पूनम शर्मा
भारत की सामाजिक और सांस्कृतिक संरचना का सबसे बड़ा आधार परिवार है। परिवार सिर्फ एक सामाजिक संस्था नहीं, बल्कि हमारी परंपराओं, संस्कारों और पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाले मूल्यों का वाहक भी है। ऐसे में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत का यह बयान कि “हर हिंदू परिवार में कम से कम तीन बच्चे होने चाहिए” केवल एक व्यक्तिगत राय नहीं, बल्कि एक गंभीर सामाजिक चेतावनी है। उन्होंने यह चिंता जताई कि हिंदू समाज में जन्मदर लगातार घट रही है, और यह प्रवृत्ति भविष्य में संतुलन बिगाड़ सकती है।
बदलती जीवनशैली और परिवार का संकट
पिछले दो दशकों में शहरी और अर्ध-शहरी भारत में जीवनशैली में बड़ा बदलाव आया है। आज के युवाओं की प्राथमिकताएँ पारंपरिक समाज से काफी अलग हो चुकी हैं। एक ओर जहां “डबल इनकम नो चाइल्ड (DINK)” मॉडल अपनाने वाले दंपति बढ़ रहे हैं, वहीं दूसरी ओर बड़ी संख्या में युवा शादी से ही परहेज़ कर रहे हैं।
कई सर्वे बताते हैं कि युवा वर्ग का एक हिस्सा अब लिव-इन रिलेशनशिप को शादी से ज़्यादा आसान और व्यावहारिक विकल्प मान रहा है। इस सोच के पीछे स्वतंत्रता की चाह, आर्थिक दबाव और जिम्मेदारी से बचने की मानसिकता बड़ी वजह मानी जा रही है। लेकिन इसका सीधा असर समाज की जनसांख्यिकी और परिवार व्यवस्था पर पड़ रहा है।
घटती जन्मदर: एक गंभीर संकेत
भारत अभी भी दुनिया के सबसे युवा देशों में गिना जाता है, लेकिन विशेषज्ञ चेतावनी दे रहे हैं कि यदि वर्तमान रुझान जारी रहा तो आने वाले दशकों में भारत भी यूरोप और जापान जैसे “एजिंग सोसायटी” की श्रेणी में आ सकता है। हिंदू समाज में जन्मदर का कम होना विशेष चिंता का विषय है क्योंकि इससे न केवल जनसंख्या अनुपात प्रभावित होगा, बल्कि सांस्कृतिक और सामाजिक निरंतरता भी खतरे में पड़ सकती है।
संघ प्रमुख की चिंता इस बात पर भी केंद्रित है कि यदि हिंदू परिवारों की संख्या और बच्चों का अनुपात घटता रहा तो सामाजिक संतुलन में असमानता पैदा हो सकती है। यह केवल धार्मिक या सांस्कृतिक समस्या नहीं होगी, बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा और आर्थिक विकास से भी जुड़ा हुआ मुद्दा बन जाएगा।
आर्थिक दबाव और नई सोच
आज के युवा यह तर्क देते हैं कि बच्चे पालना आसान नहीं है। महंगाई, शिक्षा और स्वास्थ्य खर्च, और शहरों में रहने की ऊँची लागत बच्चों की परवरिश को कठिन बना देती है। इसके चलते कई दंपति एक ही बच्चा चुनते हैं या फिर बच्चों से पूरी तरह बचने का निर्णय लेते हैं।
इसके साथ ही, करियर और व्यक्तिगत स्वतंत्रता को प्राथमिकता देने की सोच भी गहराई से प्रभाव डाल रही है। महिलाओं की शिक्षा और नौकरी में बढ़ती भागीदारी से यह धारणा और मजबूत हुई है कि बच्चे होना जीवन की ज़रूरी शर्त नहीं है। हालांकि यह बदलाव महिलाओं की स्वतंत्रता के लिहाज़ से सकारात्मक है, लेकिन यदि इसका सामूहिक असर समाज की जन्मदर पर पड़ता है तो यह चिंता का कारण बन सकता है।
रिश्तों की परिभाषा बदलती हुई
पहले भारतीय समाज में विवाह को जीवन का अनिवार्य संस्कार माना जाता था, लेकिन अब विवाह की अवधारणा युवाओं के लिए बोझिल और बंधनकारी लगने लगी है। लिव-इन रिलेशनशिप को लेकर अब न तो सामाजिक विरोध उतना तीखा है, और न ही इसे छिपाने की आवश्यकता महसूस की जाती है। नतीजतन, स्थायी पारिवारिक ढाँचा कमजोर हो रहा है और पीढ़ियों की निरंतरता पर सवाल खड़े हो रहे हैं।
समाधान और आगे की राह
डॉ. मोहन भागवत के सुझाव को केवल संख्या की दृष्टि से नहीं, बल्कि व्यापक सामाजिक परिप्रेक्ष्य से देखने की आवश्यकता है।
सबसे पहले, समाज को यह समझाना होगा कि बच्चे केवल आर्थिक बोझ नहीं, बल्कि भविष्य की नींव हैं।
सरकार को भी परिवार और बच्चों के पालन-पोषण में सहयोगी नीतियाँ बनानी होंगी—जैसे कि कर में छूट, मातृत्व-पितृत्व अवकाश, और बच्चों की शिक्षा-स्वास्थ्य पर सब्सिडी।
समाज में विवाह संस्था के महत्व को पुनर्जीवित करना भी ज़रूरी है। विवाह को केवल जिम्मेदारी के बोझ के रूप में नहीं, बल्कि एक साझेदारी और सामूहिक जीवन के आधार के रूप में प्रस्तुत करना होगा।
निष्कर्ष
हिंदू समाज में जन्मदर का मुद्दा केवल धार्मिक संतुलन का सवाल नहीं, बल्कि राष्ट्रीय अस्तित्व और सांस्कृतिक निरंतरता का प्रश्न है। यदि वर्तमान प्रवृत्तियों पर ध्यान नहीं दिया गया तो आने वाले वर्षों में भारत की पारिवारिक संरचना, जनसांख्यिकी और सांस्कृतिक आधारशिला कमजोर हो सकती है।
डॉ. मोहन भागवत का संदेश यही है कि प्रत्येक हिंदू परिवार को अपनी जिम्मेदारी समझनी चाहिए और कम से कम तीन बच्चों के साथ परिवार को आगे बढ़ाना चाहिए। यह केवल परंपरा का पालन नहीं, बल्कि भविष्य की सुरक्षा भी है।