“अरावली संकट: वन परिभाषा बदलकर गुरुग्राम की समस्या बढ़ाएगी सरकार?”

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पूनम शर्मा
हरियाणा सरकार द्वारा हाल ही में “वन” की नई परिभाषा तय करने का प्रयास एक बड़े विवाद का कारण बन गया है। पर्यावरणविदों, विधि विशेषज्ञों और नागरिकों का मानना है कि यह कदम संरक्षण के बजाय रियल एस्टेट परियोजनाओं को आसान बनाने की दिशा में उठाया गया है।

लोगों का कहना है कि सरकार को “वन भूमि” की परिभाषा में उलझने के बजाय “ड्रेनेज” यानी जल निकासी प्रणाली पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। गुरुग्राम जैसे शहरों में जलभराव और बाढ़ की समस्या दिन-प्रतिदिन गंभीर होती जा रही है, और इसका सीधा संबंध असंतुलित शहरी नियोजन और खराब जल प्रबंधन से है।

नई परिभाषा क्या कहती है?

‘दि पायनियर’ द्वारा एक्सेस की गई अधिसूचना के अनुसार, हरियाणा के वन, पर्यावरण और वन्यजीव विभाग ने यह तय किया है कि कम से कम पाँच हेक्टेयर भूमि पर यदि 40 प्रतिशत यानी 0.4 कैनोपी डेंसिटी है, तो उसे ‘वन’ माना जाएगा। वहीं यदि भूमि पहले से अधिसूचित वन से सटी हुई है, तो न्यूनतम सीमा दो हेक्टेयर होगी।

इस संशोधित परिभाषा से छोटे हरे-भरे क्षेत्र, अरावली की झाड़ीनुमा पहाड़ियाँ, बंजर भूमि, घास के मैदान और सामुदायिक साझा ज़मीनें ‘वन’ की श्रेणी से बाहर हो जाएँगी।

पर्यावरणविदों की आपत्ति

पूर्व दक्षिण हरियाणा के वन संरक्षक एम.डी. सिन्हा ने कहा कि यह परिभाषा संरक्षण की वास्तविकता को समझने में विफल है। “हरियाणा का मात्र तीन प्रतिशत भूभाग वनाच्छादित है। अरावली में अधिकांश वन झाड़ीदार हैं, जिनकी कैनोपी घनत्व 10 से 20 प्रतिशत तक ही है। यह अधिसूचना संरक्षण के लिए नहीं बल्कि बिल्डर लॉबी के हित साधने के लिए लाई गई है।”

नेलम आहलूवालिया, ‘पीपल फॉर अरावलीज’ की संस्थापक सदस्य, ने कहा कि हरियाणा का वन क्षेत्र देश में सबसे कम, मात्र 3.6 प्रतिशत है, जबकि राष्ट्रीय औसत 21 प्रतिशत और लक्ष्य 33 प्रतिशत है। “इतने संवेदनशील जलवायु वाले राज्य में 40 प्रतिशत कैनोपी डेंसिटी लागू करना वैज्ञानिक रूप से गलत है। अरावली के 50 प्रतिशत हिस्से को अब तक कोई कानूनी सुरक्षा नहीं मिली है, और सरकार की यह नई परिभाषा उन क्षेत्रों को भी कानूनी सुरक्षा से बाहर कर देगी।”

पर्यावरण कार्यकर्ता भरत नैण ने कहा कि “सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के अनुसार ‘डिक्शनरी मीनिंग’ के आधार पर वन की परिभाषा में झाड़ीदार और खुले वन भी शामिल होते हैं। लेकिन हरियाणा सरकार की अधिसूचना इन्हें बाहर कर देती है। यह न सिर्फ अरावली की पारिस्थितिकी को खतरे में डाल देगा, बल्कि खनन और अंधाधुंध शहरीकरण का रास्ता भी खोल देगा।”

गुरुग्राम और ड्रेनेज की समस्या

विशेषज्ञों का मानना है कि वास्तविक आवश्यकता ‘वन’ की परिभाषा बदलने की नहीं बल्कि “ड्रेनेज नीति” बनाने की है। अधिवक्ता अशुतोष राघव कहते हैं—“हरियाणा सरकार की यह परिभाषा भूमि डेवलपर्स को लाभ पहुँचाने के लिए है। जबकि जनता को तत्काल ज़रूरत स्पष्ट और लागू होने वाले ड्रेनेज ढाँचे की है। हर मानसून में गुरुग्राम जैसे शहर तालाब बन जाते हैं।”

उनका कहना है कि अनियंत्रित निर्माण, जल चैनलों का सिकुड़ना और तूफ़ानी पानी की निकासी के अपर्याप्त प्रबंध ने गुरुग्राम व आसपास के क्षेत्रों में बाढ़ की स्थिति को और गंभीर बना दिया है।

जलवायु संकट और हरियाणा

हरियाणा देश का सबसे अधिक जलवायु संवेदनशील राज्यों में से एक है। राज्य के 22 जिलों में से 95 प्रतिशत जिलों का ‘उच्च और मध्यम जलवायु जोखिम स्कोर’ है। यहाँ सूखा, असमय वर्षा, ओलावृष्टि और भीषण गर्मी जैसी आपदाएँ बढ़ती जा रही हैं।

फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया (2019) की रिपोर्ट के अनुसार, हरियाणा में कुल वन क्षेत्र मात्र 1602.44 वर्ग किलोमीटर है। इसमें से केवल 28 वर्ग किलोमीटर ‘बहुत सघन’ वन, 450.90 वर्ग किलोमीटर ‘मध्यम सघन’ वन और 1123.54 वर्ग किलोमीटर ‘खुले वन’ हैं। नई परिभाषा से खुले प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र जैसे चट्टानी इलाके, चरागाह और दलदली भूमि भी किसी कानूनी सुरक्षा से बाहर हो जाएँगे।

NCR के लिए खतरे की घंटी

दिल्ली-एनसीआर में रहने वाले नागरिकों के लिए अरावली पहाड़ियाँ न सिर्फ हरियाली बल्कि जीवनरेखा हैं। ये धूल भरी आँधियों को रोकती हैं, भूजल को recharge करती हैं और ‘ग्रीन लंग्स’ का काम करती हैं। पर्यावरणविदों का कहना है कि यदि इन क्षेत्रों को कानूनी सुरक्षा से बाहर कर दिया गया, तो यह न केवल पारिस्थितिकी के लिए बल्कि सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए भी बड़ा संकट होगा।

निष्कर्ष

हरियाणा सरकार की यह नई ‘वन’ परिभाषा संरक्षण की जगह विकास के नाम पर विनाश का रास्ता खोलती दिखाई देती है। जबकि विशेषज्ञ साफ़ कह रहे हैं कि असली प्राथमिकता शहरी नियोजन में जल निकासी प्रणाली को दुरुस्त करना होना चाहिए। गुरुग्राम जैसे शहर जहाँ हर वर्ष बारिश के साथ जलभराव की भयावह तस्वीर सामने आती है, वहाँ एक मज़बूत ड्रेनेज नीति ही सतत विकास की गारंटी बन सकती है।

अगर राज्य सरकार ने पर्यावरणीय यथार्थ और जलवायु जोखिम को नज़रअंदाज़ करते हुए केवल बिल्डर लॉबी को ध्यान में रखकर नीतियाँ बनाई, तो यह न सिर्फ हरियाणा बल्कि पूरे दिल्ली-एनसीआर क्षेत्र के लिए एक गंभीर आपदा का कारण बनेगा।

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