पूनम शर्मा
दशकों तक इज़रायल ने पश्चिमी देशों के समर्थन पर अपनी नीतियां चलाईं। अमेरिका और यूरोप का कूटनीतिक व सैन्य सहयोग उसकी सुरक्षा की रीढ़ माना जाता रहा। लेकिन आज हालात बदल चुके हैं। गाज़ा में चल रहे युद्ध ने इज़रायल की वैश्विक साख पर गहरा धक्का पहुंचाया है। मानवाधिकार उल्लंघन और निर्दोष नागरिकों पर हो रहे अत्याचारों ने न केवल अंतरराष्ट्रीय जनमत को झकझोर दिया है, बल्कि कई परंपरागत सहयोगी देश भी अब खुलेआम इज़रायल की आलोचना करने लगे हैं।
गाज़ा युद्ध: जनमत में निर्णायक मोड़
7 अक्तूबर 2023 को हमास के हमलों के बाद इज़रायल को शुरुआती दौर में व्यापक सहानुभूति और समर्थन मिला। लेकिन इसके बाद जिस तरह गाज़ा पर सैन्य कार्रवाई हुई, वह दुनिया के सामने असहनीय लगने लगी। संयुक्त राष्ट्र समर्थित रिपोर्टें गाज़ा में अकाल जैसी स्थिति की पुष्टि कर रही हैं। हजारों परिवार भूख और दवाइयों की कमी से जूझ रहे हैं।
ताज़ा आंकड़ों के अनुसार अब तक इस युद्ध में 62,000 से अधिक लोग मारे जा चुके हैं, जिनमें आधे से ज्यादा महिलाएं और बच्चे शामिल हैं। गाज़ा का लगभग 70 प्रतिशत इलाका खंडहर में बदल चुका है। अंतरराष्ट्रीय मीडिया में भूखे बच्चों और मलबे में दबे परिवारों की तस्वीरें नियमित रूप से प्रसारित हो रही हैं। यही वह बिंदु है जिसने वैश्विक जनमत का रुख बदल दिया।
सहयोगियों का बदलता नजरिया
फ्रांस, जर्मनी, ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों ने अपनी नीतियों पर पुनर्विचार शुरू कर दिया है। कई देश औपचारिक रूप से फ़िलिस्तीन को राज्य के रूप में मान्यता देने की ओर बढ़ रहे हैं। यह कदम इज़रायल के लिए गहरा झटका है क्योंकि यह संकेत देता है कि पुराने सहयोगी भी अब उसके समर्थन से पीछे हट सकते हैं।
मानवाधिकार संगठनों, जिनमें दो प्रमुख इज़रायली संगठन भी शामिल हैं, ने गाज़ा में हो रही कार्रवाइयों को नरसंहार की संज्ञा दी है। इस आलोचना ने इज़रायल की नैतिक स्थिति को और कमजोर कर दिया है।
नेतन्याहू पर अंतरराष्ट्रीय दबाव
प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू पर दबाव लगातार बढ़ रहा है। उनकी सरकार के कई अति-दक्षिणपंथी मंत्रियों पर अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंध लगाए जा चुके हैं। कुछ नेताओं को उनके भड़काऊ बयानों की वजह से विदेशों में प्रवेश तक से रोक दिया गया है। यह दर्शाता है कि दुनिया अब केवल बयानबाज़ी तक सीमित नहीं है, बल्कि इज़रायल की नीतियों पर कठोर कार्रवाई करने को भी तैयार है।
घरेलू राजनीति में उबाल
इज़रायल के भीतर भी हालात गंभीर हैं। सर्वेक्षण बताते हैं कि लगभग 70 प्रतिशत नागरिक नेतन्याहू सरकार से नाराज़ हैं। बहुतों का मानना है कि युद्ध को राजनीतिक कारणों से लंबा खींचा जा रहा है, ताकि नेतन्याहू की सत्ता बची रहे।
17 अगस्त को तेल अवीव में ऐतिहासिक रैली हुई जिसमें लाखों लोगों ने तुरंत युद्धविराम और बंधकों की सुरक्षित वापसी की मांग की। लगातार हो रहे प्रदर्शन और हड़तालें इज़रायली समाज में गहराती असंतोष की तस्वीर पेश करती हैं।
वैश्विक बहिष्कार अभियान की वापसी
2005 से सक्रिय “बॉयकॉट, डाइवेस्टमेंट, सैंक्शंस (BDS)” आंदोलन को भी नया बल मिल रहा है। यूरोप के कई सुपरमार्केट से इज़रायली उत्पाद हटाए जा चुके हैं। इज़रायली विश्वविद्यालयों के खिलाफ शैक्षणिक बहिष्कार बढ़ रहा है और कलाकारों को अंतरराष्ट्रीय कार्यक्रमों से बाहर किया जा रहा है। सांस्कृतिक मोर्चे पर भी इज़रायल अलग-थलग पड़ता दिख रहा है।
इज़रायल के भविष्य पर सवाल
इन सबके बीच नेतन्याहू अडिग दिखते हैं। वह अपने रुख से पीछे हटने को तैयार नहीं हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या इज़रायल इस वैश्विक दबाव को झेल पाएगा? क्या वह अपने सहयोगियों को खोने का जोखिम उठा सकता है? और सबसे अहम – क्या गाज़ा में जारी युद्ध वाकई उसकी सुरक्षा सुनिश्चित करेगा या फिर उसके अस्तित्व को ही संकट में डाल देगा?
आज स्थिति यह है कि जिस इज़रायल को कभी पश्चिमी लोकतंत्रों का मजबूत साथी माना जाता था, वही अब अंतरराष्ट्रीय बिरादरी में आलोचना और अलगाव का शिकार बन रहा है। अगर यह रुख आगे भी जारी रहा तो इज़रायल की नीतियों के साथ-साथ उसकी राजनीतिक स्थिरता और दीर्घकालिक अस्तित्व पर भी गहरा सवाल खड़ा होगा।