– बलबीर पुंज
आखिर तिब्बत का क्या होगा? चीन पहले ही तिब्बत को भौगोलिक तौर पर निगल चुका है, क्या अब वह उसकी सांस्कृतिक पहचान को भी खा जाएगा? यह प्रश्न इसलिए स्वाभाविक है, क्योंकि हाल ही में 90 वर्षीय हुए 14वें दलाई लामा श्रद्धेय तेनजिन ग्यात्सो के उत्तराधिकारी चुनने की प्रक्रिया शुरू होगी। दलाई लामा कोई नाम नहीं, बल्कि परंपरागत पद है, जो तिब्बत की आत्मा, उसकी परंपराओं और अस्मिता का प्रतीक माना जाता है। चीन इस कोशिश में है कि अगला दलाई लामा उसकी गोद में हो, ताकि वह तिब्बत को उसकी बौद्ध जड़ों से हमेशा-हमेशा के लिए काट सके। वर्ष 1959 से बेघर होकर अधिकतर तिब्बती दुनियाभर में अपनी संस्कृति-परंपरा को जीवित रखने का संघर्ष जारी रखे हुए है। यह कोई पहली बार नहीं है। इससे पहले यहूदियों ने सैंकड़ों वर्षों तक अपनी संस्कृति-परंपराओं को बचाने के लिए संघर्ष किया था। इसके बाद 1948 में यहूदी राष्ट्र इजराइल अस्तित्व में आया। क्या तिब्बती यहूदियों का इतिहास दोहरा पाएंगे?
सबसे पहले यह समझना जरूरी है कि चीन है क्या? यह एक अजीब विरोधाभास के साथ दुनिया के सामने खड़ा है— राजनीति में मानवाधिकार रहित साम्यवादी, अर्थव्यवस्था में निर्मम पूंजीवादी और विस्तारवाद प्रेरित उद्देश्यों की पूर्ति हेतु साम्राज्यवादी। चीन खुद को दुनिया की सबसे पुरानी जीवित सभ्यता मानता है। इसी मानसिकता के कारण चीन न सिर्फ तिब्बत और भारत, बल्कि उसकी सरहद से लगते लगभग सभी देशों से उलझा हुआ है। आज चीन के 17 देशों के साथ सीमा और समुद्र को लेकर विवाद हैं।
एशिया में भारत और जापान ऐसे देश है, जो अपने आर्थिक आकार, सामरिक ताकत और सांस्कृतिक गहराई के बल पर चीनी साम्राज्यवाद को खुली चुनौती दे रहे है। वह चाहता है कि भारत भी, बाकी एशियाई देशों (पाकिस्तान-नेपाल-श्रीलंका सहित) की तरह, उसके वर्चस्व को चुपचाप स्वीकार कर ले। मगर हालिया वर्षों में भारत का तेजी से आर्थिक-सामरिक रूप से उभरना और अंतरराष्ट्रीय मंच पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारत की मजबूत होती छवि, चीन को सर्वाधिक अखर रही है।
तिब्बत— चीन की साम्राज्यवादी भूख और भारत के बीच एक बफर था। अनंतकाल से भारत और तिब्बत की सांस्कृतिक विरासत सांझी रही है। भारत से गई हुई बौद्ध परंपरा तिब्बत की पहचान रही है, वही दूसरी ओर हिंदुओं के पवित्र तीर्थों में से कैलाश पर्वत और मानसरोवर भी तिब्बत में है। आज भी अनेकों हिंदू हर तरह का खतरा उठाकर कैलाश मानसरोवर की तीर्थयात्रा करने की इच्छा रखते हैं। भगवान गौतमबुद्ध ने बोधगया में ज्ञान प्राप्त किया, सारनाथ में पहला उपदेश दिया, जिसे धर्मचक्र प्रवर्तन कहा गया। कुशीनगर, राजगीर, श्रावस्ती, नालंदा, दीक्षाभूमि— ये सभी स्थल बौद्ध परंपरा के तीर्थ हैं। स्पष्ट है कि भारत से शांतिपूर्ण बौद्ध संदेश पूरी दुनिया तक पहुंचा और तिब्बत ने उसे आत्मसात किया।
