पूनम शर्मा
सुप्रीम कोर्ट द्वारा हाल ही में ‘उदयपुर फाइल्स: कन्हैयालाल टेलर मर्डर’ फिल्म पर की गई सुनवाई ने एक बार फिर यह बहस छेड़ दी है कि क्या भारत की सर्वोच्च न्यायपालिका हिंदू समाज से जुड़े मामलों को लेकर भेदभावपूर्ण रवैया अपनाती है। यह फिल्म कन्हैयालाल नामक दर्जी की निर्मम हत्या पर आधारित है, जिसने पूरे देश को झकझोर दिया था। लेकिन इस पर न्यायिक रुख और ऐसे ही अन्य मामलों में अदालतों की भूमिका को देखने से साफ़ होता है कि हिंदू विषयों पर सुप्रीम कोर्ट ज़्यादा सतर्कता और रोक-टोक दिखाता है, जबकि अन्य समुदायों से जुड़े मुद्दों में वही अदालत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को प्राथमिकता देती है।
‘उदयपुर फाइल्स’ मामला: तथ्य और न्यायिक प्रक्रिया
फिल्म ‘उदयपुर फाइल्स’ 2022 की उस वीभत्स घटना पर आधारित है जिसमें दर्जी कन्हैयालाल की हत्या दो इस्लामिक कट्टरपंथियों ने कर दी थी। आरोपियों ने हत्या का वीडियो भी वायरल किया था।
10 जुलाई 2025 को दिल्ली हाई कोर्ट ने इस फिल्म की रिलीज़ पर यह कहते हुए रोक लगा दी कि इससे सांप्रदायिक सौहार्द बिगड़ सकता है और मुकदमे की निष्पक्षता प्रभावित हो सकती है।
सुप्रीम कोर्ट ने 11 जुलाई की रिलीज़ तारीख से पहले कोई राहत नहीं दी और सरकार द्वारा बनाई गई एक समिति की रिपोर्ट आने तक रुके रहने को कहा।
कोर्ट ने यह भी कहा कि फिल्म निर्माताओं का अभिव्यक्ति का अधिकार (अनुच्छेद 19(1)(a)) आरोपियों के जीवन और प्रतिष्ठा के अधिकार (अनुच्छेद 21) से कमतर है।
अदालत ने आदेश दिया कि यदि फिल्म निर्माताओं को नुकसान होता है तो मुआवजा दिया जा सकता है, लेकिन आरोपियों की छवि को हुए नुकसान की भरपाई नहीं की जा सकती।
यह निर्णय कई लोगों को उन मामलों की याद दिलाता है जहाँ हिंदू परंपराओं, देवी-देवताओं या रीति-रिवाजों पर फिल्में बनीं, और कोर्ट ने रिलीज़ रोकने से मना कर दिया। सवाल यह उठता है कि आखिर क्यों हिंदू भावनाओं की रक्षा में न्यायपालिका इतना अनिच्छुक है?
