अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता : प्रधानमंत्री और राष्ट्र के प्रतीकों का अपमान ?

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पूनम शर्मा
भारतीय संविधान नागरिकों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देता है, लेकिन क्या इस अधिकार का मतलब यह है कि कोई भी व्यक्ति प्रधानमंत्री, संवैधानिक संस्थाओं और राष्ट्रवादी संगठनों का अपमान करने का अधिकार पा जाता है? हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने इसी तरह के एक प्रकरण में यह स्पष्ट कर दिया कि “फ्रीडम ऑफ स्पीच” का अर्थ ‘अनियंत्रित स्वतंत्रता’ नहीं है, और इसे जिम्मेदारी से इस्तेमाल किया जाना चाहिए।

कार्टून विवाद और सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी:

मध्य प्रदेश में एक कलाकार द्वारा प्रधानमंत्री और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) पर आपत्तिजनक कार्टून बनाए जाने का मामला सामने आया। यह कार्टून सोशल मीडिया पर वायरल हुआ, जिससे व्यापक विवाद खड़ा हो गया। जब मामला कोर्ट में पहुंचा, तो सुप्रीम कोर्ट ने टिप्पणी की कि “आप फ्रीडम ऑफ स्पीच के नाम पर अभद्रता नहीं फैला सकते।”

क्या मीडिया सच में ‘चौथा स्तंभ’ है?

देश में मीडिया को लंबे समय से लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि कानूनन मीडिया को कोई अतिरिक्त अधिकार प्राप्त नहीं हैं। एक नागरिक को जो बोलने की छूट है, वही मीडिया को भी है – न ज्यादा, न कम। कोर्ट ने ये भी जोड़ा कि यह ‘चौथा स्तंभ’ एक स्वघोषित विशेषण है, जिसे कानूनी मान्यता प्राप्त नहीं है।

प्रधानमंत्री और राष्ट्रवादी संगठनों का अपमान:

आजकल सोशल मीडिया पर कुछ समूह, कलाकार और एक्टिविस्ट प्रधानमंत्री को ‘मौत का सौदागर’, ‘जल्लाद’ जैसे शब्दों से संबोधित करते हैं। संघ को भी बार-बार निशाना बनाया जाता है, जबकि वही संगठन राष्ट्रीय संस्कृति और सेवा कार्यों में दशकों से योगदान दे रहा है। क्या यह आलोचना है या एक सुनियोजित बदनामी अभियान?

संघ और प्रधानमंत्री का जुड़ाव – गलतफ़हमी या साज़िश?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पृष्ठभूमि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ी हुई है, जिसे लेकर कई बार उन्हें निशाना बनाया गया है। हालांकि संघ ने देशभक्ति, अनुशासन और सेवा की परंपरा विकसित की है। स्वतंत्र भारत में कई बार इस संगठन पर प्रतिबंध लगाने की कोशिश की गई, परंतु यह हर बार पहले से मजबूत होकर उभरा।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बनाम मर्यादा की सीमा:

भारत में हर नागरिक को अपनी बात कहने का अधिकार है, परंतु यह अधिकार असीमित नहीं है। संविधान के अनुच्छेद 19(2) के अंतर्गत कुछ प्रतिबंध तय किए गए हैं – जैसे कि राष्ट्र की सुरक्षा, सार्वजनिक व्यवस्था और नैतिकता।

जब कोई कलाकार या मीडिया संस्थान प्रधानमंत्री या संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों का अपमान करता है, तो वह सिर्फ किसी व्यक्ति का नहीं, बल्कि उस पद की गरिमा को ठेस पहुंचाता है। यही बात सुप्रीम कोर्ट ने भी कही: “आपकी स्वतंत्रता दूसरों की प्रतिष्ठा और गरिमा को नुकसान नहीं पहुंचा सकती।”

न्यायपालिका की निर्णायक भूमिका:

सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला आने वाले समय में एक मील का पत्थर बन सकता है। यह स्पष्ट करता है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आड़ में राष्ट्र विरोधी एजेंडे को छिपाने की अनुमति नहीं दी जाएगी। यह निर्णय विशेष रूप से उन लोगों के लिए चेतावनी है जो विदेशी फंडिंग या विचारधाराओं के तहत देश में वैमनस्य फैलाते हैं।

भारतीय लोकतंत्र में आलोचना की अनुमति है, पर अपमान की नहीं। प्रधानमंत्री, चाहे कोई भी हो, देश के 140 करोड़ नागरिकों की लोकतांत्रिक इच्छा का प्रतिनिधि होता है। उसकी गरिमा का अपमान सीधे-सीधे जनता की भावना का अपमान है।
समय आ गया है कि हम ‘फ्रीडम ऑफ स्पीच’ और ‘फ्रीडम टू अब्यूज़’ (गाली देने की स्वतंत्रता) के बीच फर्क समझें। लोकतंत्र की मजबूती के लिए जरूरी है कि अधिकारों के साथ कर्तव्यों को भी पहचाना जाए।

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