पूनम शर्मा
अमेरिका में पढ़ाई करना भारतीय परिवारों के लिए लंबे समय से एक बड़ा सपना रहा है। इसे वे न सिर्फ़ शिक्षा में निवेश मानते हैं बल्कि वैश्विक exposure, करियर और ऊँचाई पाने का रास्ता भी। शैक्षणिक वर्ष 2023–24 में 3.31 लाख से ज़्यादा भारतीय छात्र अमेरिकी विश्वविद्यालयों में दाख़िल हुए – यह पिछले साल के मुकाबले 23% की बढ़ोतरी है। लेकिन डोनाल्ड ट्रंप प्रशासन के नए वीज़ा प्रस्तावों ने इस सपने में अनिश्चितता और चिंता बढ़ा दी है।
प्रस्ताव क्या कहता है
अमेरिकी डिपार्टमेंट ऑफ होमलैंड सिक्योरिटी (DHS) ने एक नया नियम प्रस्तावित किया है जिसके तहत F-1 (अकादमिक) और J-1 (एक्सचेंज) वीज़ा पर “ड्यूरेशन ऑफ स्टेटस” की मौजूदा व्यवस्था समाप्त करके तय चार साल की सीमा लगाई जाएगी। अभी तक छात्र तब तक अमेरिका में रह सकते हैं जब तक वे नामांकित हैं और नियमों का पालन कर रहे हैं। नए नियम के तहत –
वीज़ा की अवधि चार साल या कोर्स की अवधि (जो भी कम हो) तक सीमित रहेगी।
पढ़ाई पूरी होने के बाद “ग्रेस पीरियड” 60 दिन से घटाकर 30 दिन कर दिया जाएगा।
पीएचडी या STEM वाले लंबी अवधि के कार्यक्रमों के लिए “एक्सटेंशन ऑफ स्टे” के लिए अलग से आवेदन करना होगा।
पहले साल में कोर्स या विश्वविद्यालय बदलने पर रोक होगी।
छात्रों और परिवारों की चिंता
भारतीय छात्र अमेरिका में अंतरराष्ट्रीय छात्रों का सबसे बड़ा समूह हैं। उनके लिए अमेरिका की रिसर्च सुविधाएँ, शीर्ष रैंकिंग वाले विश्वविद्यालय और OPT (Optional Practical Training) बड़ा आकर्षण हैं। चार साल की सीमा स्नातक और अधिकतर मास्टर्स कार्यक्रमों को बहुत प्रभावित नहीं करेगी, लेकिन पीएचडी या STEM आधारित लंबे कोर्स के छात्रों को बीच में एक्सटेंशन के लिए आवेदन करना पड़ेगा। इससे न सिर्फ़ कागज़ी कार्य बल्कि अनिश्चितता का मानसिक दबाव भी बढ़ेगा।
हर भारतीय परिवार के लिए यह सिर्फ़ आर्थिक निवेश नहीं, बल्कि भावनात्मक दांव भी है। बहुत से माता–पिता ज़मीन बेचकर या क़र्ज़ लेकर बच्चों को अमेरिका भेजते हैं। ऐसे में यदि बच्चा बीच में लौटने को मजबूर हो तो नुकसान केवल आर्थिक नहीं, व्यक्तिगत भी होता है।
विश्वविद्यालयों की प्रतिक्रिया
अमेरिकी विश्वविद्यालय भी इससे खुश नहीं हैं। 2020 में भी ऐसा प्रस्ताव आया था जिसे विरोध के चलते वापस लेना पड़ा। इस बार भी विश्वविद्यालय तेज़ी से लामबंद हो रहे हैं। उनका कहना है कि अंतरराष्ट्रीय छात्र केवल संख्या नहीं बल्कि विविधता, रिसर्च क्षमता और आर्थिक योगदान लाते हैं।
इसीलिए विश्वविद्यालय अब नए सपोर्ट सिस्टम तैयार कर रहे हैं – वीज़ा एडवाइजरी डेस्क, नियोक्ताओं के साथ इंटर्नशिप टाइमलाइन मिलाने के प्रयास और अंतरराष्ट्रीय छात्र कार्यालयों को मज़बूत करना ताकि समय पर एक्सटेंशन आवेदन हो सके।
आर्थिक और मानसिक असर
