पूनम शर्मा
फ्रांस एक बार फिर राजनीतिक उथल-पुथल के दौर में है। यह संकट किसी घोटाले या अचानक जनता के मूड बदलने के कारण नहीं, बल्कि संसद में बढ़ते शत्रुतापूर्ण गणित के कारण पैदा हुआ है। प्रधानमंत्री फ़्रांस्वा बेय्रू का मात्र एक वर्ष से भी कम समय में सत्ता से बाहर होना न केवल एक व्यक्ति की असफलता है, बल्कि पाँचवें गणराज्य की गहराती संस्थागत विफलता को भी उजागर करता है — ऐसी व्यवस्था जिसमें सरकारें स्थायी बहुमत जुटाने में नाकाम रहती हैं, चाहे मुद्दा कितना भी गंभीर क्यों न हो।
बेय्रू की गिरावट: अनिवार्य परिणाम
फ़्रांस्वा बेय्रू ने जब वित्तीय अनुशासन पर विश्वास प्रस्ताव रखा तो उन्होंने केवल अपना राजनीतिक भविष्य ही नहीं, बल्कि राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों के दूसरे कार्यकाल की साख भी दांव पर लगा दी। उनका कहना था कि फ्रांस का बढ़ता कर्ज़ – जो अब 3.4 ट्रिलियन यूरो तक पहुँच चुका है – और उसके ब्याज की बढ़ती लागत देश के लिए असहनीय होती जा रही है।
लेकिन फ्रांसीसी राजनीति के रंगमंच में अक्सर आंकड़ों से ज्यादा प्रतीकात्मकता हावी रहती है। विपक्ष के लिए यह मुद्दा वित्तीय अनुशासन नहीं, बल्कि मैक्रों और उनके सहयोगियों को कमजोर करने का अवसर था।
विपक्ष की सामरिक एकजुटता
वामपंथ और दक्षिणपंथ – दोनों ने बेय्रू के विश्वास प्रस्ताव के खिलाफ वोट डाला। दायें पंथ का उद्देश्य मैक्रों की पकड़ को ढीला करना और अपनी राष्ट्रवादी एजेंडा को मजबूत करना था, जबकि वामपंथ इसे पेंशन और कल्याण योजनाओं पर हमला मान रहा था। रिटायरमेंट की आयु को 64 वर्ष तक बढ़ाने के फैसले ने पहले ही समाज के बड़े हिस्से में असंतोष फैला दिया था।
इसलिए बेय्रू का ‘अंतर-पीढ़ी न्याय’ वाला संदेश – जिसमें उन्होंने युवाओं को “कर्ज़ की गुलामी” से बचाने की बात कही थी – संसद में शोर-शराबे और नारेबाजी में दब गया।
मैक्रों के लिए व्यक्तिगत और संरचनात्मक संकट
राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों के लिए यह संकट केवल एक प्रधानमंत्री के पद से हटने तक सीमित नहीं है। पिछले दो वर्षों में पाँच प्रधानमंत्रियों का जाना इस बात का संकेत है कि फ्रांस में राजनीतिक केंद्र लगातार खोखला हो रहा है। मैक्रों ने जब सत्ता संभाली थी तो उनका वादा था कि वे फ्रांस की पारंपरिक वाम-दक्षिण खाई को पार कर एक नया मध्य मार्ग तैयार करेंगे। लेकिन आज वे स्वयं अलग-थलग पड़ गए हैं।
बाएँ की ओर झुकने का मतलब उनके उदारवादी आर्थिक एजेंडे को छोड़ना होगा, जबकि अपनी पुरानी लाइन पर बने रहना उन्हें और अधिक गतिरोध में धकेल देगा। संसद भंग करने की स्थिति में असंतोष पर पलने वाली पार्टियों को और बढ़त मिल सकती है।
जनता की प्राथमिकताएँ बनाम राजकोषीय अनुशासन
