पूनम शर्मा
तमिलनाडु की राजनीति और समाज में एक बड़ा सवाल लंबे समय से गूँज रहा है—क्या मंदिरों के दान और निधि को सरकार अपने हिसाब से इस्तेमाल कर सकती है? इसी सवाल पर शुक्रवार को मद्रास हाईकोर्ट ने तमिलनाडु की डीएमके सरकार को कड़ी फटकार लगाई और मंदिर निधियों को व्यावसायिक उपयोग में लाने की योजना पर रोक लगा दी। अदालत ने साफ कहा कि “मंदिर का धन भगवान का है, इसे किसी भी रूप में ‘सार्वजनिक धन’ नहीं कहा जा सकता।”
मामला क्या है?
डीएमके सरकार ने हाल ही में यह योजना बनाई थी कि मंदिरों में जमा दान और अर्पण से प्राप्त निधि का एक हिस्सा व्यावसायिक गतिविधियों में लगाया जाए, ताकि उसका उपयोग सामाजिक व अन्य सरकारी परियोजनाओं में किया जा सके। सरकार का तर्क था कि मंदिरों के पास बड़ी मात्रा में धन और संपत्ति है, जिनका सही उपयोग कर जनता के लिए विकास कार्य किए जा सकते हैं।
लेकिन इस फैसले के खिलाफ कई याचिकाएँ दायर की गईं। याचिकाकर्ताओं का कहना था कि भक्तों द्वारा भगवान को अर्पित किया गया धन सरकार का नहीं, बल्कि देवता का है। इसे सरकार अपने हिसाब से किसी भी व्यावसायिक परियोजना में इस्तेमाल नहीं कर सकती।
अदालत का तर्क
मुख्य पीठ ने सुनवाई के दौरान स्पष्ट किया कि मंदिरों का धन, चढ़ावा और अर्पण “ट्रस्टीशिप” के सिद्धांत के तहत केवल देवता का होता है। अदालत ने कहा कि मंदिर के प्रबंधन की जिम्मेदारी राज्य के हाथ में हो सकती है, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि सरकार उस धन को अपने उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल कर सके।
अदालत ने टिप्पणी की:
“मंदिर का धन किसी सरकार का नहीं, न ही आम जनता का है। यह धन उस देवता का है, जिसकी मूर्ति के समक्ष भक्तों ने इसे अर्पित किया है। सरकार केवल प्रबंधक है, स्वामी नहीं।”
डीएमके सरकार पर सवाल
तमिलनाडु की डीएमके सरकार पर लंबे समय से आरोप लगते रहे हैं कि वह हिंदू मंदिरों की संपत्ति और निधियों का मनमाना उपयोग करती है। विपक्ष का आरोप है कि सरकार एक ओर तो मंदिरों को अपने नियंत्रण में रखती है, लेकिन मस्जिदों और चर्चों की संपत्ति में हस्तक्षेप नहीं करती।
भाजपा और अन्य हिंदू संगठनों ने भी इस मुद्दे पर सरकार को घेरा और कहा कि यह धार्मिक असमानता और पक्षपात का मामला है। भाजपा नेताओं ने इसे “हिंदू आस्था पर सीधा हमला” बताया।
भक्तों की भावनाओं का सवाल
मंदिरों में दिया गया चढ़ावा भक्तों की श्रद्धा और विश्वास का प्रतीक माना जाता है। भक्त इसे भगवान को अर्पित करते हैं, न कि सरकार को। अदालत ने भी इस भावनात्मक पहलू पर जोर देते हुए कहा कि यदि मंदिरों के धन का व्यावसायिक उपयोग किया गया, तो यह भक्तों की धार्मिक भावनाओं के साथ अन्याय होगा।
बड़ा संकेत
हाईकोर्ट का यह फैसला केवल तमिलनाडु तक सीमित नहीं है। यह पूरे देश में मंदिर प्रबंधन और धार्मिक निधियों की स्वायत्तता को लेकर चल रही बहस को और गहरा करेगा। कई राज्यों में सरकारें मंदिरों के प्रशासन पर नियंत्रण रखती हैं, जबकि अन्य धार्मिक स्थलों को स्वतंत्र छोड़ दिया जाता है।
कानूनी विशेषज्ञों का कहना है कि यह आदेश आने वाले समय में देशभर में एक नजीर बन सकता है और मंदिर प्रबंधन को सरकार के प्रभाव से मुक्त कराने की माँग और तेज होगी।
नतीजा
मद्रास हाईकोर्ट का यह फैसला डीएमके सरकार के लिए बड़ा झटका है और भक्तों के लिए राहत की खबर। अदालत ने साफ कर दिया कि मंदिरों की निधि को किसी भी हालत में सरकारी परियोजनाओं या व्यावसायिक कार्यों में नहीं लगाया जा सकता।
यह मामला केवल “धन” का नहीं, बल्कि “धर्म” और “आस्था” का भी है। भक्तों की नजर में मंदिर का हर रुपया भगवान का है और अदालत ने उसी सच्चाई को एक बार फिर दोहरा दिया है।