समग्र समाचार सेवा
गुवाहाटी, 12 अगस्त — सोमवार को असम में ऑल असम माइनॉरिटी स्टूडेंट्स यूनियन (AAMSU) के बड़े प्रदर्शन ने एक नया विवाद खड़ा कर दिया है। राज्य के कुछ मीडिया संस्थानों ने इसे “इतिहास का सबसे बड़ा प्रदर्शन” बताते हुए ऐसी हेडलाइनें दीं — “मुसलमानों के प्रदर्शन से राज्य हिल गया”, “मुसलमानों ने हाइवे हिला दिया” — जिन पर असमिया राष्ट्रवादी संगठनों और बुद्धिजीवियों ने कड़ी आपत्ति जताई है। उनका आरोप है कि मीडिया का एक वर्ग ऐसे संगठन को महिमामंडित कर रहा है जो असमिया अस्मिता के विरुद्ध खड़ा है।
रिपोर्ट्स के मुताबिक, AAMSU ने सोमवार को बड़े पैमाने पर हाईवे पर रैली की, जिसमें हजारों लोग शामिल हुए। लेकिन जिस अंदाज़ में कुछ मीडिया पोर्टल और टीवी चैनलों ने इस रैली को कवर किया, उसने सवाल खड़े कर दिए हैं कि क्या यह महज़ रिपोर्टिंग थी या किसी एजेंडे के तहत प्रचार।
असमिया अस्मिता और अस्तित्व का सवाल
असमिया संगठनों का कहना है कि मुद्दा सिर्फ़ एक प्रदर्शन का नहीं, बल्कि उसकी प्रस्तुति का है। “जब मीडिया किसी रैली को ‘इतिहास का सबसे बड़ा प्रदर्शन’ कहता है, तो यह असम के राजनीतिक इतिहास को बदलने जैसा है,” एक वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता ने कहा। उन्होंने याद दिलाया कि असम आंदोलन के दिनों में ऐसे विशाल प्रदर्शन हुए थे, जिनमें 855 असमिया शहीद हुए थे।
पिछले कुछ महीनों में नागांव सहित कई इलाकों में असमियों पर हमलों और हत्याओं की खबरों ने चिंता बढ़ा दी है। असमिया समूहों का आरोप है कि AAMSU के साथ-साथ कुछ मीडिया संस्थान भी एक ‘माइनॉरिटी सेंट्रिक’ राजनीतिक नैरेटिव को आगे बढ़ा रहे हैं, जो असमिया अधिकारों के खिलाफ है।
AAMSU का इतिहास और भूमिका
ऑल असम माइनॉरिटी स्टूडेंट्स यूनियन की स्थापना 1980 में असम आंदोलन के दौर में हुई थी। जहां ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन (AASU) अवैध घुसपैठ के खिलाफ और असमिया अस्मिता की रक्षा के लिए लड़ रहा था, वहीं AAMSU प्रवासी मूल के मुस्लिम समुदाय, खासकर निचले और मध्य असम में बसे लोगों का प्रतिनिधि संगठन बनकर उभरा।
पिछले दशकों में AAMSU ने NRC और नागरिकता संशोधन अधिनियम (CAA) जैसे मुद्दों का विरोध किया है और कई बार वामपंथी तथा अल्पसंख्यक संगठनों के साथ मंच साझा किया है। आलोचकों का कहना है कि इसका राजनीतिक रुख असमिया स्वाभिमान और अस्तित्व की लड़ाई को कमजोर करता है।
मीडिया की भूमिका पर सवाल
इस प्रदर्शन की कवरेज ने एक बार फिर असम में मीडिया की निष्पक्षता पर बहस छेड़ दी है। “पत्रकार का काम तथ्यों को निष्पक्षता से पेश करना है। लेकिन जब एंकर ऐसी हेडलाइन चिल्लाते हैं जो बांग्लादेश या पाकिस्तान के किसी न्यूज़ चैनल जैसी लगती हैं, तो यह गंभीर चिंता का विषय है,” गुवाहाटी विश्वविद्यालय के एक सेवानिवृत्त प्राध्यापक ने कहा।
आलोचकों का तर्क है कि हर समुदाय को विरोध का अधिकार है, लेकिन एक समुदाय के आंदोलन को इस तरह प्रस्तुत करना जिससे स्थानीय असमिया संघर्ष की अनदेखी हो, समाज को बांटने का काम करता है। उन्होंने कहा कि ऐसी प्रस्तुति ऐतिहासिक क्षणों — जैसे असम आंदोलन के दौरान नारेंगी ऑयल रिफाइनरी का घेराव या नागांव में तत्कालीन कांग्रेस नेता देवकांत बरुआ के आवास की 24×7 घेराबंदी — को भुलाने की कोशिश है।
तनाव बढ़ने की आशंका
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि अगर इस तरह का भड़काऊ नैरेटिव चलता रहा तो हालात और बिगड़ सकते हैं। ऊपरी असम में असमिया राष्ट्रवादी भावना पहले से ही उफान पर है। “अगर मध्य असम का असमिया बहुल इलाका भी सड़कों पर उतर आया, तो राज्य फिर से बड़े जनआंदोलन का गवाह बन सकता है,” एक पर्यवेक्षक ने चेतावनी दी।
भावनात्मक माहौल अब भी गहरा है। असम आंदोलन के 855 शहीदों की “कच्चे खून की खुशबू” को आज भी लोग अपने संघर्ष की निशानी मानते हैं। ऐसे में “मुसलमानों ने राज्य हिला दिया” जैसी हेडलाइन को कई लोग महज़ भ्रामक ही नहीं, बल्कि शहीदों की स्मृति के प्रति अपमान भी मानते हैं।
जनता से अपील
असमिया संगठनों ने नागरिकों से अपील की है कि वे इस “पक्षपाती महिमामंडन” के खिलाफ अपनी राय ज़रूर दर्ज करें। सोशल मीडिया पर यह संदेश वायरल हो रहा है कि कम से कम एक वाक्य लिखकर भी इस प्रवृत्ति का विरोध किया जाए।
क्या AAMSU का यह प्रदर्शन दीर्घकालिक राजनीतिक असर डालेगा, यह आने वाला समय बताएगा। लेकिन एक बात साफ है — असम में, जहां इतिहास और अस्मिता गहराई से जुड़ी है, वहां एक हेडलाइन भी नैरेटिव की जंग छेड़ सकती है।