पूनम शर्मा
भारत में लोकतंत्र की मजबूती के लिए शोध संस्थानों की भूमिका बेहद अहम मानी जाती है। चुनावी रुझान, सामाजिक बदलाव और मतदाता व्यवहार का अध्ययन करना लोकतंत्र के स्वास्थ्य का आईना होना चाहिए। लेकिन जब यही संस्थान अपने मूल उद्देश्य से भटककर राजनीतिक दलों के प्रचार-प्रसार का औजार बनने लगें, तब सवाल उठना स्वाभाविक है। सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (CSDS) और इसके प्रोफेसर संजय कुमार का हालिया विवाद इसी दिशा में संकेत देता है।
सीएसडीएस की असली पहचान
सीएसडीएस कोई निजी संस्था नहीं, बल्कि एक स्वायत्त सरकारी अनुसंधान संस्थान है। इसकी स्थापना 1963 में प्रख्यात चिंतक राजनी कोठारी ने की थी। यह संस्थान भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद (ICSSR) के अधीन कार्य करता है। संसद में 2023 में दिए गए एक जवाब के अनुसार, 2021 से 2023 के बीच सीएसडीएस को 13 करोड़ रुपये का सरकारी अनुदान मिला, और इसके कुल बजट का लगभग 67% हिस्सा शिक्षा मंत्रालय से आता है।
यानी यह संस्था सीधे-सीधे भारत सरकार के पैसे से चलती है। ऐसे में यह अपेक्षा की जाती है कि इसके शोध निष्पक्ष, वस्तुनिष्ठ और राष्ट्रहित में हों। लेकिन विडंबना यह है कि पिछले कुछ वर्षों में इस संस्थान का चेहरा एक “पॉलिटिकल टूल” की तरह उभरकर सामने आया है।
विवादित सर्वे और संजय कुमार की भूमिका
सीएसडीएस के प्रोफेसर संजय कुमार अक्सर टीवी चैनलों पर “चुनावी डेटा” लेकर उपस्थित रहते हैं। चुनावी मौसम आते ही इनके सर्वे, एक्ज़िट पोल और जातिगत समीकरणों के विश्लेषण मीडिया में छा जाते हैं। लेकिन इन आंकड़ों की सटीकता पर बार-बार सवाल उठे हैं।
कहा जाता है कि संजय कुमार की विशेषता है हिंदू मतदाताओं को जातियों में विभाजित कर आंकड़े प्रस्तुत करना। जैसे— कितने प्रतिशत यादव फलां पार्टी को, कितने प्रतिशत ब्राह्मण फलां पार्टी को वोट देंगे। इसके विपरीत, मुस्लिम वोट को “एकमुश्त” कांग्रेस या विपक्ष की झोली में डालने का नैरेटिव गढ़ा जाता है। इस तरह का प्रस्तुतीकरण आम मतदाता पर मानसिक प्रभाव डालने और चुनावी हवा बनाने के लिए किया जाता है।
इतना ही नहीं, महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा चुनावों में फर्जी डेटा तैयार करने के आरोप लगने पर संजय कुमार को माफी मांगनी पड़ी थी। बावजूद इसके, उन्हें बार-बार टीवी चैनलों और मीडिया प्लेटफॉर्म पर जगह दी जाती रही।
कांग्रेस और विदेशी फंडिंग का खेल
सीएसडीएस का नाम कई बार फोर्ड फाउंडेशन जैसी विदेशी संस्थाओं से फंडिंग लेने के आरोपों में भी घिरा है। यह भी कहा जाता है कि किसान नेता योगेंद्र यादव जैसे चेहरे इसी संस्थान की देन हैं। आलोचकों का मानना है कि सीएसडीएस की पूरी कार्यप्रणाली कांग्रेस और वामपंथी विचारधारा के प्रचार से प्रेरित है।
दरअसल, यही कारण है कि चुनावी मौसम में सीएसडीएस के सर्वे कांग्रेस के अनुकूल नैरेटिव खड़ा करते नज़र आते हैं। इससे आम मतदाता के बीच “मनोवैज्ञानिक दबाव” बनाने का प्रयास होता है कि चुनाव का रुख पहले से तय है।
शो कॉज़ नोटिस और सरकार की जिम्मेदारी
हाल ही में आईसीएसएसआर ने संजय कुमार को डेटा मैनिपुलेशन के आरोपों पर शो कॉज़ नोटिस जारी किया। लेकिन सवाल है कि क्या सिर्फ नोटिस देना पर्याप्त है? जब एक सरकारी अनुदानित संस्था के प्रोफेसर पर फर्जी डेटा, राजनीतिक प्रचार और राष्ट्रविरोधी गतिविधियों का आरोप लगे, तो क्या केवल चेतावनी से बात खत्म हो जानी चाहिए?