न्यायिक दोहरे मापदंडों के उदाहरण
1. परंपरागत हिंदू प्रथाओं में हस्तक्षेप
सबरीमला मामला (2018): सुप्रीम कोर्ट ने केरल के सबरीमला मंदिर में 10 से 50 वर्ष की महिलाओं के प्रवेश पर प्रतिबंध को असंवैधानिक बताते हुए समाप्त कर दिया, जबकि यही न्यायालय मस्जिदों और चर्चों में महिला प्रवेश जैसे मुद्दों पर उतनी तत्परता नहीं दिखाता।
मूर्ति अधिकार और मंदिर प्रशासन: हिंदू मंदिरों को ‘कानूनी व्यक्ति’ का दर्जा प्राप्त होने के बावजूद सरकार और अदालतों की ओर से इनके प्रशासन में अत्यधिक हस्तक्षेप होता है। दूसरी ओर, वक्फ बोर्ड और चर्च संपत्तियों पर ऐसा हस्तक्षेप नहीं होता।
2. पर्यावरण और पशु अधिकारों के नाम पर लक्ष्यीकरण
दीवाली में पटाखों पर बैन, जल्लीकट्टू पर प्रतिबंध, होली में पानी की बर्बादी जैसे तर्क अक्सर हिंदू त्योहारों के खिलाफ इस्तेमाल होते हैं, जबकि अन्य समुदायों के आयोजनों पर ऐसी सख्ती कम देखी जाती है।
3. हिंदू पर्सनल लॉ और विवाह कानून में भेदभावपूर्ण रवैया
धारा 9, हिंदू विवाह अधिनियम के तहत ‘वैवाहिक अधिकारों की पुनः स्थापना’ को कोर्ट ने संवैधानिक ठहराया, जबकि मुस्लिम पर्सनल लॉ के कई पहलुओं की वैधता पर उतनी कठोर समीक्षा नहीं हुई।
बिगैमी (एक से अधिक विवाह) हिंदुओं के लिए अपराध है, लेकिन मुस्लिम समुदाय में इसे धार्मिक स्वतंत्रता के नाम पर चुनौती नहीं दी जाती।
अंतरधार्मिक विवाहों में विशेष विवाह अधिनियम (SMA) का पालन करवाने में सुप्रीम कोर्ट अक्सर संकोच करता है, खासकर जब जोड़े हिंदू समुदाय से हों।
4. शिक्षा में अनुच्छेद 30 और RTE अधिनियम का भेदभावपूर्ण प्रयोग
अनुच्छेद 30 के तहत अल्पसंख्यकों को अपने शैक्षणिक संस्थानों पर विशेष अधिकार प्राप्त हैं, जबकि हिंदू संस्थानों को वैसी छूट नहीं मिलती।
RTE अधिनियम के तहत केवल हिंदू संस्थाओं पर 25% आरक्षण लागू होता है, जिससे हजारों गुरुकुल और निजी हिंदू स्कूल बंद हो चुके हैं, जबकि मदरसे और मिशनरी स्कूल छूट पाते हैं।
5. हिंदुओं के विरुद्ध अपराधों में न्यायिक निष्क्रियता
कन्हैयालाल जैसे हत्याकांडों में न्यायिक प्रक्रिया धीमी रहती है, जबकि अल्पसंख्यकों पर मामूली आपत्ति या सोशल मीडिया पोस्ट पर त्वरित संज्ञान लिया जाता है।
अदालतों द्वारा सामूहिक याचिकाओं, स्वतः संज्ञान (suo motu cognizance) जैसी प्रक्रिया अक्सर अल्पसंख्यक मामलों में होती है, हिंदुओं के लिए कम।
6. धर्मनिरपेक्षता और हिंदू धर्म का “Way of Life” कहना
सुप्रीम कोर्ट ने कई बार हिंदू धर्म को ‘जीवन शैली’ बताकर उसे वैसी संवैधानिक सुरक्षा से वंचित किया है जो इस्लाम, ईसाई या अन्य धर्मों को मिली है। इस तर्क से अदालतें हिंदू प्रथाओं को ‘धार्मिक स्वतंत्रता’ की बजाय ‘सामाजिक प्रथा’ मानकर उन्हें आसानी से निरस्त कर देती हैं।
हिंदू मामलों में सक्रियता, बाकी में संवेदनशीलता?
भारत के सुप्रीम कोर्ट द्वारा हिंदू परंपराओं, धर्मस्थलों, शिक्षा और वैवाहिक अधिकारों में जिस तरह से दखल दिया गया है, वह एक विशिष्ट पैटर्न को दर्शाता है—हिंदू से जुड़ी हर प्रथा को ‘सुधार’ के नाम पर चुनौती देना और बाकी समुदायों की परंपराओं को ‘धार्मिक अधिकार’ के रूप में संरक्षित करना।
ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या भारत की सर्वोच्च अदालत वाकई धर्मनिरपेक्षता के आदर्श पर खड़ी है या वह भी राजनीति और दबाव में आकर ‘चुनिंदा न्यायिक सक्रियता’ का हिस्सा बन चुकी है?