वीज़ा बढ़ाने की फ़ीस हज़ारों डॉलर तक जा सकती है। अगर कई बार नवीनीकरण करना पड़ा तो खर्च 1 लाख रुपये से अधिक हो सकता है। वहीं पढ़ाई की फ़ीस पहले से ही 20,000 से 45,000 डॉलर सालाना (रहने के खर्च अलग) है। OPT (पोस्ट-स्टडी वर्क ऑथराइज़ेशन) का समय चूकने से छात्रों की क़िस्त चुकाने और करियर शुरू करने की योजना प्रभावित हो सकती है।
सबसे बड़ी चिंता मानसिक है। कठिन पढ़ाई के साथ वीज़ा की अनिश्चितता छात्रों को लगातार दबाव में रखेगी। प्रोसेसिंग में देरी इंटर्नशिप, असिस्टेंटशिप और OPT की तारीख़ों को बिगाड़ सकती है।
सलाह और विकल्प
शिक्षा सलाहकार परिवारों को अधिक व्यावहारिक बनने की सलाह दे रहे हैं – ऐसे कोर्स चुनें जो चार साल में पूरे हो सकें, शोध या थीसिस में समय-सीमा का बफ़र रखें, एक्सटेंशन के लिए पहले से आवेदन करें और बजट में नवीनीकरण की लागत जोड़ें।
साथ ही विकल्प खुले रखने की भी सलाह है। कनाडा, यूके और ऑस्ट्रेलिया भारतीय छात्रों के लिए पहले से ही मज़बूत गंतव्य हैं। जर्मनी, फ्रांस, इटली और न्यूज़ीलैंड जैसे देश भी अब आकर्षक हो रहे हैं। इन देशों में सस्ती पढ़ाई, स्पष्ट पोस्ट-स्टडी वर्क राइट्स और भारतीय समुदाय की मौजूदगी छात्रों को खींच रही है।
यूनिवर्सिटी लिविंग की रिपोर्ट के अनुसार जर्मनी में 39,600 भारतीय छात्र, फ्रांस में 7,300, इटली में 6,100 और न्यूज़ीलैंड में कुल 73,535 अंतरराष्ट्रीय छात्र हैं जिसमें भारतीय तेज़ी से बढ़ रहे हैं।
संतुलन की ज़रूरत
कई विशेषज्ञों का कहना है कि अगर अमेरिका वीज़ा अवधि को कड़ा कर रहा है तो उसे पोस्ट-स्टडी अवसरों को मज़बूत करना चाहिए ताकि छात्र आत्मविश्वास के साथ आएँ। 30 दिन की ग्रेस पीरियड बहुत कम है और इसे बढ़ाया जाना चाहिए।
कुछ लोग मानते हैं कि मिड-कोर्स बदलाव पर रोक से “वीज़ा हॉपिंग” जैसी समस्या कम होगी और वीज़ा अप्रूवल रेट बेहतर होंगे। लेकिन अधिकांश विशेषज्ञ मानते हैं कि छात्रों के हित में ग्रेस पीरियड को लंबा करना ज़रूरी है।
भारतीय परिवारों की नज़र
भारतीय परिवारों के लिए यह सिर्फ़ आर्थिक नहीं, भावनात्मक निवेश भी है। बच्चों का भविष्य, इंटर्नशिप, OPT की टाइमिंग – सब अनिश्चित हो जाता है। फिर भी भारतीय परिवार लचीले हैं, तुलना करते हैं, गणना करते हैं और बैक-अप विकल्प रखते हैं। यही कारण है कि 2025 तक भारतीयों का ओवरसीज़ एजुकेशन ख़र्च 70 अरब डॉलर तक पहुँचने का अनुमान है। सपना अभी टूटा नहीं, बस विविध हो रहा है।
निष्कर्ष
फिलहाल यह नियम केवल प्रस्ताव है और 29 सितंबर तक पब्लिक कमेंट के लिए खुला है। अमेरिकी विश्वविद्यालय और अंतरराष्ट्रीय शिक्षा संस्थान इसे रोकने के लिए लॉबिंग कर रहे हैं। एक्सटेंशन की संभावना बनी रहेगी और विश्वविद्यालय मदद के लिए तैयार हैं।
फिर भी यह घटना हमें याद दिलाती है कि नीति के छोटे बदलाव भी लाखों युवाओं की ज़िंदगी को प्रभावित कर सकते हैं। भारतीय छात्रों के लिए दूरदर्शिता और तैयारी ज़रूरी है, वहीं अमेरिकी नीति-निर्माताओं के लिए चुनौती है कि वे वैश्विक प्रतिभा के इस प्रतिस्पर्धी माहौल में अमेरिका को आकर्षक और स्वागतयोग्य बनाए रखें।