पूनम शर्मा
छत्तीसगढ़ के दुर्ग स्टेशन पर केरल की दो ननों और एक स्थानीय आदिवासी महिला की गिरफ्तारी तथा उसके बाद की घटनाएँ एक बार फिर से देश में धर्मांतरण और मिशनरियों की गतिविधियों को लेकर बहस छेड़ गई हैं। मामला केवल तीन महिलाओं की गिरफ्तारी या उन पर लगे आरोपों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह आदिवासी समाज, धार्मिक पहचान, संगठित हिंदू संगठनों की भूमिका और संवैधानिक अधिकारों से जुड़ा हुआ है।
आरोप और घटनाक्रम
25 जुलाई को दुर्ग रेलवे स्टेशन पर बाजरंग दल के सदस्य की शिकायत पर पुलिस ने तीन ननों को हिरासत में लिया। उन पर आरोप था कि वे नारायणपुर की तीन आदिवासी युवतियों को ईसाई धर्म में परिवर्तित कर उन्हें कहीं ले जा रही थीं। बाद में, संबंधित आदिवासी महिलाओं ने इस आरोप से स्पष्ट इनकार किया। उन्होंने कहा कि वे ननों के साथ अपनी इच्छा से थीं और पहले से ही ईसाई धर्म का पालन कर रही हैं।
महिला आयोग में दी गई अर्जी में इन महिलाओं ने गंभीर आरोप लगाए हैं कि स्टेशन पर बाजरंग दल के सदस्यों ने न केवल उनके साथ अभद्र व्यवहार किया बल्कि जातिसूचक टिप्पणियाँ और शारीरिक छेड़छाड़ तक की। अब मामला केवल धर्मांतरण का नहीं, बल्कि महिला सुरक्षा और सांप्रदायिक तनाव का भी हो गया है।
आदिवासी समाज और धर्मांतरण का प्रश्न
भारत के आदिवासी इलाकों में मिशनरियों की सक्रियता कोई नई बात नहीं है। उन्नीसवीं सदी से ही ईसाई मिशनरियाँ शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं के माध्यम से इन क्षेत्रों में पहुँचीं। जहाँ एक ओर मिशनरियों ने दूरस्थ क्षेत्रों में स्कूल और अस्पताल खोलकर सामाजिक सेवा का कार्य किया, वहीं दूसरी ओर उन पर लगातार यह आरोप भी लगे कि वे सेवा को धर्मांतरण के साधन के रूप में इस्तेमाल करती हैं।
आदिवासी समाज पारंपरिक रूप से प्रकृति-पूजक और विशिष्ट धार्मिक परंपराओं का पालन करने वाला रहा है। मिशनरियों की सक्रियता ने कई जगह उनकी सांस्कृतिक अस्मिता को चुनौती दी। नतीजतन, कुछ हिस्सों में आदिवासी आबादी का एक बड़ा हिस्सा ईसाई धर्म अपनाने लगा। यह परिवर्तन हमेशा स्वेच्छा से हुआ या दबाव और लालच के माध्यम से, इस पर गहन विवाद चलता आया है।
कानूनी और संवैधानिक पहलू
भारत का संविधान धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार देता है। कोई भी नागरिक अपनी इच्छा से किसी भी धर्म को मान सकता है, बदल सकता है या प्रचार कर सकता है। लेकिन यही अधिकार तब विवाद का कारण बन जाता है जब ‘स्वेच्छा’ और ‘प्रलोभन’ के बीच की रेखा धुंधली हो जाती है। कई राज्यों, जिनमें छत्तीसगढ़ भी शामिल है, ने धर्मांतरण विरोधी कानून बनाए हैं। इन कानूनों के तहत यदि कोई व्यक्ति बलपूर्वक, धोखे या लालच देकर धर्मांतरण कराता है तो वह अपराध माना जाएगा।
दुर्ग का मामला इसी कानूनी दायरे में अटका हुआ है। यदि महिलाएँ अपनी इच्छा से ननों के साथ थीं और पहले से ईसाई धर्म मान रही थीं तो उन पर ‘धर्मांतरण’ का आरोप टिकता नहीं। लेकिन यदि समाज के संगठित समूहों को लगता है कि यह धार्मिक पहचान पर सुनियोजित हस्तक्षेप है, तो वे विरोध दर्ज कराते हैं।
