पूनम शर्मा
जोधपुर के नीले शहर की संकरी गलियों और ऐतिहासिक किलों के बीच हर साल दशहरा का उत्सव कुछ अलग रूप ले लेता है। जब पूरे देश में रावण के पुतले जलाए जा रहे होते हैं, लंका के “दुष्ट राजा” को प्रतीक बनाकर बुराई पर अच्छाई की जीत का उत्सव मनाया जा रहा होता है, उसी समय जोधपुर की एक छोटी-सी ब्राह्मण बस्ती में दीपक जलते हैं – शोक के, श्रद्धा के और स्मरण के। यहाँ रावण के पुतले नहीं जलाए जाते, बल्कि उसकी आत्मा की शांति के लिए मंत्रोच्चार होते हैं, आंसू बहाए जाते हैं और नए जनेऊ धारण किए जाते हैं।
यह परंपरा निभाती है देव गोढा समुदाय — श्रीमाली ब्राह्मणों का एक गोत्र, जो खुद को रावण का वंशज मानता है। हर साल दशहरा के दिन जब शहर में आतिशबाज़ी गूंजती है, ये लोग मेहरानगढ़ किले के रास्ते पर बने छोटे से रावण मंदिर में एकत्रित होकर उसका श्राद्ध करते हैं।
रावण का जोधपुर से संबंध: “मंदोदरी की नगरी मंडोर”
जोधपुर के पास स्थित मंडोर का नाम रामायण काल से जुड़ा माना जाता है। यहाँ के मंदिरों और प्राचीन बगीचों में आज भी वह कथा जीवित है कि यही स्थान मंदोदरी का मायका था। लोककथाओं के अनुसार, रावण स्वयं लंका से बारात लेकर आया था, और यहीं विवाह संपन्न हुआ था।
स्थानीय पुजारी कमलेश देव बताते हैं –
“जब रावण मंदोदरी से विवाह करने आया, उसके साथ कई रिश्तेदार और विद्वान लंका से आए थे। विवाह के बाद रावण तो लौट गया, लेकिन उसके कुछ संबंधी यहीं बस गए। वही हमारे पूर्वज हैं, और हम आज भी उसी परंपरा को निभा रहे हैं।”
इसी वंश परंपरा से आज जोधपुर के चांदपोल और ब्रह्मपुरी क्षेत्रों में लगभग सौ परिवार हैं जो खुद को रावण वंशज कहते हैं।
दशहरा नहीं, रावण श्राद्ध का दिन
जहाँ पूरे भारत में दशहरा उल्लास का पर्व है, वहीं इन परिवारों के लिए यह शोक दिवस होता है। जैसे ही शाम को रावण का पुतला जलाया जाता है, ये लोग स्नान करते हैं, नया जनेऊ पहनते हैं और रावण की आत्मा की शांति के लिए पूजा करते हैं।
पंडित कमलेश देव बताते हैं –
“हमारे लिए रावण केवल लंका का राजा नहीं, बल्कि एक परम विद्वान और शिवभक्त था। उसने वेदों और शास्त्रों का गहन अध्ययन किया, संगीत में निपुण था, और त्रिकालज्ञ था। उसका वध एक राजनीतिक और नैतिक कथा का हिस्सा है, पर हम उसके ज्ञान और भक्ति को ही पूजते हैं।”
रावण मंदिर में रावण, मंदोदरी और कुलदेवी खरानाना माता की मूर्तियाँ स्थापित हैं। यहाँ दीप प्रज्वलित कर उसके सम्मान में आरती होती है। किसी घर में मिठाइयाँ नहीं बनतीं, बल्कि सादे भोजन से दिन बिताया जाता है। इसे वे ‘पितृ तर्पण’ के समान पवित्र मानते हैं।
रावण: पंडित, संगीतज्ञ और शिवभक्त
अजय देव, जो रावण मंदिर के पुजारी कमलेश देव के पुत्र हैं, बताते हैं कि लोग केवल रामायण की एकांगी कथा जानते हैं — पर लंका के राजा का एक दूसरा रूप भी था।
“वह एक महान वीणा वादक था, जिसके स्वर से प्रकृति झूम उठती थी। कहा जाता है कि ब्रह्मा स्वयं उससे संगीत और वेद पाठ का ज्ञान लेने लंका गए थे। उसने ‘रावण संहिता’ जैसी ग्रंथों की रचना की, जो आज भी तांत्रिक साधना और ज्योतिष का आधार हैं।”
समुदाय के बुजुर्ग मानते हैं कि रावण का जीवन इस बात का प्रतीक है कि ज्ञान, शक्ति और अहंकार के बीच एक पतली रेखा होती है। जिसने इस सीमा को लांघा, वही विनाश का कारण बना। इसलिए वे न केवल उसकी विद्वत्ता का आदर करते हैं, बल्कि उसके पतन को भी जीवन की सीख मानते हैं।
2008 में बना रावण मंदिर
साल 2008 में समुदाय ने मेहरानगढ़ फोर्ट रोड पर रावण मंदिर की स्थापना की। यह राजस्थान का एकमात्र मंदिर है जहाँ रावण की पूजा होती है। यहाँ दशहरे के दिन भी रावण के नाम से हवन और पूजा होती है, न कि दहन।
कमलेश देव बताते हैं –
“हमारे लिए रावण कोई राक्षस नहीं, बल्कि भगवान शिव का परम भक्त है। उसने भगवान को प्रसन्न करने के लिए अपना सिर तक अर्पित किया था। क्या कोई साधारण व्यक्ति ऐसा कर सकता है?”
मंदिर में ‘जय लंकेश्वर महायज्ञ’ के साथ रावण की आरती होती है और उसके नाम से भंडारा भी। श्रद्धालु इसे ‘ज्ञान और विवेक की साधना’ का दिन मानते हैं।
विरासत, जिसे वे सम्मान से निभाते हैं
समुदाय के युवा कहते हैं कि आधुनिक शिक्षा और तकनीकी युग में भी वे अपनी विरासत को नहीं भूलना चाहते। उनके लिए यह परंपरा किसी बुराई का समर्थन नहीं, बल्कि ज्ञान और संस्कृति का सम्मान है।
अजय देव मुस्कुराते हुए कहते हैं –
“जब लोग हमें पूछते हैं कि आप रावण की पूजा क्यों करते हैं, तो हम कहते हैं — क्योंकि उसने हमें यह सिखाया कि ज्ञान का घमंड भी विनाश लाता है। और यही जीवन का सबसे बड़ा सबक है।”
जोधपुर की इस अनोखी परंपरा में भारत की सांस्कृतिक विविधता का एक जीवंत उदाहरण छिपा है — जहाँ एक ही कथा को लोग अपने-अपने दृष्टिकोण से जीते हैं। एक ओर रावण बुराई का प्रतीक है, दूसरी ओर वह शिवभक्त और विद्वान भी।
दशहरे के इस दिन जब देशभर में ‘रावण दहन’ की गूंज होती है, जोधपुर के इस छोटे समुदाय के घरों से एक धीमी, श्रद्धापूर्ण आवाज उठती है —
“ॐ नमः शिवाय… लंकेश्वर की आत्मा को शांति मिले।”