पूनम शर्मा
भारतीय विदेश नीति की सबसे बड़ी विशेषता दशकों तक उसकी रणनीतिक स्वायत्तता रही है। गुटनिरपेक्ष आंदोलन से लेकर आज़ादी के बाद के शुरुआती वर्षों तक भारत ने अमेरिका और सोवियत संघ के बीच संतुलन बनाए रखा। लेकिन पश्चिम एशिया के संदर्भ में यह स्वायत्तता लगातार चुनौती झेलती रही है। आज यह बहस तेज़ है कि भारत की रणनीतिक स्वायत्तता कहीं इज़रायल के दरवाज़े पर तो समाप्त नहीं हो जाती।
इज़रायल के साथ भारत की नीति – ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
1992 से पहले भारत और इज़रायल के बीच खुले कूटनीतिक रिश्ते नहीं थे। फिलिस्तीन के समर्थन और अरब देशों के साथ ऐतिहासिक मित्रता के कारण भारत ने दूरी बनाए रखी। लेकिन शीत युद्ध के बाद बदलते वैश्विक समीकरण और सुरक्षा ज़रूरतों ने भारत को इज़रायल की ओर झुकाया। रक्षा, खुफ़िया जानकारी और कृषि प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में सहयोग ने संबंधों को नया आयाम दिया।
रणनीतिक स्वायत्तता का परीक्षण – क़तर पर हमला
लेख के अनुसार 9 सितंबर को इज़रायल ने क़तर की संप्रभुता का उल्लंघन करते हुए हमला किया। इसके तुरंत बाद भारत के विदेश मंत्रालय (MEA) ने एक ऐसा बयान जारी किया जिसे कई विश्लेषक कमज़ोर और रक्षात्मक मानते हैं। बयान में स्पष्ट शब्दों में निंदा या अंतरराष्ट्रीय कानून का उल्लेख नहीं था। यह भारत की उस परंपरा के विपरीत था, जिसमें वह सार्वभौमिकता और अंतरराष्ट्रीय नियमों का सम्मान करने पर जोर देता रहा है।
मोदी का हस्तक्षेप – छवि बचाने की कोशिश
रिपोर्ट के मुताबिक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को स्वयं हस्तक्षेप करना पड़ा ताकि भारत की वैश्विक छवि को नुकसान न पहुंचे। उन्होंने सार्वजनिक मंचों पर संतुलित बयान देकर यह संकेत दिया कि भारत अभी भी अंतरराष्ट्रीय कानून और न्यायसंगत रुख़ को महत्व देता है। इस हस्तक्षेप ने यह सवाल भी खड़ा किया कि क्या विदेश मंत्रालय के भीतर नीति-निर्माण पर बाहरी दबाव हावी हो रहा है?
इज़रायल–भारत संबंधों की वास्तविकता
पिछले दो दशकों में इज़रायल भारत के लिए हथियार और प्रौद्योगिकी का बड़ा स्रोत बन गया है। मिसाइल सिस्टम, निगरानी ड्रोन, साइबर सुरक्षा और खुफ़िया सहयोग में इज़रायल की भूमिका अहम है। इसके अलावा अमेरिकी और यहूदी लॉबी के साथ निकटता भी इज़रायल को एक “विशेष साझेदार” बना देती है। लेकिन यह साझेदारी अगर भारत की विदेश नीति की स्वतंत्रता को प्रभावित करे, तो यह चिंताजनक है।
अरब देशों और भारत का संतुलन