संसद और सड़कों पर जारी इस राजनीतिक टकराव के बीच आम फ्रांसीसी जनता की प्राथमिकताएँ अलग हैं। बढ़ती महंगाई, सुरक्षा और प्रवासन के मुद्दे उनकी रोजमर्रा की जिंदगी पर सीधा असर डालते हैं। इसके विपरीत कर्ज़ स्थिरता का सवाल उन्हें “एलीट” का मुद्दा लगता है। इसी कारण “सबकुछ रोक दो” जैसी आंदोलनों की राजनीति ज़मीन पकड़ रही है।
शरद ऋतु में संभावित हड़तालें और बहिष्कार इस राजनीतिक जड़ता को और गहरा करेंगे। लेकिन हकीकत यह है कि फ्रांस अपने वित्तीय पथ को लेकर अनिश्चितता को हमेशा के लिए टाल नहीं सकता, खासकर तब जब रक्षा खर्च बढ़ रहा हो और कल्याणकारी योजनाओं की राजनीति और अधिक जटिल हो रही हो।
संदेश बना रहेगा, संदेशवाहक बदल जाएगा
बेय्रू का जाना इस समस्या को हल नहीं करता। आने वाला कोई भी प्रधानमंत्री इसी कर्ज़ और विभाजन के गणित से जूझेगा। यह फ्रांसीसी गणराज्य का वह अंतर्विरोध है जहाँ राष्ट्रपति की मजबूत स्थिति संसद की खंडित वास्तविकता से टकराती है।
इस राजनीतिक व्यवस्था के चलते प्रधानमंत्री केवल नीति के निष्पादक नहीं बल्कि लगातार बदलते ‘बलि के बकरे’ बनते जा रहे हैं।
संस्थागत स्थिरता का प्रश्न
आज का संकट केवल एक प्रधानमंत्री की विदाई नहीं है, बल्कि यह सवाल है कि क्या फ्रांस की संस्थाएँ अभी भी स्थिरता प्रदान करने में सक्षम हैं। जिस देश ने यूरोपीय राजनीति को दशकों तक दिशा दी, वही आज आंतरिक खींचतान और ‘अवरोध की संस्कृति’ में फँसा हुआ दिख रहा है।
यदि नया सर्वसम्मति आधार नहीं तैयार किया गया तो मातिग्नो (फ्रांसीसी प्रधानमंत्री कार्यालय) के revolving door (घूमते दरवाजे) से प्रधानमंत्री आते-जाते रहेंगे, लेकिन कर्ज़ और जनता का मोहभंग दोनों बढ़ते रहेंगे।
आगे का रास्ता
फ्रांस के सामने विकल्प कठिन हैं।
राजकोषीय सुधार: बिना राजनीतिक सहमति के लंबे समय तक नहीं चल सकते।
नया राजनीतिक केंद्र: पुराने वाम-दक्षिण समीकरण को तोड़कर एक व्यापक गठबंधन की जरूरत।
जनता से संवाद: कर्ज़ और कल्याण दोनों मुद्दों पर पारदर्शिता और ईमानदारी के साथ चर्चा जरूरी।
निष्कर्ष
फ़्रांस की मौजूदा राजनीतिक स्थिति एक गहरे संस्थागत संकट का संकेत देती है। प्रधानमंत्री फ़्रांस्वा बेय्रू की विदाई यह दिखाती है कि केवल व्यक्ति बदलने से स्थिति नहीं सुधरेगी। जब तक राष्ट्रपति और संसद के बीच नए भरोसे और सहमति का सूत्र नहीं निकलता, तब तक यह अंतहीन गतिरोध बना रहेगा।
फ्रांस के सामने दोहरी चुनौती है – आर्थिक अनुशासन को कायम रखना और लोकतांत्रिक प्रतिनिधित्व को बनाए रखना। यदि यह संतुलन नहीं बन पाया तो फ्रांस की पाँचवीं गणराज्य व्यवस्था बार-बार उसी गतिरोध में फँसती रहेगी, और “संदेशवाहक” बदलने के बावजूद “संदेश” वही रहेगा।