धर्मांतरण का सवाल: सहिष्णुता के दावे और जमीनी हकीकत

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पूनम शर्मा
हाल ही में इंडिया टुडे में वरिष्ठ पत्रकार राजदीप सरदेसाई ने एक लेख में छत्तीसगढ़ में केरल मूल की दो ईसाई ननों की गिरफ्तारी का ज़िक्र करते हुए हिंदू संगठनों पर धार्मिक पक्षपात और भय का माहौल बनाने का आरोप लगाया। उन्होंने यह भी लिखा कि कैसे ईसाई और मुस्लिम समुदाय, खासकर आदिवासी इलाकों में, हिंदुत्व संगठनों से डरते हैं और “घर वापसी” अभियानों का शिकार होते हैं।

लेकिन यहाँ  एक बुनियादी सवाल उठता है — यदि ईसाई और मुस्लिम समुदाय अपने को इतना सहिष्णु और शांतिप्रिय बताते हैं, तो उनके धर्म में धर्मांतरण की व्यवस्था क्यों है? हिंदू धर्म में ऐसा कोई संगठित धर्मांतरण कार्यक्रम नहीं है। न कोई प्रचारक दल, न घर-घर जाकर लोगों को धर्म बदलने का आग्रह। इसके बावजूद हिंदू समाज पर “असहिष्णुता” का ठप्पा लगाया जाता है, जबकि बड़े पैमाने पर धर्मांतरण के मामले ईसाई और मुस्लिम मिशनरियों से जुड़े मिलते हैं।

धर्मांतरण और जनसंख्या वृद्धि का सवाल

ईसाई मिशनरी और इस्लामी प्रचार संगठन दशकों से भारत में सक्रिय हैं। आंकड़े बताते हैं कि कई क्षेत्रों में ईसाई जनसंख्या में तेज़ी से वृद्धि हुई है, खासकर उत्तर-पूर्व और आदिवासी बहुल इलाकों में। यह वृद्धि केवल जन्म दर के कारण नहीं, बल्कि बड़े पैमाने पर धर्मांतरण की वजह से भी है। मिशनरी संगठन शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा और आर्थिक मदद के नाम पर गरीब और अशिक्षित वर्गों को प्रभावित करते हैं। कई मामलों में लालच, भय या सामाजिक दबाव के जरिए धर्म परिवर्तन कराया जाता है।

धर्मांतरण के ऐसे उदाहरण देशभर में बिखरे पड़े हैं — छत्तीसगढ़, झारखंड, ओडिशा, असम, अरुणाचल, मिज़ोरम, मेघालय, मणिपुर और यहां तक कि केरल व तमिलनाडु के ग्रामीण इलाकों में। यह कोई काल्पनिक आरोप नहीं, बल्कि अदालतों में दर्ज मुकदमों, स्थानीय प्रशासनिक जांचों और मीडिया रिपोर्ट्स में बार-बार सामने आया सच है।

संविधान और धर्म की स्वतंत्रता

भारत का संविधान हर नागरिक को अपने धर्म का पालन, प्रचार और परिवर्तन करने की स्वतंत्रता देता है। लेकिन इस अधिकार का अर्थ यह नहीं कि किसी की आर्थिक, सामाजिक या मानसिक स्थिति का फायदा उठाकर उसे धर्म बदलने पर मजबूर किया जाए।

संविधान यह भी कहता है कि किसी व्यक्ति को “बलपूर्वक, छल, या प्रलोभन” के जरिए धर्म परिवर्तन नहीं कराया जा सकता। यही वजह है कि कई राज्यों ने धर्मांतरण-निरोधक कानून बनाए हैं। इसके बावजूद, धार्मिक प्रचार के नाम पर कई संगठन इन कानूनों की अनदेखी करते हैं।

क्या यह धार्मिक विद्वेष है?