वर्तमान दलाई लामा तेनजिन ग्यात्सो ने अपनी आत्मकथा ‘माय लैंड, माय पीपल’ में लिखते हैं कि जब चीन ने तिब्बत पर हमला बोला, तो दुनिया से बेपरवाह तिब्बती इसके लिए तैयार नहीं थे। 1959 में दलाई लामा को अपनी भूमि छोड़कर भारत में शरण लेनी पड़ी। सवाल यह है— तिब्बत इतना असहाय कैसे हुआ? भारत-तिब्बत की संस्कृति सांझी है। हमारी मान्यता रही है कि यदि हम किसी को नुकसान नहीं पहुँचाएँगे , तो हमें कोई क्यों सताएगा। इसी चिंतन में से पंचशील निकला, लेकिन यह हमें बचा नहीं सका। जब चीन ने तिब्बत पर हमला किया, हम ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ में डूबे रहे। वही चीन 1962 में भारत पर भी टूट पड़ा और हमारी शर्मनाक हार हुई। भारत ने कभी किसी की धरती पर नजर नहीं डाली, लेकिन हमारी जमीन मजहबी, साम्राज्यवादी और औपनिवेशिक कारणों से बार-बार रौंदी गई। कासिम से लेकर गजनवी, गोरी, खिलजी, बाबर, औरंगजेब, अब्दाली, टीपू सुल्तान, पुर्तगाली, फ्रांसीसी और ब्रितानी आक्रमण— इसके उदाहरण है। यदि सामने विस्तारवादी या एकेश्वरवादी आक्रांता हों, तो केवल आदर्शवादी होना पर्याप्त नहीं। सच तो यह है कि सामर्थ्य-शक्ति के बिना शांति-स्थिरता संभव नहीं है।
चीन की दलाई लामा पद पर नजर क्यों है? तिब्बत की धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था में दलाई लामा को सबसे ऊंचा दर्जा हासिल है। वे तिब्बत के धर्मगुरु और राजकीय प्रमुख भी है। तिब्बत में दलाई लामा का उत्तराधिकारी न तो चुनाव के जरिए चुना जाता है, और न ही यह कोई पारिवारिक विरासत का हिस्सा है। तिब्बती मान्यता है कि जब दलाई लामा का निधन होता है, तो उनकी आत्मा नया जन्म लेती है और उसी नए अवतार को पहचान कर, विधिपूर्वक, तिब्बती धर्मगुरु और शासक के रूप में प्रतिष्ठित किया जाता है। दलाई लामा ने साफ कर दिया है कि उनके बाद भी दलाई लामा के पुनर्जन्म की तिब्बती परंपरा जारी रहेगी और इसका अधिकार और जिम्मेदारी तिब्बत की धार्मिक संस्था ‘गंदेन-फोड्रांग’ के ही पास है। चीन जानता है कि जबतक दलाई लामा परंपरा जीवित है, तबतक तिब्बत भी जिंदा रहेगा। तिब्बत पर पूर्ण चीनी अधिकार तभी हो सकता है, जब वह तिब्बती परंपरा के प्रतीक दलाई लामा पद पर कब्जा कर लें या उसे नष्ट कर दें। इसी भय से वह तिब्बत में जबरन आबादी का संतुलन बदल रहा है और तिब्बती भाषा, पोशाक, स्थापत्य और शिक्षा व्यवस्था पर चीनी रंग चढ़ा रहा है।
क्या चीन अपने कुत्सित इरादों में सफल हो पाएगा? इसका उत्तर यहूदियों और इजराइल के इतिहास में मिलता है। एक समय जैसे यहूदी दुनियाभर में निर्वासितों की तरह संघर्षपूर्ण और हिंसाग्रस्त जिंदगी (होलोकॉस्ट सहित) जी रहे थे, वैसे ही स्थिति बीते सात दशकों से तिब्बतियों की है। लेकिन यहूदियों ने यह सिद्ध कर दिया है कि यदि किसी भी संस्कृति को मानने वालों में दृढ़ता हो, तो संघर्षशील सभ्यता भी पुनर्जीवित हो सकती है। तमाम दिक्कतों (मजहबी सहित) के बाद भी इजराइल का जन्म और शत्रुओं से घिरे क्षेत्र में सम्मानपूर्वक जीवित रहना— इसका उदाहरण है। चीन ने भले ही तिब्बत की भूमि पर कब्जा कर लिया हो, लेकिन वह अभी तक उसकी आत्मा पर नियंत्रण नहीं कर पाया है। तिब्बतियों की इसी सांस्कृतिक जीवटता से चीन भयभीत है और दलाई लामा पद पर कब्जा या उसे मिटाना चाहता है। क्या ऐसा होगा— इसका उत्तर बहुत हद तक तिब्बतियों के जुझारूपन में छिपा है।
स्तंभकार ‘ट्रिस्ट विद अयोध्या: डिकॉलोनाइजेशन ऑफ इंडिया’ और ‘नैरेटिव का मायाजाल’ पुस्तक के लेखक है।
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