यहाँ जिम्मेदारी मोदी सरकार की भी बनती है। आखिर जब केंद्र सरकार जानती है कि एक संस्थान उसके पैसे से चलकर विपक्षी दल और विदेशी शक्तियों का औजार बन रहा है, तब कार्रवाई क्यों नहीं होती?
राहुल गांधी का विवाद और ‘डेटा पॉलिटिक्स’
राहुल गांधी ने हाल ही में “वोट चोरी” का मुद्दा उठाकर जिस तरह देश की छवि अंतरराष्ट्रीय मंच पर खराब की, उसके पीछे भी इन्हीं संदिग्ध डेटा रिपोर्टों की भूमिका मानी जा रही है। राहुल का राजनीतिक भविष्य भले ही मज़ाक का विषय बन गया हो, लेकिन उनकी बयानबाज़ी से भारत की लोकतांत्रिक साख को ठेस पहुंचती है। सवाल है कि क्या इस तरह की झूठी थ्योरी गढ़ने में सीएसडीएस जैसे संस्थान सहयोगी नहीं हैं?
बड़ा सवाल – कब होगी सख्त कार्रवाई?
आज जब राष्ट्रहित के खिलाफ काम करने वाले एनजीओ और विदेशी फंडिंग से जुड़े संगठनों पर कार्रवाई हो रही है, तब एक सरकारी अनुदानित संस्थान पर इतनी नरमी क्यों? यदि संजय कुमार और उनके साथियों ने वास्तव में डेटा में हेराफेरी कर चुनावी माहौल को प्रभावित किया है, तो सिर्फ शो कॉज़ नोटिस नहीं बल्कि एफआईआर दर्ज कर कठोर जांच होनी चाहिए।
इस पूरे प्रकरण से दो बातें साफ होती हैं—
भारत के लोकतंत्र में डेटा पॉलिटिक्स अब एक बड़ा हथियार बन चुकी है। सरकार की लापरवाही से ऐसे संस्थानों को खुला मैदान मिल रहा है।
निष्कर्ष
सीएसडीएस और संजय कुमार का मामला केवल एक व्यक्ति या संस्थान तक सीमित नहीं है, बल्कि यह हमारे लोकतंत्र की बुनियाद से जुड़ा प्रश्न है। जब सरकारी पैसे से चलने वाला संस्थान राजनीतिक दलों का प्रचार-प्रसार करने लगे, तब यह केवल “अनुशासनहीनता” नहीं बल्कि राष्ट्रविरोधी गतिविधि मानी जानी चाहिए।
मोदी सरकार को चाहिए कि वह इस मामले में कठोर कदम उठाए और यह सुनिश्चित करे कि सरकारी अनुदानित संस्थान राष्ट्रहित के खिलाफ नहीं बल्कि उसके पक्ष में काम करें। अन्यथा, ऐसे संस्थान लोकतंत्र की मूल आत्मा— जनविश्वास— को कमजोर करते रहेंगे।