तमिलनाडु में शिवभक्तों की आस्था पर योजनाबद्ध प्रहार?

अरुणाचल मंदिर पर हमला: जब श्रद्धा को रौंदा जाता है और सरकार चुप रहती है

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समग्र समाचार सेवा
तमिलनाडु 16 जुलाई -भारत जैसे धर्मप्रधान राष्ट्र में, जहाँ  आस्था जीवन का आधार है, वहाँ जब किसी पवित्र स्थल का अपमान होता है तो यह केवल ईंट और पत्थरों की नहीं, बल्कि एक पूरी संस्कृति की हत्या होती है। तमिलनाडु के प्राचीन और पवित्र अरुणाचलेश्वर मंदिर, जिसे पंचमहाभूत स्थलों में अग्नि तत्व का प्रतिनिधित्व करने वाला तीर्थ माना जाता है, आज योजनाबद्ध तरीके से अपमानित किया जा रहा है — और सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि राज्य सरकार और HR & CE विभाग खामोश तमाशबीन बने हुए हैं।

पवित्र गिरिवलम मार्ग पर अवैध कब्जा

हर पूर्णिमा को हजारों श्रद्धालु नंगे पांव गिरिवलम मार्ग की परिक्रमा करते हैं, जो लगभग 14 किलोमीटर लंबा है। यह मार्ग केवल एक धार्मिक परंपरा नहीं, बल्कि सदियों से चली आ रही भारतीय साधना की जीवंत परंपरा का प्रतीक है। लेकिन अब इस पवित्र पथ पर अवैध दुकानों, निर्माण मलबे, निजी मकानों और सरकारी कंक्रीट ढांचों ने कब्जा कर लिया है। जिन रास्तों से संतों और भक्तों की पदचिन्ह गूंजती थी, वहां अब जेसीबी और सीमेंट की आवाज़ें गूंज रही हैं।

क्या यही विकास है? क्या यही संवैधानिक धर्मनिरपेक्षता है, जिसमें हिंदू धार्मिक स्थलों को निशाना बनाना एक ‘नियमित प्रशासनिक प्रक्रिया’ बन गई है?

HR & CE विभाग की चुप्पी – मूक सहमति या सुनियोजित षड्यंत्र?

तमिलनाडु का हिंदू धार्मिक और धर्मार्थ बंदोबस्ती विभाग (HR & CE) सीधे सरकार के अधीन है और राज्य के लगभग 40,000 मंदिरों की देखरेख करता है। लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि यह विभाग हिंदू मंदिरों को केवल राजस्व अर्जन का साधन समझता है, न कि आस्था का केंद्र।

अरुणाचल मंदिर को लेकर आई शिकायतें हों, गिरिवलम मार्ग पर अवैध निर्माण की चेतावनियां हों, या पुरातत्विक नियमों का उल्लंघन — विभाग की प्रतिक्रिया हर बार ‘शून्य’ रही है। क्या यह राज्य प्रायोजित निष्क्रियता नहीं है? क्या यह हिंदू आस्था के खिलाफ एक सुनियोजित उदासीनता नहीं है?

मंदिरों को शासित करने का अधिकार केवल सरकार को क्यों?

यह भी गंभीर प्रश्न है कि हिंदू मंदिरों का प्रशासनिक नियंत्रण केवल सरकारों के हाथों में क्यों है? चर्च और मस्जिदें स्वायत्त संस्थाओं द्वारा संचालित होती हैं, वहां किसी राज्य सरकार या मंत्रालय का हस्तक्षेप नहीं होता। लेकिन जब बात हिंदू मंदिरों की आती है, तो सरकारें उन्हीं का धन, वही भूमि, वही श्रद्धा — सब कुछ हड़प लेती हैं।

क्या यह संविधान की धर्मनिरपेक्षता के नाम पर केवल हिंदू परंपराओं को कुचलने की नीति नहीं है?

धार्मिक स्वतंत्रता का खुला उल्लंघन

गिरिवलम मार्ग का अतिक्रमण केवल ज़मीन पर कब्ज़ा नहीं है, यह हजारों श्रद्धालुओं के धर्मपालन के अधिकार पर सीधा आघात है। जब एक भक्त शिव की आराधना के लिए मंदिर की परिक्रमा नहीं कर सकता, तो वह संविधान में दिए गए धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार (अनुच्छेद 25) का प्रयोग कैसे करेगा?

क्या राज्य सरकार यह बताने को तैयार है कि वह किस कानून या नीति के तहत परिक्रमा मार्ग पर निर्माण करवा रही है? या उसे यह लगता है कि हिंदू शांत हैं, इसलिए उनके साथ जो चाहे किया जा सकता है?

क्या यह सांस्कृतिक नरसंहार नहीं?

जब आप मंदिरों को बाजार बना देते हैं, जब भक्तों की साधना के मार्ग को सीमेंट और लोहे से पाट देते हैं, जब राज्य की संस्थाएं श्रद्धा की भूमि पर बुलडोजर चलवाती हैं — तो यह सिर्फ एक निर्माण कार्य नहीं होता, यह सांस्कृतिक नरसंहार होता है।

भारत के मंदिर सिर्फ पूजास्थल नहीं, हमारी स्मृति, परंपरा और पहचान के केंद्र हैं। इन पर हमला किसी विदेशी आक्रांता ने नहीं किया, बल्कि हमारी ही सरकारें कर रही हैं। और यह चुप्पी अब गूंज बननी चाहिए।

देश का हिंदू अब चुप नहीं रहेगा

शिवभक्तों और तमिल समाज को अब यह स्पष्ट संदेश देना होगा कि विकास के नाम पर आस्था के अपमान को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। अगर गिरिवलम पथ पर कोई अवैध निर्माण रहेगा, तो वह सिर्फ कानून का नहीं, लोकतंत्र और धर्मनिष्ठा का भी उल्लंघन होगा।

हिंदू समाज को अब अपनी धार्मिक स्वतंत्रता की रक्षा के लिए सामूहिक, कानूनी और सामाजिक चेतना के साथ खड़ा होना होगा। यह कोई राजनीतिक लड़ाई नहीं, बल्कि आस्था की रक्षा की राष्ट्रीय लड़ाई है।

अरुणाचल मंदिर का मामला आज़ादी के बाद से जारी उस ‘हिंदू विरोधी संस्थागत संरचना’ को उजागर करता है, जिसमें सरकारें मंदिरों का शोषण करती हैं और धर्मनिरपेक्षता की आड़ में हिंदुओं को द्वितीय श्रेणी का नागरिक बना दिया गया है।

अब समय आ गया है कि यह शांति की आड़ में सहने वाला हिंदू समाज अपने मंदिरों, अपने तीर्थों, अपनी संस्कृति और अपनी अस्मिता की रक्षा के लिए वाजिब और सशक्त आवाज़ उठाए।

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