- भाषाई विवाद की शुरुआत: महाराष्ट्र सरकार के आदेश से हिंदी को तीसरी भाषा बनाने का निर्णय मराठी अस्मिता से जुड़ा मुद्दा बन गया, खासकर मुंबई महानगर क्षेत्र में जहाँ मराठी भाषियों की जनसंख्या घट रही है।
- दक्षिण भारत से भिन्न संदर्भ: तमिलनाडु या कर्नाटक के विपरीत, महाराष्ट्र में भाषाई आंदोलनों की सीमाएँ हैं क्योंकि यहाँ जातीय, वर्गीय और क्षेत्रीय पहचान अधिक प्रभावशाली हैं, और ‘मराठी अस्मिता’ की कोई एकीकृत भावना नहीं है।
- राजनीतिक गणित और चुनावी रणनीति: मनसे और शिवसेना (UBT) के विरोध से मराठी वोटों का बंटवारा हो सकता है, जबकि बीजेपी गैर-मराठी वोटों के ध्रुवीकरण से लाभ ले सकती है। राज ठाकरे की छवि को ‘असली मराठी नेता’ के रूप में उभारा जा रहा है।
- बीजेपी की चुनावी चुनौतियाँ: नगर निगम चुनाव में बीजेपी को शासन क्षमता साबित करनी होगी, उपेक्षित उपनगरों की नाराजगी से निपटना होगा और शक्तिपीठ एक्सप्रेसवे जैसे थोपे गए प्रोजेक्ट्स से जनविरोध से बचना होगा।
पूनम शर्मा
महाराष्ट्र की राजनीति में भाषा फिर से सुर्खियों में है। एक सरकारी आदेश से उपजा मराठी-हिंदी विवाद अब चुनावी अखाड़े में तब्दील हो चुका है। लेकिन यह विवाद केवल भाषा का नहीं, अस्मिता, जनसंख्या संतुलन और सत्ता के समीकरणों का भी है।
महाराष्ट्र सरकार ने अप्रैल 2025 में एक प्रस्ताव जारी किया, जिसके तहत राज्य के मराठी और अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूलों में पहली से पाँचवीं कक्षा तक हिंदी को तीसरी भाषा के रूप में पढ़ाया जाना अनिवार्य कर दिया गया। यह निर्णय भले ही शिक्षा सुधार के नाम पर आया हो, लेकिन जल्द ही यह मराठी अस्मिता से जुड़ा एक भावनात्मक मुद्दा बन गया — खासकर मुंबई में।
मराठी-बहुल मुंबई का बदलता जनसंख्या संतुलन
जनगणना 2011 के “Language Atlas of India” के आंकड़े बताते हैं कि मुंबई में मराठी भाषियों की जनसंख्या मात्र 45% है। जबकि हिंदी और गुजराती भाषी मिलाकर लगभग 40% के करीब हैं। चिंता की बात यह है कि मराठी भाषियों की जनसंख्या वृद्धि दर हिंदी भाषियों की तुलना में धीमी है।
यही डर मराठी भाषिकों को सता रहा है — कि क्या वे अपनी ही राजधानी में अल्पसंख्यक बन जाएँगे?
दक्षिण की राह पर नहीं है महाराष्ट्र
तमिलनाडु और कर्नाटक में भाषा आंदोलन राज्यव्यापी होते हैं। लेकिन महाराष्ट्र में स्थिति अलग है। यहाँ भाषाई पहचान से पहले जाति और क्षेत्रीय पहचान हावी रहती है।
मराठा प्रभुत्व वर्ग अक्सर अपने राजनीतिक स्वार्थों के लिए गैर-मराठी समुदायों, विशेषकर गुजराती और मारवाड़ी व्यापारिक समूहों से सामंजस्य बनाता रहा है। इसके विपरीत, दक्षिण भारत में भाषा आंदोलनों ने सत्ता तक पहुँचने का स्थायी रास्ता तैयार किया है।
इतिहास भी इस अंतर को रेखांकित करता है। महाराष्ट्र में छत्रपति शिवाजी से लेकर पेशवा तक की सोच केवल क्षेत्रीय नहीं बल्कि राष्ट्रीय रही — “काशी, मथुरा, अयोध्या की मुक्ति” जैसे आदर्श इसकी मिसाल हैं।
सिर्फ मुंबई तक सीमित है आंदोलन
जहाँ कर्नाटक और तमिलनाडु में भाषा आंदोलन पूरे राज्य में फैलते हैं, वहीं महाराष्ट्र में यह विवाद मुख्य रूप से मुंबई महानगर क्षेत्र (MMR) तक सीमित है। राज्य के अन्य 36 जिलों में यह मुद्दा न के बराबर असर डालता है।
यह सीमित दायरा ही राजनीतिक दलों को इसे चुनावी रणनीति के रूप में भुनाने का मौका देता है — खासकर बीएमसी चुनाव में।
चुनावी गणित: किसे फायदा?
