पूनम शर्मा
भारत की न्यायिक प्रणाली और राजनीतिक तंत्र अक्सर एक-दूसरे से टकराते दिखाई देते हैं। जब सत्ता, अपराध और न्याय व्यवस्था का संगम होता है, तो यह तय कर पाना मुश्किल हो जाता है कि कौन दोषी है और कौन पीड़ित। हाल के वर्षों में ऐसे कई मामले देखने को मिले हैं जो सिर्फ कानूनी नहीं, बल्कि राजनीतिक रूप से भी अत्यंत महत्वपूर्ण रहे हैं। इनमें तीन नाम प्रमुखता से सामने आते हैं—रॉबर्ट वाड्रा, गांधी परिवार और लालू प्रसाद यादव।
रॉबर्ट वाड्रा का मामला: 2008 से अब तक
रॉबर्ट वाड्रा, जो कांग्रेस पार्टी की वरिष्ठ नेता प्रियंका गांधी के पति हैं, उन पर 2008 में हरियाणा और राजस्थान में अवैध संपत्ति खरीदने के गंभीर आरोप लगे। मामला तब दर्ज हुआ जब गुरुग्राम पुलिस ने 2018 में एफआईआर फाइल की और प्रवर्तन निदेशालय (ED) ने जांच शुरू की। अब तक वाड्रा की 43 अचल संपत्तियां और 403 अन्य प्रॉपर्टी जब्त की जा चुकी हैं। हाल में कोर्ट में चार्जशीट दाखिल हुई है, परन्तु मुकदमा चलने की प्रक्रिया अभी तक शुरू नहीं हो पाई है।
प्रश्न यह उठता है: क्या अदालतें राजनीतिक दबाव में निर्णय टालती हैं? या फिर यह भारतीय न्याय प्रणाली की धीमी प्रकृति है? अस्थायी जब्ती और अस्थायी कुर्की जैसे कानूनी शब्द आम जनता को भ्रमित करते हैं, लेकिन इससे एक बात स्पष्ट होती है—मामला गंभीर है और इसके कानूनी प्रभाव दूरगामी हो सकते हैं।
नेशनल हेराल्ड केस: गांधी परिवार के लिए अग्निपरीक्षा
नेशनल हेराल्ड केस कांग्रेस पार्टी के शीर्ष नेतृत्व—सोनिया गांधी और राहुल गांधी—के लिए सबसे बड़ा कानूनी संकट बन गया है। यह मामला एसोसिएटेड जर्नल्स लिमिटेड (AJL) की संपत्तियों के गलत तरीके से ट्रांसफर और मनी लॉन्ड्रिंग से जुड़ा है। ईडी की सक्रियता के चलते गांधी परिवार को व्यक्तिगत रूप से कोर्ट में पेश होना पड़ा, जिससे एक मिथक टूटा—कि गांधी परिवार कानून से ऊपर है।
माना जा रहा है कि इस केस में भी अब गति आई है। कई संपत्तियां ईडी द्वारा जब्त की गई हैं, और आरोपियों पर IPC की धारा 120B के तहत आपराधिक षड्यंत्र का मामला दर्ज है। इस मामले में किसी भी समय ट्रायल शुरू हो सकता है।
नौकरी के बदले ज़मीन: लालू यादव का ‘रेल घोटाला’
2005-2009 के बीच रेल मंत्री रहे लालू यादव पर आरोप है कि उन्होंने रेलवे में नौकरी के बदले कई उम्मीदवारों से ज़मीन ली। इस केस में सबूत भी हैं—जिन्होंने नौकरी पाई, उनके नियुक्ति पत्र और जिन्होंने ज़मीन दी, उनके रजिस्टर्ड डीड्स। इस मामले में भी चार्जशीट दाखिल हो चुकी है और लालू यादव समेत पूरा परिवार आरोपी है।
लालू यादव ने सुप्रीम कोर्ट से अपील की थी कि ट्रायल रोका जाए, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई से इंकार कर दिया। अब मामला अदालत के संज्ञान में है और उम्मीद की जा रही है कि 2025 के अंत तक कोई ठोस परिणाम सामने आएगा।
न्याय या राजनीति?
इन तीनों मामलों में एक समानता है—मुकदमे की गति और समयबद्धता। सवाल उठता है कि क्या सरकारें इन मामलों को अपनी सुविधा अनुसार धीमा या तेज कर सकती हैं? जबकि भाजपा सरकार कहती है कि जांच एजेंसियां स्वतंत्र हैं, आलोचक आरोप लगाते हैं कि जांच की दिशा राजनीतिक जरूरतों के हिसाब से तय होती है।
गुजरात दंगों के मामले में भी यही देखा गया था, जब नरेंद्र मोदी और अमित शाह को फंसाने के लिए NGOs और मीडिया का उपयोग किया गया। सुप्रीम कोर्ट ने साफ तौर पर कहा था कि ये सब एक नियोजित साजिश थी। कांग्रेस पर ऐसे मामलों में राजनीतिक बदले की भावना से काम करने के आरोप लगते रहे हैं, और अब भाजपा पर भी वही सवाल उठ रहे हैं।
क्या 2025 बनेगा इन मामलों का निर्णायक साल?
इन तीनों बड़े मामलों में अगर 2025 के अंत तक फैसला आता है, तो यह भारत की राजनीति के लिए एक नया मोड़ होगा। यदि दोष सिद्ध होते हैं, तो कांग्रेस और राजद जैसी पार्टियों की विश्वसनीयता पर बड़ा सवाल उठेगा। अगर आरोप साबित नहीं होते, तो सरकार की मंशा और जांच एजेंसियों की निष्पक्षता पर संदेह गहराएगा।
भाजपा के लिए यह एक दोधारी तलवार है। एक तरफ इन मामलों में न्यायिक फैसले पार्टी की ईमानदार छवि को मजबूत कर सकते हैं, तो दूसरी ओर देर से आने वाले फैसले या आरोपियों के बरी हो जाने की स्थिति में विपक्षी दलों को भाजपा पर ‘राजनीतिक प्रतिशोध’ का आरोप लगाने का अवसर मिलेगा।
भारत में न्याय की प्रक्रिया लंबी और जटिल है। जब यह राजनीति से जुड़ती है, तो उसका स्वरूप और भी धुंधला हो जाता है। रॉबर्ट वाड्रा, नेशनल हेराल्ड और लालू यादव जैसे मामलों में फैसला न केवल कानून के लिए, बल्कि लोकतंत्र की साख के लिए भी जरूरी है। यदि इन मामलों में 2025 निर्णायक साबित होता है, तो यह भारतीय न्यायिक और राजनीतिक व्यवस्था के लिए एक ऐतिहासिक साल होगा।