्यायिक प्रक्रिया की अनदेखी कर घोटालेबाजों को बचाने का गंभीर आरोप
- 100 करोड़ का घोटाला: मामला अविभाजित बिहार (अब झारखंड सहित) के वन विभाग से जुड़ा है, जो लगभग 100 करोड़ रुपये का था।
- सीएम पर ‘दबाव’ का आरोप: तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद पर सीबीआई जांच की सिफारिश को अनुमोदित करने के बाद भी मामले को दबाने और दोषियों को बचाने का आरोप।
- गिरफ्तारी पर रोक: लालू सरकार ने निगरानी विभाग को दोषी अधिकारियों की गिरफ्तारी एक माह तक रोकने का निर्देश दिया, जिस पर निगरानी एसपी ने कानूनी सवाल उठाए थे।
प्रमोद दत्त
पटना, 4 अक्तूबर 2025: बिहार की राजनीति में लालू प्रसाद यादव के कार्यकाल को कई बड़े घोटालों के लिए याद किया जाता है, और इसी कड़ी में 100 करोड़ रुपये के एक और बड़े वन घोटाले का किस्सा सामने आया है। यह मामला 1995 का है, जब लालू प्रसाद अविभाजित बिहार के मुख्यमंत्री थे। यह घोटाला मूल रूप से 1981 से 1991 के बीच हुआ था, लेकिन इसका पर्दाफाश 1993 में लालू सरकार के कार्यकाल के दौरान हुआ, जिसके बाद निगरानी विभाग ने कार्रवाई शुरू की।
लंबी छानबीन के बाद, निगरानी ब्यूरो ने 22 नवंबर 1994 से 30 जून 1995 के बीच कुल 18 प्राथमिकियां (FIR) दर्ज की थीं। इस दौरान 13 अधिकारी-कर्मचारी और 3 आपूर्तिकर्ता (सप्लायर) गिरफ्तार भी किए गए थे।
सीबीआई का अनुमोदन, फिर भी मामला दबा
सूत्रों के अनुसार, मामले की गंभीरता को देखते हुए इसे केंद्रीय जांच ब्यूरो (CBI) को सौंपने की बात हुई थी। तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद ने कथित तौर पर इस प्रस्ताव का अनुमोदन भी कर दिया था, लेकिन आश्चर्यजनक रूप से, इस मामले को बाद में दबा दिया गया।
सबसे गंभीर बात यह है कि निगरानी विभाग के शीर्ष अधिकारियों द्वारा दोषियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करने की अनुशंसाओं को मुख्यमंत्री स्तर से लगातार नजरअंदाज किया जाता रहा। इससे यह धारणा बनी कि सरकार राजनीतिक दबाव के कारण घोटालेबाजों को संरक्षण दे रही है।
एसपी ने उठाया था सरकार के निर्देश पर कानूनी सवाल
स्थिति तब और भी विवादित हो गई जब 16 अगस्त को तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद द्वारा उच्चाधिकारियों की एक बैठक में यह तय किया गया कि निगरानी विभाग अगले एक माह तक किसी भी अधिकारी या कर्मचारी की गिरफ्तारी नहीं करेगा। साथ ही, संबंधित पदाधिकारियों-कर्मचारियों को काम पर लौटने और एक निश्चित अवधि में स्पष्टीकरण (सफाई) देने को कहा गया।
इस निर्देश पर निगरानी विभाग के तत्कालीन एसपी कमलेश कुमार ने कड़ी आपत्ति दर्ज कराई थी। उन्होंने निगरानी के आईजी व डीजी को भेजे अपने नोट में स्पष्ट रूप से लिखा था: “राज्य सरकार को स्थगन आदेश जारी करने का कोई कानूनी अधिकार नहीं है। ऐसा अधिकार सिर्फ अदालत को है।”
एसपी कुमार ने आगे लिखा कि गिरफ्तारी के डर से वन विभाग के दोषी अफसर फरार थे। अब उन्हें सरकार द्वारा काम पर लौट आने के लिए कहना और उनसे काम लेना, न्यायिक प्रक्रिया की खुली अवहेलना है।
प्रेक्षकों और राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि इस पूरे घटनाक्रम में एक बड़ी राजनीतिक चाल शामिल थी। पहले तो लालू सरकार ने घोटालेबाजों पर प्राथमिकी दर्ज कर और सीबीआई जांच की बात कहकर डराने का काम किया। लेकिन, बाद में सरकारी आदेशों के माध्यम से न्यायिक प्रक्रिया को बाधित करते हुए, दोषी अधिकारियों को बचाने में अपनी पूरी ताकत लगा दी। यह किस्सा लालू-काल में शासन के दौरान कानूनी और नैतिक मूल्यों की अनदेखी का एक स्पष्ट उदाहरण प्रस्तुत करता है।