म्यांमार: लोकतंत्र बनाम सैन्य तानाशाही की जंग स्वतंत्रता के बाद से सत्ता संघर्ष
स्वतंत्रता के बाद से सत्ता संघर्ष
पूनम शर्मा
1948 में ब्रिटेन से स्वतंत्रता प्राप्त करने के बाद म्यांमार में सत्ता को लेकर लोकतांत्रिक ताक़तों और सैन्य जुंटा के बीच संघर्ष लगातार जारी रहा है। यह संघर्ष समय-समय पर खुली राजनीतिक टकराहट और तख़्तापलट के रूप में सामने आया है।
1962 का सैन्य तख़्तापलट और अधिनायकवाद
1962 में जनरल ने विन के नेतृत्व में सेना ने चुनी हुई नागरिक सरकार को हटाकर एक कठोर अधिनायकवादी शासन स्थापित किया। लोकतांत्रिक भावनाओं के बढ़ते दबाव को देखते हुए सेना ने 1990 में बहुदलीय चुनाव कराए, जिसमें आंग सान सू ची की पार्टी नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी (एनएलडी) ने भारी जीत दर्ज की।
लोकतंत्र की जीत लेकिन सेना का इंकार
1990 के चुनाव परिणामों को सेना ने न मानते हुए उन्हें रद्द कर दिया, विपक्षी नेताओं को गिरफ्तार कर लिया और आंग सान सू ची को नजरबंद कर दिया गया। लगभग दो दशकों तक वह घर में कैद रहीं। अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों और जनता के बढ़ते आक्रोश ने सेना को 2007 में नागरिक शासन की दिशा में कदम बढ़ाने को मजबूर किया।
2015 और 2020 में फिर से एनएलडी की वापसी
2015 और 2020 के चुनावों में एनएलडी ने एक बार फिर भारी जीत हासिल की। लेकिन लोकतांत्रिक ताक़तों की यह सफलता सेना को रास नहीं आई। फरवरी 2021 में सेना ने एक और तख़्तापलट कर सत्ता पर कब्ज़ा कर लिया।
जनता का सशक्त प्रतिरोध
इस बार हालात अलग थे। जनता ने तख़्तापलट का विरोध शांतिपूर्ण प्रदर्शनों और संगठित सशस्त्र प्रतिरोध दोनों रूपों में किया। नतीजतन, सेना को देश के बड़े हिस्सों से पीछे हटना पड़ा। पिछले वर्ष की राष्ट्रीय जनगणना में जुंटा केवल 330 में से 145 टाउनशिप में ही गिनती करा पाई, जो सेना के घटते नियंत्रण का स्पष्ट संकेत है।
अंतरराष्ट्रीय दबाव और राजनीतिक ‘नाटक’
सैन्य हार और अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों के चलते जुंटा ने आपातकाल खत्म करने और सत्ता को नागरिक नेतृत्व वाले अंतरिम सरकार को सौंपने का ऐलान किया। लेकिन वास्तविकता में सत्ता अभी भी जुंटा प्रमुख मिन आंग ह्लाइंग के हाथों में ही केंद्रित है, जो कार्यवाहक राष्ट्रपति होने के साथ-साथ सेना के सर्वोच्च कमांडर भी बने हुए हैं।
लोकतंत्र का दिखावा
घोषित चुनावों में न तो एनएलडी और न ही तख़्तापलट से पहले सक्रिय कोई अन्य राजनीतिक दल भाग ले पाएगा। चुनाव केवल सेना के समर्थन वाले दलों तक सीमित रहेंगे, जिससे इसका परिणाम पहले से तय माना जा रहा है।
दुनिया की संशय भरी नज़र
आपातकाल हटाने की घोषणा को अंतरराष्ट्रीय समुदाय संदेह की दृष्टि से देख रहा है। यह कदम लोकतंत्र की बहाली से अधिक सत्ता पर सेना की पकड़ मजबूत करने का प्रयास प्रतीत होता है। मिन आंग ह्लाइंग अभी भी सभी प्रमुख निर्णयों और संस्थानों पर नियंत्रण बनाए हुए हैं।
आवश्यक है सतत दबाव
अंतरराष्ट्रीय समुदाय को इस तथाकथित राजनीतिक संक्रमण को वास्तविक सुधार मानने की भूल नहीं करनी चाहिए। आर्थिक प्रतिबंध, कूटनीतिक दबाव और मानवीय सहायता के जरिये म्यांमार की जनता के लोकतांत्रिक अधिकारों की बहाली के लिए समर्थन जारी रहना चाहिए।
जनता की अडिग आकांक्षा
म्यांमार की कहानी केवल सत्ता संघर्ष की नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक स्वतंत्रता के लिए जनता की अडिग इच्छा की कहानी है। चाहे सेना कितनी भी बार तख़्तापलट करे, लेकिन जनता के मन में लोकतंत्र का सपना हमेशा जीवित रहेगा।