शुरुआती विवाद के बाद जब सरकार ने तीसरी भाषा के रूप में ‘कोई भी भारतीय भाषा’ चुनने की छूट दी, तो लगा विवाद थम जाएगा। लेकिन जब हिंदी की पाठ्यपुस्तकों की छपाई की खबर सामने आई, तो मनसे और उद्धव ठाकरे की शिवसेना ने इसे मुद्दा बना लिया।
बीजेपी पर हिंदी थोपने का आरोप लगाते हुए दोनों दलों ने इसे मराठी अस्मिता का सवाल बना दिया। लेकिन राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि यह रणनीति अंततः बीजेपी के पक्ष में जा सकती है। मुंबई में मराठी मतदाता लगभग 35% हैं और बाकी मतदाताओं में हिंदी, गुजराती, उत्तरभारतीय और दक्षिण भारतीय भाषी शामिल हैं। यदि मराठी वोट मनसे, शिवसेना (UBT), वंचित बहुजन आघाड़ी (VBA) आदि में बँट जाते हैं, और गैर-मराठी वोट बीजेपी के पक्ष में एकजुट होते हैं, तो बीजेपी को स्पष्ट बढ़त मिल सकती है।
इस समीकरण को ध्यान में रखते हुए, बीजेपी नेताओं ने राज ठाकरे की आलोचना से परहेज किया है और उल्टा उनकी नेतृत्व शैली की सराहना की है। यह रणनीति उद्धव ठाकरे को अलग-थलग करने और राज को “असली मराठी नेता” के तौर पर प्रस्तुत करने की ओर इशारा करती है।
पवार की चुप्पी क्या बताती है?
शरद पवार जैसे दिग्गज नेता की इस मुद्दे पर चुप्पी भी ध्यान खींचती है। पवार की राजनीति हमेशा राष्ट्रीय धारा के साथ संतुलन बनाने पर रही है। शायद यही वजह है कि उन्होंने खुद मंच पर आकर कुछ नहीं कहा, बल्कि अपनी बेटी सुप्रिया सुले को आंदोलन में भेजकर संदेश दिया।
यह वही पवार हैं, जिनके वर्ग — भूमि स्वामी मराठा — ने 1960 के संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन में भी सक्रिय भूमिका नहीं निभाई थी, वह आंदोलन मुख्यतः शहरी श्रमिक वर्ग ने चलाया था।
बीजेपी की चुनौतियाँ
हालांकि बीजेपी की भाषा विवाद रणनीति असरदार दिख रही है, लेकिन नगर निकाय चुनाव में पार्टी को कुछ कड़े सवालों का सामना करना पड़ेगा:
प्रदर्शन का मुद्दा: BMC में शिवसेना की दशकों की नाकामी को उजागर करना आसान है, लेकिन बीजेपी को खुद को एक बेहतर विकल्प के रूप में प्रस्तुत करना होगा।
आवश्यकताओं की उपेक्षा: मुंबई के उपनगरों — ठाणे, डोंबिवली, वसई, विरार — को इंफ्रास्ट्रक्चर के लिहाज से नजरअंदाज करना जनता की नाराज़गी बढ़ा रहा है।
वोटिंग व्यवहार: नागरिक सुविधाओं की बजाय वोट जाति, भाषा और रिश्तों पर डलते हैं।
शक्तिपीठ एक्सप्रेसवे विवाद: नागपुर से गोवा के बीच प्रस्तावित इस एक्सप्रेसवे को लेकर किसान आंदोलनरत हैं। वे कहते हैं कि इसी पैसे से सिंचाई परियोजनाएँ बेहतर की जा सकती थीं। लेकिन सरकार कोई संवाद नहीं कर रही।
भाषा राजनीति का सीमित लेकिन असरदार दांव
महाराष्ट्र में मराठी बनाम हिंदी का विवाद न तो तमिलनाडु की तरह गहराता है, न ही कर्नाटक जैसी व्यापकता रखता है। लेकिन मुंबई जैसे महानगर में यह वोटबैंक को प्रभावित करने वाला एक संवेदनशील मुद्दा ज़रूर बन चुका है।
बीजेपी, मनसे, शिवसेना और कांग्रेस – सभी इसे अपने-अपने ढंग से भुना रहे हैं। लेकिन महाराष्ट्र की जनता जानती है कि अस्मिता के नाम पर वोट माँगने वाले वही नेता हैं जो अंबानी की शादियों में झूमते नज़र आते हैं।
इसलिए चुनाव नतीजे यह बताएँगे कि भाषा की राजनीति केवल नारों और भाषणों में ही सीमित रह जाती है या वास्तव में नगर सरकार की तस्वीर बदलने में सक्षम है।