राजनीति या परिवारवाद का अखाड़ा: बिहार में हो रही वोटों की सौदेबाज़ी ?

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पूनम शर्मा
बिहार की राजनीति एक बार फिर अपने सबसे निचले स्तर पर पहुँचती नज़र आ रही है। जहाँ  एक ओर विकास और सुशासन के मुद्दे होने चाहिए, वहीं दूसरी ओर वोटों की चोरी, फर्जी नागरिकता, परिवारवाद और जातीय ध्रुवीकरण जैसे गंभीर आरोपों ने पूरे माहौल को विषाक्त बना दिया है।

फर्जी नागरिकता और अवैध वोटिंग का खुलासा

किशनगंज और दरभंगा जैसे इलाकों में सामने आए मामलों ने यह सवाल खड़ा कर दिया है कि क्या वाकई चुनाव आयोग निष्पक्ष तरीके से अपने कर्तव्यों का निर्वहन कर पा रहा है? कुछ लोगों ने स्वयं स्वीकार किया कि वे भारतीय नागरिक नहीं हैं, फिर भी उनके नाम मतदाता सूची में हैं। क्या ये सिर्फ लापरवाही है या सुनियोजित साजिश? ऐसे में यह चुनाव आयोग की जिम्मेदारी बनती है कि वह हर मतदाता की नागरिकता की जाँच  सुनिश्चित करे।

मुस्लिम वोट बैंक के लिए गिरी राजनीतिक मर्यादा

राहुल गांधी और तेजस्वी यादव पर यह आरोप भी लगे हैं कि वे मुस्लिम वोट बैंक के लालच में हर स्तर पर गिरने को तैयार हैं। यहाँ  तक कि वे यह भी कह रहे हैं कि चुनाव परिणामों से पहले ही EVM में गड़बड़ी हो रही है, जबकि चुनाव आयोग स्पष्ट कर चुका है कि सभी राजनीतिक दलों को मतदाता सूची और EVM डाटा पारदर्शिता से साझा किया गया है। ऐसे निराधार आरोप लोकतंत्र को कमजोर करते हैं और जनता के भरोसे को तोड़ते हैं।

तेजस्वी यादव की ‘90 का दशक’ वापसी की धमकी

तेजस्वी यादव बार-बार 90 के दशक की वापसी की बात करते हैं। लेकिन जनता भलीभांति जानती है कि वो दशक बिहार के लिए अंधकारमय था—बिजली की भारी किल्लत, अपराध का बोलबाला, जातीय टकराव और औद्योगिक पिछड़ापन। क्या सच में बिहार फिर से उसी दौर में लौटना चाहता है? तेजस्वी यादव का यह बयान सिर्फ एक अहंकारी और पिछड़े विचार का प्रतीक है, जिसे बिहार की जनता ने कई बार नकारा है।

राजनीति से अधिक ‘परिवार लिमिटेड कंपनी’

राजद और कांग्रेस जैसी पार्टियों की राजनीति अब लोकतंत्र नहीं, बल्कि निजी कंपनियों की तरह हो चुकी है, जहाँ  ‘बेटा मुख्यमंत्री बनेगा, फिर उसका बेटा’, यही परंपरा है। जनता की सेवा का भाव कम होता जा रहा है, और वंशवादी नेताओं की सत्ता की भूख बढ़ती जा रही है।

तेजस्वी यादव खुद को जनता का प्रतिनिधि बताते हैं, लेकिन जब बात उनके पिता की होती है, जो न्यायपालिका द्वारा दोषी करार दिए गए हैं, तो वे चुप हो जाते हैं। सवाल पूछने पर जवाब मिलता है—”अब कहानी खत्म हो गई है”, लेकिन क्या जनता के सामने जवाबदेही खत्म हो सकती है?

जातीय और धार्मिक ध्रुवीकरण की रणनीति

तेजस्वी यादव का कैडर जातीय आधार पर वोट बटोरने की कोशिश करता है। वे सवर्णों को खुलेआम अपमानित करते हैं, और ब्राह्मणों की उपेक्षा करते हैं। दूसरी ओर, अजय यादव जैसे नेताओं की हत्या पर चुप्पी साध लेते हैं। यह सिर्फ और सिर्फ एकतरफा वोट बटोरने की रणनीति है।

राज्य और कांग्रेस का गठबंधन जिस प्रकार की राजनीति कर रहा है, वह सनातन विरोधी, लोकतंत्र विरोधी और देशविरोधी मानसिकता का प्रतिनिधित्व करता है। इनका मुख्य उद्देश्य सत्ता हथियाना है, चाहे इसके लिए देश की एकता, न्याय व्यवस्था या सामाजिक समरसता को ही क्यों न दांव पर लगाना पड़े।

राहुल गांधी और प्लेबैक राजनीति

राहुल गांधी बार-बार चुनावी प्लेबैक कर रहे हैं। हर चुनाव से पहले EVM पर सवाल, नागरिकता सूची पर शंका और चुनाव आयोग पर आरोप उनके पुराने फॉर्मूले हैं। लेकिन जनता अब समझ चुकी है कि यह सिर्फ एक ढकोसला है, जिसकी कोई बुनियाद नहीं है।

क्या बिहार फिर बहिष्कार की राह पर है?

बढ़ते विवादों के बीच जसवीर यादव जैसे नेता चुनाव बहिष्कार की बात कर रहे हैं। जब लोकतंत्र पर भरोसा खत्म हो जाए, जब चुनाव महज सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का माध्यम बन जाए, और जब राजनीतिक दल जनता की जगह जातियों से संवाद करने लगें—तब बहिष्कार जैसे विचार स्वाभाविक हैं। लेकिन यह खतरनाक संकेत भी है कि हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था संकट में है।
बिहार में जो कुछ हो रहा है वह सिर्फ एक राज्य की चुनावी राजनीति नहीं, बल्कि पूरे भारत के लोकतंत्र पर हमला है। जब वोट की कीमत जाति और धर्म से तय होने लगे, जब फर्जी नागरिक EVM में बटन दबाएं, और जब राजनीतिक दल सिर्फ सत्ता की लालसा में नैतिकता और संवैधानिक मूल्यों को ताक पर रख दें—तब हमें सतर्क हो जाना चाहिए।

अब समय है कि जनता जाति, धर्म, और वंश से ऊपर उठकर सिर्फ और सिर्फ राष्ट्रहित में सोचें। नहीं तो वह दिन दूर नहीं जब बिहार का अतीत उसका भविष्य बन जाएगा।

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