समग्र समाचार सेवा
नई दिल्ली, 26 अगस्त -राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के शताब्दी वर्ष के अवसर पर दिल्ली के विज्ञान भवन में आयोजित तीन दिवसीय व्याख्यानमाला “100 वर्ष की संघ यात्रा – नए क्षितिज” का शुभारंभ हुआ। पहले दिन संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने विस्तृत संबोधन देते हुए संघ की कार्यपद्धति, विचारधारा और भविष्य की दिशा को रेखांकित किया। उन्होंने कहा कि संघ का निर्माण भारत को केंद्र में रखकर हुआ है और इसकी सार्थकता तभी है जब भारत विश्वगुरु बने।
संघ कार्य और प्रेरणा
डॉ. भागवत ने कहा कि संघ कार्य की प्रेरणा संघ प्रार्थना के अंत में गूंजने वाले शब्द “भारत माता की जय” से मिलती है। संघ की यात्रा एक धीमी और लंबी प्रक्रिया रही है, जो आज भी निरंतर जारी है। उन्होंने बताया कि संघ भले ही हिंदू शब्द का प्रयोग करता है, लेकिन उसका वास्तविक मर्म “वसुधैव कुटुंबकम” में निहित है। संघ गांव, समाज और राष्ट्र को एक इकाई मानकर कार्य करता है और यह कार्य पूरी तरह स्वयंसेवकों द्वारा संचालित होता है।
“कार्यकर्ता स्वयं नए कार्यकर्ताओं को तैयार करते हैं। यही संघ की शक्ति है,” उन्होंने कहा।
समाज तक सही स्वरूप पहुँचाना
इस व्याख्यानमाला के उद्देश्य पर प्रकाश डालते हुए भागवत ने कहा कि समाज में संघ के बारे में सत्य और सही जानकारी पहुंचना आवश्यक है। उन्होंने स्मरण दिलाया कि वर्ष 2018 में भी इसी प्रकार का आयोजन किया गया था। इस बार चार स्थानों पर कार्यक्रम होंगे ताकि व्यापक स्तर पर लोगों तक संघ का स्वरूप पहुँच सके।
उन्होंने राष्ट्र की अवधारणा पर जोर देते हुए कहा, “राष्ट्र की परिभाषा सत्ता पर आधारित नहीं है। हम परतंत्र थे, तब भी राष्ट्र था। अंग्रेज़ी का ‘नेशन’ शब्द स्टेट से जुड़ा है, जबकि भारतीय राष्ट्र सत्ता से परिभाषित नहीं होता।”
स्वतंत्रता आंदोलन और वैचारिक धारा
भागवत ने स्वतंत्रता संग्राम और उसके बाद उभरी विचारधाराओं पर भी प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि 1857 की क्रांति भले असफल रही, लेकिन उसने चेतना जागृत की। इसके बाद यह प्रश्न उठा कि “कुछ मुट्ठीभर लोग हमें कैसे हरा सकते हैं?” इसी आवश्यकता से कांग्रेस का उदय हुआ। हालांकि स्वतंत्रता के बाद वह समाज का वैचारिक प्रबोधन सही रूप में नहीं कर सकी।
उन्होंने स्पष्ट किया कि यह आरोप नहीं बल्कि तथ्य है। स्वतंत्रता के बाद एक धारा ने सामाजिक कुरीतियों के उन्मूलन पर जोर दिया, वहीं दूसरी धारा ने अपने मूल की ओर लौटने की आवश्यकता बताई। स्वामी विवेकानंद और स्वामी दयानंद सरस्वती ने इस विचार को आगे बढ़ाया।
संघ की स्थापना और उद्देश्य
संघ संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार का उल्लेख करते हुए भागवत ने कहा कि उन्होंने देखा कि समाज की बार-बार गुलामी का कारण आंतरिक दोष और बिखराव हैं। इसी समस्या को दूर करने के लिए 1925 में संघ की स्थापना की गई। उनका उद्देश्य संपूर्ण हिंदू समाज का संगठन था।
हिंदू नाम का मर्म और समावेशिता
भागवत ने ‘हिंदू’ शब्द का अर्थ स्पष्ट करते हुए कहा, “हिंदू का अर्थ केवल धार्मिक नहीं है, बल्कि राष्ट्र के प्रति जिम्मेदारी का भाव है। यह नाम दूसरों ने दिया, लेकिन हमारे लिए यह समावेश का प्रतीक है। समावेश की कोई सीमा नहीं होती।”
उन्होंने आगे कहा, “हिंदू का अर्थ है – अपने-अपने मार्ग पर चलो, दूसरे को बदलो मत, उनकी श्रद्धा का सम्मान करो। यही संस्कृति हिंदू है। हिंदू राष्ट्र का अर्थ किसी के विरुद्ध खड़ा होना नहीं, बल्कि सबको साथ लेकर चलना है।”
भारत की समन्वय परंपरा और डीएनए
भारत की एकता और अखंडता पर बोलते हुए उन्होंने कहा कि भारत का स्वभाव संघर्ष नहीं बल्कि समन्वय का है। भारत की शक्ति उसके भूगोल, संसाधनों और आत्मचिंतन की परंपरा में है।
उन्होंने कहा, “40 हजार वर्षों से भारत के लोगों का डीएनए एक ही है। शब्द बदल सकते हैं – कोई खुद को हिंदू कहे, कोई भारतीय, कोई सनातनी – लेकिन इनके पीछे श्रद्धा और भक्ति की भावना एक ही है।”
संघ की कार्यपद्धति और समर्पण
भागवत ने संघ की कार्यप्रणाली पर भी प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि संघ समाज उत्थान के लिए दो मार्ग अपनाता है – पहला, मनुष्य निर्माण और दूसरा, उन्हीं मनुष्यों के माध्यम से समाज कार्य।
“संघ व्यक्तिगत समर्पण पर चलता है, बाहरी संसाधनों पर निर्भर नहीं। ‘गुरु दक्षिणा’ संघ की आत्मा है, जिसके माध्यम से स्वयंसेवक अपनी आस्था व्यक्त करता है,” उन्होंने कहा।
आयोजन में विशिष्ट उपस्थिति
इस अवसर पर संघ के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले, उत्तर क्षेत्र संघचालक पवन जिंदल और दिल्ली प्रांत संघचालक डॉ. अनिल अग्रवाल मंच पर उपस्थित थे। व्याख्यानमाला के पहले दिन सेवानिवृत न्यायाधीश, पूर्व राजनयिक, प्रशासनिक अधिकारी, विदेशी राजनयिक, मीडिया प्रमुख, पूर्व सैनिक अधिकारी और कला एवं खेल जगत से जुड़ी हस्तियां भी उपस्थित रहीं।
निष्कर्ष
डॉ. भागवत ने अंत में कहा कि भारत माता और अपने पूर्वजों को पूजनीय मानना ही हिंदू होने का वास्तविक अर्थ है। “जब हम हिंदू राष्ट्र कहते हैं, तो उसका सत्ता से कोई लेना-देना नहीं है। यह विचार किसी विरोध या प्रतिक्रिया से नहीं, बल्कि समावेशिता और सांस्कृतिक एकता से प्रेरित है।”