भारत की लगभग 80 लाख प्रवासी आबादी खाड़ी देशों में रहती है। ऊर्जा आपूर्ति का बड़ा हिस्सा सऊदी अरब, यूएई और क़तर से आता है। इसलिए भारत को इज़रायल और अरब देशों के बीच संतुलन बनाए रखना पड़ता है। फिलिस्तीन के मुद्दे पर भारत का पारंपरिक रुख़ अरब देशों के लिए भरोसेमंद रहा है, लेकिन इज़रायल के साथ गहराते रिश्ते इस भरोसे को कमजोर कर सकते हैं।
रणनीतिक स्वायत्तता बनाम रणनीतिक निर्भरता
रणनीतिक स्वायत्तता का मतलब केवल सैन्य खरीद या कूटनीतिक बयान नहीं है, बल्कि यह भी है कि भारत अपने दीर्घकालिक हितों के अनुसार निर्णय ले। अगर किसी देश के साथ संबंध इस हद तक गहरे हो जाएँ कि वह भारत को बयानबाज़ी या नीति तय करने में मजबूर कर दे, तो वह स्वायत्तता का हनन है। इज़रायल के साथ मौजूदा हालात कुछ ऐसा ही संकेत देते हैं।
मोदी सरकार की कूटनीतिक शैली
मोदी सरकार ने “मल्टी-अलाइनमेंट” की नीति अपनाई है—एक साथ कई ध्रुवों के साथ निकटता। अमेरिका, रूस, यूरोप, अरब देश और इज़रायल सभी से रिश्ते गहरे करना इसका हिस्सा है। लेकिन यह नीति तभी टिकाऊ है जब हर मोर्चे पर स्वतंत्र निर्णय लिया जा सके। हालिया घटनाक्रम दिखाता है कि इज़रायल के मामले में भारत को अतिरिक्त सावधानी बरतनी पड़ती है, जिससे उसकी स्वायत्तता सवालों में आती है।
अंतरराष्ट्रीय छवि और घरेलू राजनीति
भारत की विदेश नीति सिर्फ अंतरराष्ट्रीय मंच पर ही नहीं, बल्कि घरेलू राजनीति में भी संदेश देती है। एक तरफ़ बीजेपी सरकार को राष्ट्रीय सुरक्षा और कड़ा रुख़ दिखाने की ज़रूरत होती है, दूसरी तरफ़ पश्चिम एशिया में भारतीय मजदूरों की सुरक्षा और ऊर्जा आपूर्ति जैसे व्यावहारिक मुद्दे भी होते हैं। यही वजह है कि सरकार को बयानबाज़ी में संतुलन बनाना पड़ता है।
आगे का रास्ता – संतुलन, संवाद और आत्मनिर्भरता
भारत को चाहिए कि वह इज़रायल के साथ तकनीकी और रक्षा सहयोग तो जारी रखे, लेकिन साथ ही अपने हितों के आधार पर खुलकर और संतुलित बयान दे। अगर किसी मित्र देश की कार्रवाई अंतरराष्ट्रीय कानून के खिलाफ़ हो, तो भारत को कमज़ोर बयान देने के बजाय सुस्पष्ट रुख़ अपनाना चाहिए।
इसके साथ ही रक्षा खरीद में आत्मनिर्भरता (Make in India) को बढ़ावा देना रणनीतिक स्वायत्तता का सबसे बड़ा साधन हो सकता है। घरेलू हथियार उत्पादन बढ़ेगा तो बाहरी दबाव घटेगा।
निष्कर्ष
भारत की रणनीतिक स्वायत्तता दशकों की मेहनत और विवेक से बनी है। इज़रायल के साथ करीबी रिश्ते स्वाभाविक और उपयोगी हैं, लेकिन इन्हें इस हद तक नहीं जाने देना चाहिए कि भारत की नीति किसी तीसरे देश की इच्छा के अनुसार तय होने लगे। मोदी का हालिया हस्तक्षेप इस बात का संकेत है कि सरकार भी इस समस्या को समझती है।
भारत को अब यह तय करना होगा कि वह वैश्विक मंच पर सिर्फ़ साझेदार रहेगा या स्वतंत्र शक्ति के रूप में खड़ा होगा। इज़रायल के साथ रिश्तों की अगली दिशा यही तय करेगी कि भारत की रणनीतिक स्वायत्तता बनी रहती है या नहीं।