गुनो भई साधो

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✍🏻विवेक चौरसिया
पितृ पक्ष भारतीय संस्कृति का अद्भुत महापर्व है। इसकी महिमा देखिए कि हिंदुओं के प्रमुख त्यौहार जैसे दशहरा, राखी, होली, श्री राम नवमी, श्री कृष्ण जन्माष्टमी, महाशिवरात्रि आदि एक दिन मनाए जाते हैं। दीपावली पांच दिन, नवरात्रि नौ दिन, गणेशोत्सव दस दिन का होता है, लेकिन पितृ पक्ष पूरे सोलह दिन का उत्सव है। शास्त्रों में इसे महालय कहा गया है। मह- अर्थात उत्सव और आलय- अर्थात घर। यूं समझिये कि सामान्यतया हमारे घर में कोई अतिथि का आगमन होता है तो हम कितने प्रसन्न होते हैं, कितनी श्रद्धा से उसका सत्कार करते हैं और कितने उत्साह से नाना सुस्वादु व्यंजन बनाकर अतिथि को परोसते हैं।

श्राद्ध पक्ष में हमारे पितृ हमारे घर पधारते हैं। हमारे वे पूर्वज जिन्होंने हमें जन्म दिया, जीवन दिया, ज्ञान और संस्कार दिए और हमें अपनी सत्ता दी। जिनसे हमारा अस्तित्व है, जो हमारी समूची पितृ परंपरा के उत्स हैं, उसकी विकास यात्रा के स्रोत हैं, वे थे तो हम हैं, जब वे पधारते हैं तो क्यों न हमारे घर में उत्सव होगा। इसीलिए तो समूचे श्राद्ध पक्ष में पूरे सोलह ही दिन खीर-पूरी और नित नये व्यंजन बनते हैं। परिजन, रिश्तेदार, कुल के लोग आते हैं और साथ बैठकर भोजन करते हैं।

यह उत्सव ही तो है, हमारे दिवंगत पूर्वजों के आगमन का जो देह त्याग के बाद पितृलोक के वासी हैं और पितृ पक्ष में हमारी श्रद्धा से तृप्त होने, हमारे श्राद्ध का तर्पण गृहण करने हमारे घर, अपने वंशजों के पास आते हैं। यह दिवंगत पूर्वजों से जुड़ा पर्व है, कदाचित इसीलिए जाने-अनजाने शोक और अशुभ मान लिया गया, लेकिन इससे अद्भुत कोई पर्व नहीं।

यह अपनी समूची पितृ परंपरा की वंदना का व्रत है। यह कृतज्ञता और आभार के कीर्तन का काल है। यह अदृश्य अतिथियों के आगमन का उत्सव है, जो इसी बहाने जीवन की आपाधापी में जुटे हमारे अपने कुटुंबीजनों को एक पंगत में ले आता है। यह श्रद्धा भाव से पितरों को तृप्त करने का कर्म है। इसीलिए यह श्राद्ध है क्योंकि इसमें उनके प्रति श्रद्धा है जिनसे हम हैं। यह तृप्त करने का कर्म है इसलिए तर्पण है। यह एक तरह से वृक्ष के शिखर पर गगनचुंबी पत्तों द्वारा अपनी जड़ों का अभिषेक है।

यह सोलह दिन का होता है। हिंदू पंचांग के अनुसार। हिंदू पंचांग में अंग्रेजी केलेंडर सरीखे 12 मास ही हैं। लेकिन एक मास में 1 से 30 तक तिथि न होकर 1 से 15 और फिर 1 से 15 के दो पक्ष होते हैं। मास के प्रारंभ में कृष्ण पक्ष और फिर शुक्ल पक्ष। शुक्ल पक्ष की अंतिम तिथि पूर्णिमा अर्थात पूर्णमासी है। श्राद्ध पक्ष भाद्र मास की पूर्णिमा से शुरु होकर आश्विन मास की अमावस को समाप्त होता है। स्वभावत: हमारे परिजन इन्ही सोलह तिथियों में से किसी एक तिथि पर देह त्याग करते हैं। जिस तिथि को वे देह त्यागते हैं, उसी दिन उनके श्राद्ध का विधान है। हमारे पितृ इस पक्ष में तय तिथि पर पधारते हैं और मंगल दान कर हमें धन्य करते हैं। वे जब सशरीर होते हैं तब भी सदा हमें देते हैं, कृपा करते हैं। शास्त्र कहते हैं देह त्याग के बाद भी वे पितृलोक के वासी होकर तर्पण के बहाने हमारा शुभ करने ही पधारते हैं। वे केवल हमारी प्रसन्नता से प्रसन्न होते हैं। हमारी श्रद्धा से तृप्त होते हैं।

संसार में उनसे अधिक धनी, शक्ति संपन्न और सौभाग्यशाली कोई नहीं है, जिनके माता-पिता सशरीर हैं, साथ हैं, प्रसन्न हैं और श्रद्धा से तृप्त हो रहे हैं। सच मानिये जिसके सिर पर माता-पिता का हाथ है वह ईश्वर से भी अड़ जाए, यमराज से भी लड़ जाए तो विजय उसी की होगी, क्योंकि उसके पास माता-पिता हैं। माता-पिता घर में है तो हर दिन उत्सव है। यदि नहीं है तो श्राद्ध पक्ष महालय बनकर आता है। आपकी श्रद्धा से तृप्त माता-पिता का आशीष बाकी दिनों को उत्सव ही कर जाता है।

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