महाराष्ट्र का नया सुरक्षा कानून: शहरी नक्सलियों पर लगाम ?

महाराष्ट्र का विशेष सार्वजनिक सुरक्षा विधेयक: शहरी नक्सलियों पर लगाम

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पूनम शर्मा
महाराष्ट्र सरकार ने मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस के नेतृत्व में विशेष सार्वजनिक सुरक्षा विधेयक, 2024 पारित कर एक बड़ा और विवादास्पद कदम उठाया है। यह कानून सीधे तौर पर “शहरी नक्सलवाद” और “निष्क्रिय उग्रवाद” पर रोक लगाने की मंशा से लाया गया है। सरकार का कहना है कि यह कानून शहरी क्षेत्रों में वामपंथी उग्रवाद के नेटवर्क को तोड़ने के लिए है, लेकिन आलोचकों का मानना है कि इसके अस्पष्ट प्रावधानों का दुरुपयोग करके असहमति की आवाज़ों को दबाया जा सकता है।

एक सीधी चेतावनी

शनिवार को मीडिया से बातचीत करते हुए फडणवीस ने स्पष्ट शब्दों में कहा, “अगर आप शहरी नक्सली जैसा बर्ताव करेंगे, तो गिरफ्तार किए जाएंगे।” यह बयान तब आया जब महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) प्रमुख राज ठाकरे ने मुख्यमंत्री को चुनौती दी कि वह इस कानून के तहत उनके कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार करके दिखाएं।

ठाकरे की यह चुनौती उस बढ़ते राजनीतिक विवाद का हिस्सा है जिसमें विपक्ष और नागरिक समाज के कार्यकर्ता इस कानून को असहमति को कुचलने का औजार बता रहे हैं। उनका तर्क है कि यह पत्रकारों, छात्रों, और एक्टिविस्टों के खिलाफ इस्तेमाल किया जा सकता है जो सरकार की नीतियों की आलोचना करते हैं।

विधेयक में क्या है

विशेष सार्वजनिक सुरक्षा विधेयक, 2024 में सात साल तक की जेल और भारी जुर्माने जैसी कठोर सज़ाएं शामिल हैं। यह उन लोगों को निशाना बनाता है जो वामपंथी उग्रवाद के विचारों को समर्थन, प्रचार या प्रोत्साहन देते हैं। साथ ही यह उन पर भी लागू होगा जो “निष्क्रिय उग्रवाद” में शामिल माने जाएंगे — एक ऐसा शब्द जिसे लेकर कई कानूनी विशेषज्ञों ने चिंता जताई है।

यह विधेयक मानसून सत्र के दौरान पारित किया गया और यह गैरकानूनी गतिविधियाँ रोकथाम अधिनियम (UAPA) जैसे राष्ट्रीय कानूनों के आधार पर बना है, लेकिन इसमें राज्य-विशेष चिंताओं पर भी ध्यान दिया गया है, खासकर उन शहरी बौद्धिक हलकों पर जिन पर सरकार को संदेह है।

असहमति और उग्रवाद के बीच की रेखा

फडणवीस ने कहा कि यह कानून प्रदर्शनकारियों या सरकार के आलोचकों के खिलाफ नहीं है। उन्होंने दावा किया, “यह कानून उन लोगों के खिलाफ नहीं है जो प्रदर्शन करते हैं या आलोचना करते हैं।” हालांकि, “शहरी नक्सली जैसा व्यवहार” करने वालों की गिरफ्तारी की चेतावनी ने आशंकाओं को और बढ़ा दिया है।

कई लेखकों, शिक्षकों, और सामाजिक कार्यकर्ताओं को पहले भी “शहरी नक्सल” कहकर गिरफ्तार किया गया है। ऐसे में यह डर है कि यह कानून सरकार को वैचारिक विरोध को भी अपराध की श्रेणी में लाने की छूट दे देगा।

निष्क्रिय उग्रवाद: एक कानूनी धुंध

इस कानून का सबसे विवादास्पद पहलू “निष्क्रिय उग्रवाद” की अवधारणा है। यह उन लोगों को निशाना बनाता है जो प्रत्यक्ष रूप से हिंसा में शामिल नहीं हैं लेकिन जिन पर उग्रवाद को वैचारिक, वित्तीय या नैतिक समर्थन देने का आरोप लग सकता है।

इसका अर्थ यह हो सकता है कि कोई पत्रकार अगर सरकार की आदिवासी क्षेत्रों में कार्रवाई की आलोचना करता है, या कोई शिक्षक मार्क्सवादी विचार पढ़ाता है, तो उन्हें भी इस कानून के तहत आरोपी बनाया जा सकता है। कानून विशेषज्ञ चेतावनी देते हैं कि ऐसी अस्पष्ट परिभाषाएँ मनमानी गिरफ्तारी का रास्ता खोल सकती हैं।

भाषायी राजनीति की दस्तक

इस कानून के इर्द-गिर्द भाषायी राजनीति भी उभर कर सामने आई है। राज ठाकरे ने आरोप लगाया कि सरकार हिंदी को बढ़ावा दे रही है, जबकि मराठी उपेक्षित हो रही है। इसके जवाब में फडणवीस ने कहा कि महाराष्ट्र में मराठी अनिवार्य है, लेकिन इसके साथ एक अतिरिक्त भारतीय भाषा सीखनी चाहिए — और उन्होंने अंग्रेज़ी को तरजीह देने का विरोध किया।

फडणवीस का यह रुख भाजपा की सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की नीति से मेल खाता है, लेकिन यह मुंबई और पुणे जैसे बहुभाषी शहरों में रहने वाले गैर-मराठी भाषी लोगों के बीच असंतोष भी जगा सकता है।

क्या यह राष्ट्रीय मॉडल बनेगा?

यह भी संभावना जताई जा रही है कि यह कानून भाजपा शासित अन्य राज्यों के लिए एक मॉडल बन सकता है। अगर महाराष्ट्र में इसका क्रियान्वयन बिना ज़्यादा विरोध के हो गया, तो मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश और गुजरात जैसे राज्य भी ऐसे ही कानून ला सकते हैं — जिससे देशभर में असहमति को सुरक्षा के नाम पर दबाने का चलन शुरू हो सकता है।

हालांकि राज्य के ग्रामीण और सीमा क्षेत्रों में उग्रवाद को लेकर वास्तविक चिंताएँ हैं, लेकिन विशेषज्ञ मानते हैं कि शहरी क्षेत्रों में वैचारिक और बौद्धिक संवाद पर ऐसे कानूनों से बुरा असर पड़ सकता है।
भारत जैसे लोकतंत्र में जहाँ सुरक्षा और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बीच संतुलन बनाए रखना चुनौती है, वहां महाराष्ट्र का विशेष सार्वजनिक सुरक्षा विधेयक एक नाजुक मोड़ पर आया है। मुख्यमंत्री फडणवीस की सफाई के बावजूद अब यह राज्य प्रशासन की ज़िम्मेदारी है कि वह इस कानून को पारदर्शिता, संयम और स्पष्टता के साथ लागू करे — नहीं तो यह कानून उन्हीं अधिकारों को कुचल सकता है जिन्हें बचाने का दावा किया जा रहा है।

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