कर्नाटक : जब रक्षक ही भक्षक बन जाएँ – लोकायुक्त में भ्रष्टाचार पर गहरा सवाल

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पूनम शर्मा
जब न्याय और सुशासन के रक्षक ही नियमों की धज्जियाँ उड़ाने लगें, तो पूरे तंत्र की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिह्न लगना स्वाभाविक है। ऐसा ही कुछ कर्नाटक लोकायुक्त के एक पूर्व अधिकारी के खिलाफ हुए भ्रष्टाचार के मामले में देखने को मिला है। जिस संस्था का काम भ्रष्टाचार की निगरानी करना और सत्ताधारी वर्ग को जवाबदेह बनाना है, उसी के भीतर भ्रष्टाचार का नाग सिर उठाए खड़ा हो — यह न केवल एक संस्था विशेष की विफलता है, बल्कि पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए चेतावनी है।

लोकायुक्त: एक भरोसेमंद संस्था
लोकायुक्त की स्थापना का मूल उद्देश्य यही था कि वह शासन व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार पर लगाम लगाए, आम नागरिकों को न्याय दे और सत्ता में बैठे लोगों की जवाबदेही तय करे। लेकिन अगर यही संस्था खुद ही भ्रष्टाचार में लिप्त हो जाए, तो आम आदमी किसके पास शिकायत लेकर जाए? ऐसे में लोगों का विश्वास केवल लोकायुक्त पर ही नहीं, समूची न्याय व्यवस्था पर डगमगाने लगता है।

हालिया मामला: एक कड़वा सच
हाल ही में सामने आए मामले में कर्नाटक के एक लोकायुक्त अधिकारी पर रिश्वत लेने के आरोप लगे हैं। आरोपों के अनुसार, उन्होंने एक शिकायतकर्ता से जांच में राहत देने के एवज में बड़ी रकम की मांग की। यह कोई पहली घटना नहीं है, लेकिन यह अवश्य है कि इसने एक बार फिर लोकायुक्त की विश्वसनीयता को आघात पहुँचाया है।

इससे पहले भी कर्नाटक के एक पूर्व लोकायुक्त जस्टिस य. भास्कर राव के बेटे के खिलाफ भी भ्रष्टाचार के संगीन आरोप लगे थे, जिन्होंने संस्था की छवि को भारी नुकसान पहुंचाया था।

संस्थागत गिरावट का संकेत
इस प्रकार के मामले दर्शाते हैं कि केवल संस्था बनाना ही पर्याप्त नहीं है, जब तक कि उसके भीतर पारदर्शिता, जवाबदेही और नैतिक मूल्यों की गारंटी न हो। जब नियुक्तियों में राजनीतिक हस्तक्षेप, अनुशासनहीनता और आंतरिक निगरानी की कमी होती है, तब संस्थाएं धीरे-धीरे खोखली हो जाती हैं। लोकायुक्त जैसी संस्थाएं तब तक ही प्रभावशाली हैं जब तक उनमें नैतिक नेतृत्व और कठोर अनुशासन बना रहे।

जनता के भरोसे की हत्या
यह घटनाक्रम न केवल एक संस्था की नाकामी है, बल्कि जनता के विश्वास की हत्या भी है। एक आम नागरिक जब सरकारी भ्रष्टाचार से त्रस्त होकर लोकायुक्त के पास जाता है, तो वह उम्मीद करता है कि वहां से उसे न्याय मिलेगा। लेकिन अगर वहीं से अन्याय मिले, तो उसका लोकतंत्र से भरोसा उठना तय है।

त्वरित और कठोर कार्रवाई आवश्यक
इस प्रकार के मामलों में सरकार और न्यायपालिका की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाती है। केवल जांच बैठाना या निलंबन करना काफी नहीं होता, बल्कि दोषियों को त्वरित और कठोर सज़ा देकर एक उदाहरण प्रस्तुत करना चाहिए। जब तक इस तरह के मामलों में तेजी से न्याय नहीं होगा, तब तक भ्रष्टाचार की जड़ें और मजबूत होती रहेंगी।

व्यवस्था में सुधार की आवश्यकता
इस घटना को अवसर की तरह लेते हुए सरकार को लोकायुक्त जैसी संस्थाओं में सुधार लाने चाहिए। नियुक्तियों की प्रक्रिया को अधिक पारदर्शी बनाना चाहिए, अधिकारियों के आचरण की नियमित निगरानी होनी चाहिए, और शिकायत निवारण प्रणाली को और अधिक जनोन्मुखी बनाना चाहिए। साथ ही, इस संस्था को राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त रखने के लिए संविधानिक सुरक्षा दी जानी चाहिए।

 लोकायुक्त का पुनरुद्धार जरूरी
लोकायुक्त जैसे संवैधानिक निकायों की साख किसी भी लोकतंत्र की रीढ़ होती है। अगर यही संस्था भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरने लगे, तो यह समूचे प्रशासनिक तंत्र पर सवालिया निशान है। इस स्थिति से निपटने के लिए केवल बयानबाज़ी नहीं, बल्कि ठोस कार्यवाही और संस्थागत सुधारों की जरूरत है। जब रक्षक ही भक्षक बन जाएं, तब बदलाव केवल विकल्प नहीं, अनिवार्यता बन जाता है।

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