जब हिंदू संगठन धर्मांतरण का विरोध करते हैं, तो इसे “धार्मिक कट्टरता” या “अल्पसंख्यक विरोध” का नाम दे दिया जाता है। जबकि असल में यह धार्मिक विद्वेष का मामला नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और जनसंख्या संतुलन का सवाल है।

हिंदू संगठनों का तर्क है कि यदि ईसाई और मुस्लिम समुदाय वास्तव में सहिष्णु हैं, तो उन्हें किसी का धर्म बदलने की आवश्यकता क्यों पड़ती है? क्या अपने धर्म की महानता को दिखाने के लिए दूसरे धर्म को घटाना जरूरी है? यह सवाल सिर्फ हिंदू समाज का नहीं, बल्कि किसी भी सभ्य समाज का होना चाहिए।

संगठित धर्मांतरण की रणनीति

ईसाई मिशनरी संगठनों के पास धर्म प्रचार और धर्मांतरण के लिए अंतरराष्ट्रीय फंडिंग, प्रशिक्षित कार्यकर्ता और लंबी अवधि की योजनाएं होती हैं। वे गरीब बस्तियों, आदिवासी इलाकों और पिछड़े वर्गों में शिक्षा, दवा, कपड़े और आर्थिक सहायता के जरिए पहुंच बनाते हैं। शुरुआत में यह मदद मानवीय सेवा लगती है, लेकिन धीरे-धीरे इसमें धार्मिक शर्तें जुड़ जाती हैं।

कई जगहों पर चर्च से मिलने वाली सहायता के लिए ईसाई धर्म अपनाना अनिवार्य कर दिया जाता है। बच्चों को चर्च आधारित स्कूलों में शिक्षा दी जाती है, जहां धार्मिक पाठ पढ़ाए जाते हैं। इस तरह, आने वाली पीढ़ी स्वाभाविक रूप से नए धर्म में ढल जाती है।

घर वापसी बनाम धर्मांतरण

हिंदू संगठनों द्वारा चलाए जाने वाले “घर वापसी” कार्यक्रमों की आलोचना अक्सर होती है। लेकिन यहां ध्यान देना होगा कि घर वापसी मूल रूप से उन लोगों के लिए होती है जो पहले हिंदू थे और बाद में धर्मांतरण के जरिए किसी अन्य धर्म में चले गए। इसे हिंदू संगठनों “वापसी” कहते हैं, न कि “नया धर्म अपनाना”।

दूसरी ओर, मिशनरी धर्मांतरण पूरी तरह से नए अनुयायी जोड़ने की प्रक्रिया है, जिसमें मूल धर्म से कोई जुड़ाव जरूरी नहीं होता। यही कारण है कि हिंदू संगठनों और मिशनरियों की गतिविधियों की प्रकृति और उद्देश्य में मूलभूत अंतर है।

निष्कर्ष

राजदीप सरदेसाई जैसे पत्रकार जब केवल एकतरफा घटनाओं को दिखाकर हिंदू संगठनों पर उंगली उठाते हैं, तो वे समस्या की जड़ को नजरअंदाज कर देते हैं। सवाल यह नहीं कि कौन किस धर्म में विश्वास रखता है — सवाल यह है कि क्या किसी को लालच, भय या छल से धर्म बदलने का अधिकार है?

यदि ईसाई और मुस्लिम संगठन धर्मांतरण का सिलसिला रोक दें, तो हिंदू संगठनों और अल्पसंख्यक समुदायों के बीच टकराव का बड़ा कारण अपने आप खत्म हो जाएगा। सहिष्णुता का असली प्रमाण यही होगा कि हर धर्म अपने अनुयायियों को मजबूती से जोड़े, लेकिन किसी और के अनुयायियों को हथियाने की कोशिश न करे।

भारत की एकता और सांस्कृतिक विविधता तभी सुरक्षित रह सकती है जब धर्म स्वतंत्रता का मतलब केवल अपने धर्म का पालन हो, न कि दूसरों को बदलने का अभियान। तभी हम संविधान की भावना के अनुसार एक सच्चे, समान और सहिष्णु समाज की ओर बढ़ सकेंगे।

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