पूनम शर्मा
चीन और ताइवान के बीच तनाव कोई नया विषय नहीं है, लेकिन बीते कुछ महीनों में जिस तरह से हालात बदले हैं, उसने एशिया-प्रशांत क्षेत्र को युद्ध के मुहाने पर ला खड़ा किया है। चीन की आक्रामक सैन्य गतिविधियाँ, अमेरिका की सीधी प्रतिक्रिया, और भारत सहित कई देशों की सामरिक चुप्पी अब वैश्विक राजनीति का केंद्र बन चुकी है। ताइवान अब सिर्फ एक भूभाग नहीं, बल्कि वैश्विक शक्ति संघर्ष का प्रतीक बन चुका है। क्या आने वाले समय में यह क्षेत्र एक और महायुद्ध का मैदान बनेगा? यह सवाल अब सिर्फ विश्लेषकों की चिंता नहीं, बल्कि आम जनमानस की भी जिज्ञासा बन चुका है।
चीन की सैन्य तैयारी और ताइवान पर दबाव
चीन ने ताइवान को अपने अधिकार क्षेत्र का हिस्सा घोषित कर रखा है और समय-समय पर उसकी स्वतंत्रता को चुनौती देता रहा है। लेकिन अब स्थिति पहले से कहीं अधिक गंभीर हो चुकी है। चीनी सेना ने ताइवान की समुद्री सीमाओं के चारों ओर बड़ी संख्या में युद्धपोत, मिसाइल सिस्टम और एयर डिफेंस यूनिट्स तैनात कर दिए हैं। यह सिर्फ एक सैन्य अभ्यास नहीं बल्कि एक स्पष्ट चेतावनी है—कि बीजिंग अब सीधे आक्रामक रुख अपना सकता है।
चीन द्वारा हाई-टेक मिलिट्री टेक्नोलॉजी जैसे MCPs (मल्टी क्रू प्लेटफॉर्म सिस्टम) और हाइपरसोनिक मिसाइल्स की तैनाती यह दर्शाती है कि वह किसी भी स्तर पर ताइवान पर कब्जा करने की तैयारी कर चुका है। सैन्य विशेषज्ञों का मानना है कि चीन अब “soft annexation” से आगे बढ़ते हुए “direct military conflict” की ओर बढ़ रहा है।
अमेरिका की प्रतिक्रिया: एक रणनीतिक प्रतिबद्धता या मजबूरी?
दुनिया की सबसे बड़ी ताकत अमेरिका इस पूरे मामले में अब तक सबसे सक्रिय भूमिका निभा रहा है। राष्ट्रपति और डिफेंस सेक्रेटरी के बयानों से स्पष्ट हो गया है कि अमेरिका ताइवान की रक्षा के लिए हरसंभव कदम उठाएगा। फिलीपींस, जापान, ऑस्ट्रेलिया और दक्षिण कोरिया के साथ साझा सैन्य अभ्यास और बेस एग्रीमेंट इसी रणनीति का हिस्सा हैं। अमेरिका ने ताइवान को सेमीकंडक्टर उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाने के लिए टेक्नोलॉजी ट्रांसफर की प्रक्रिया भी तेज़ कर दी है।
वास्तव में, ताइवान आज दुनिया का सेमीकंडक्टर हब बन चुका है, और अमेरिका इस क्षेत्र को किसी भी हालत में चीन के कब्जे में नहीं जाने देना चाहता। सैन्य स्तर पर अमेरिका ने साउथ चाइना सी में अपने नौसैनिक बेड़े की मौजूदगी बढ़ा दी है। AUKUS और QUAD जैसे गठबंधनों के ज़रिए अमेरिका एक सशक्त इंडो-पैसिफिक सुरक्षा चक्र बना रहा है।
भारत की स्थिति: संतुलन बनाना या अवसर खोजना?