मिशनरियों की दोहरी छवि
यहाँ मिशनरियों की भूमिका को दो स्तरों पर समझना होगा। पहला, सामाजिक सेवा— शिक्षा, स्वास्थ्य और जनकल्याण के क्षेत्र में उनका योगदान असंदिग्ध है। देश के कई पिछड़े इलाकों में जहाँ सरकारी तंत्र नहीं पहुँच पाया, वहाँ मिशनरियों ने स्कूल, अनाथालय और अस्पताल चलाए।
दूसरा, धार्मिक विस्तार— सेवा के साथ-साथ मिशनरियों ने ईसाई धर्म का प्रचार भी किया। यही बिंदु विवाद का केंद्र बनता है। आलोचकों का मानना है कि जब शिक्षा और स्वास्थ्य को धर्मांतरण के साधन के रूप में इस्तेमाल किया जाता है, तो यह एक प्रकार का ‘छिपा हुआ दबाव’ है। वहीं समर्थकों का कहना है कि धर्मांतरण स्वेच्छा से होता है और व्यक्ति को अपने विश्वास चुनने का अधिकार है।
हिंदू संगठनों की प्रतिक्रिया
बजरंग दल और ऐसे ही अन्य संगठनों का तर्क है कि मिशनरियों की गतिविधियाँ आदिवासी समाज की जड़ों को काट रही हैं। उनका कहना है कि यह सांस्कृतिक आक्रमण है, जिसका प्रतिकार आवश्यक है। यही वजह है कि अक्सर ऐसे मामलों में टकराव देखने को मिलता है। लेकिन जब यह प्रतिकार हिंसा, बदसलूकी या महिला उत्पीड़न में बदल जाता है, तो उसका औचित्य कमजोर हो जाता है। दुर्ग मामले में यही विवाद गहरा हुआ है।
व्यापक असर और राजनीति
इस प्रकरण का असर केवल छत्तीसगढ़ तक सीमित नहीं रहा। केरल के राजनीतिक दलों ने ननों की गिरफ्तारी पर कड़ा विरोध जताया और इसे ईसाई समुदाय के खिलाफ भेदभाव बताया। वहीं छत्तीसगढ़ में यह मामला आदिवासी समाज की अस्मिता और धार्मिक स्वतंत्रता के बीच फँस गया।
भारतीय राजनीति में धर्मांतरण का प्रश्न हमेशा ध्रुवीकरण का कारण बनता रहा है। एक ओर इसे धार्मिक स्वतंत्रता और मानवाधिकार का मामला बताया जाता है, तो दूसरी ओर इसे सांस्कृतिक आक्रमण और विदेशी एजेंडे का हिस्सा कहा जाता है।
निष्कर्ष
दुर्ग की घटना ने स्पष्ट किया है कि धर्मांतरण का प्रश्न केवल धार्मिक स्वतंत्रता का मुद्दा नहीं है, बल्कि यह सांस्कृतिक पहचान, सामाजिक संतुलन और राजनीतिक टकराव का भी विषय है। मिशनरियों की सेवा और धर्मांतरण की गतिविधियाँ आपस में गुँथी हुई हैं, जिन्हें अलग करना आसान नहीं।
आदिवासी समाज की अस्मिता को सुरक्षित रखते हुए, उन्हें शिक्षा और स्वास्थ्य की सुविधाएँ उपलब्ध कराना आवश्यक है। लेकिन यह भी सुनिश्चित होना चाहिए कि किसी पर भी दबाव, लालच या भय का उपयोग कर धर्म परिवर्तन न कराया जाए। वहीं संगठित प्रतिकार भी कानून और संवैधानिक मर्यादाओं के भीतर होना चाहिए।
भारत जैसे बहुधार्मिक समाज में संतुलन बनाए रखना कठिन है, लेकिन यही लोकतंत्र की सबसे बड़ी चुनौती और परीक्षा भी है। दुर्ग प्रकरण ने यह संदेश दिया है कि धर्मांतरण के सवाल पर हमें भावनात्मक प्रतिक्रिया के बजाय ठोस संवैधानिक और सामाजिक समाधान की तलाश करनी होगी।