भारत इस पूरे घटनाक्रम को बारीकी से देख रहा है। एक ओर वह चीन के साथ लद्दाख सीमा पर सैन्य तनाव से जूझ रहा है, वहीं दूसरी ओर अमेरिका और पश्चिमी देशों के साथ अपने संबंधों को मज़बूत कर रहा है। भारत ने भी “चीन-प्लस-वन” नीति के तहत सेमीकंडक्टर, इलेक्ट्रॉनिक्स और रक्षा विनिर्माण में निवेश आकर्षित करना शुरू कर दिया है।
भारत ने अमेरिका के साथ साझा सैन्य अभ्यासों में भागीदारी बढ़ाई है, और इंडो-पैसिफिक में रणनीतिक समझौते किए हैं। भारत की नीति फिलहाल “रणनीतिक आत्मनिर्भरता” की है—जहाँ वह न तो चीन से खुले टकराव में जाना चाहता है, न ही अमेरिका की कठपुतली बनना चाहता है। लेकिन यह भी साफ है कि ताइवान संकट का असर भारत की सुरक्षा, व्यापार और विदेश नीति पर सीधा पड़ेगा।
जापान, ऑस्ट्रेलिया और फिलीपींस: नई धुरी का निर्माण
इस पूरे घटनाक्रम में जापान और ऑस्ट्रेलिया अमेरिका के सबसे विश्वसनीय सहयोगी बनकर उभरे हैं। जापान ने द्वितीय विश्व युद्ध के बाद पहली बार अपने रक्षा बजट में GDP का 2% हिस्सा निर्धारित किया है और अमेरिका को अपने बेस इस्तेमाल करने की अनुमति दी है। ऑस्ट्रेलिया AUKUS के तहत न्यूक्लियर सबमरीन तकनीक अपना रहा है।
फिलीपींस ने चार नए अमेरिकी बेसों की अनुमति दी है, और साउथ चाइना सी में अपनी नौसेना की ताकत बढ़ा दी है। इस नए ध्रुवीकरण ने एशिया-प्रशांत में चीन के प्रभाव को संतुलित करना शुरू कर दिया है, लेकिन यह भी खतरे की घंटी है कि कहीं यह क्षेत्र एक नए सैन्य संघर्ष का केंद्र न बन जाए।
चीन की महत्वाकांक्षा और अमेरिका की चुनौती
चीन का सपना है कि 2049 तक वह दुनिया की सबसे बड़ी शक्ति बन जाए। ताइवान इस सपने का केंद्रबिंदु है। वहीं अमेरिका के लिए ताइवान न केवल भू-राजनीतिक बल्कि तकनीकी और आर्थिक रणनीति का भी हिस्सा है। सेमीकंडक्टर से लेकर समुद्री व्यापार तक, ताइवान पर चीन का कब्ज़ा अमेरिका की पूरी इंडो-पैसिफिक रणनीति को ध्वस्त कर सकता है।
यही कारण है कि अमेरिका ताइवान को हथियारों से लेकर राजनयिक समर्थन तक हर स्तर पर समर्थन दे रहा है। लेकिन यह समर्थन सिर्फ दोस्ती नहीं, एक स्पष्ट संदेश भी है—कि इंडो-पैसिफिक में चीन की एकतरफा दादागिरी स्वीकार नहीं की जाएगी।
क्या युद्ध अपरिहार्य है?
प्रश्न यही है—क्या यह सब किसी बड़े युद्ध की तैयारी है? जवाब है: शायद नहीं, लेकिन एक “सॉफ्ट वॉर” यानी सीमित युद्ध या प्रॉक्सी टकराव की शुरुआत हो चुकी है। सेमीकंडक्टर उत्पादन, चिप टेक्नोलॉजी, सायबर हमले, और सैन्य अभ्यासों के ज़रिए सभी देश एक ‘फ्रंटलाइन प्रीपरेडनेस’ की ओर बढ़ रहे हैं।
भारत के लिए यह समय बेहद महत्वपूर्ण है। उसे अपनी अर्थव्यवस्था, तकनीकी आधार, और रक्षा क्षमताओं को तेजी से सुदृढ़ करना होगा। साथ ही, उसे यह ध्यान रखना होगा कि वह वैश्विक राजनीति में “खेल का प्यादा” न बने, बल्कि एक “स्मार्ट खिलाड़ी” बनकर उभरे।
भारत की भूमिका होगी निर्णायक
ताइवान संकट केवल चीन और अमेरिका के बीच की लड़ाई नहीं रह गई है। यह अब भारत, जापान, ऑस्ट्रेलिया, और फिलीपींस जैसे देशों के लिए भी एक नीतिगत चुनौती बन चुका है। भारत यदि अपनी नीति, रणनीति और तकनीकी शक्ति को सही दिशा में आगे बढ़ाए, तो वह न केवल इस संकट से खुद को सुरक्षित रख सकता है, बल्कि एक वैश्विक संतुलनकारी शक्ति के रूप में उभर भी सकता है।
दुनिया एक नए शीत युद्ध के दौर में प्रवेश कर चुकी है—जहाँ युद्ध बंदूकों से नहीं, बल्कि चिप, डेटा, साइबर, और कूटनीति के जरिए लड़े जाएंगे। इस युद्ध में जीत उसी की होगी जो चुपचाप, मगर सटीक रणनीति से आगे बढ़ेगा। क्या भारत इसके लिए तैयार है?