BRICS में तुर्की को झटका: भारत और चीन का निजी विरोध
एर्दोगन की उम्मीदों को झटका, BRICS के दरवाजे तुर्की के लिए बंद
- तुर्की का BRICS में शामिल होने का सपना अब लगभग खत्म हो गया है, क्योंकि भारत और चीन ने अंदरूनी तौर पर इसकी सदस्यता का विरोध किया है।
- ब्राजील के एक राजनयिक ने खुलासा किया कि तुर्की के नाटो सदस्य होने के कारण भारत और चीन दोनों ने आपत्ति जताई।
- कश्मीर मुद्दे पर तुर्की के रुख और भारत-पाकिस्तान संघर्ष में पाकिस्तान के समर्थन ने भारत के विरोध को मजबूत किया।
समग्र समाचार सेवा
रियो डी जेनेरो, 9 जुलाई: पश्चिमी देशों और निवेशकों को चौंकाते हुए, पिछले साल जब तुर्की ने BRICS गठबंधन में शामिल होने के लिए आवेदन किया था, तब से इस पर अटकलें लगाई जा रही थीं। तुर्की के राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप एर्दोगन ने कई बार सार्वजनिक मंचों पर तुर्की के लिए BRICS सदस्यता की इच्छा व्यक्त की थी। हालांकि, अब ऐसा लगता है कि तुर्की का यह सपना चकनाचूर हो गया है। ब्राजील के एक वरिष्ठ राजनयिक ने खुलासा किया है कि भारत और चीन ने निजी तौर पर तुर्की की BRICS में पूर्ण सदस्यता का विरोध किया है, जिसके चलते अंकारा के लिए इस प्रमुख समूह के दरवाजे करीब-करीब बंद हो गए हैं।
नाटो सदस्यता और भारत-चीन की आपत्ति
ब्राजील के राजनयिक के अनुसार, चीन और भारत ने पिछले साल तुर्की की ब्रिक्स की पूर्ण सदस्यता का निजी तौर पर विरोध किया था। इसका एक प्रमुख कारण यह था कि तुर्की नाटो (NATO) का एक सदस्य देश है। BRICS को अक्सर अमेरिका के नेतृत्व वाले G7 समूह के विकल्प के तौर पर देखा जाता है, और यही वजह है कि अभी तक किसी भी नाटो सदस्य देश को BRICS में शामिल नहीं किया गया है। BRICS समूह में ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका शामिल हैं, और नए सदस्य को जोड़ने के लिए सर्वसम्मति की आवश्यकता होती है। भारत और चीन की आपत्ति ने तुर्की की उम्मीदों पर पानी फेर दिया है।
कश्मीर मुद्दा बना भारत के विरोध का कारण
भारत के विरोध के पीछे एक और महत्वपूर्ण कारण कश्मीर मुद्दे पर तुर्की का रुख रहा है। भारत ने हमेशा कश्मीर को अपना आंतरिक मामला बताया है, लेकिन तुर्की ने अक्सर इस मुद्दे पर पाकिस्तान का समर्थन किया है, जिससे भारतीय नेतृत्व में हमेशा आशंका बनी रही। मई महीने में भारत-पाकिस्तान संघर्ष के दौरान तुर्की ने पाकिस्तान की खुले तौर पर मदद की, जिससे भारत के लिए तुर्की को BRICS सदस्यता के लिए समर्थन देना और भी असंभव हो गया। भारतीय नेतृत्व को यह स्पष्ट था कि ऐसे में तुर्की को BRICS का समर्थन देना भारत के रणनीतिक हितों के खिलाफ होगा।
रूस और ट्रंप का प्रभाव
BRICS में तुर्की के शामिल होने को लेकर रूस भी कोई खास उत्साहित नहीं था। रूसी विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव ने पिछले साल जून में ही संकेत दिया था कि 2024 में पांच नए देशों – अर्जेंटीना, मिस्र, इथियोपिया, ईरान और संयुक्त अरब अमीरात – को जोड़ने के बाद BRICS आगे और विस्तार में दिलचस्पी नहीं रखता। हालांकि, रूस ने तुर्की को 13 अन्य देशों के साथ “भागीदार देश” बनाने पर सहमति जताई थी, जो पूर्ण सदस्यता से बहुत कम है।
इसके अलावा, अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के फिर से राष्ट्रपति बनने की संभावना ने भी तुर्की के लिए BRICS की राह मुश्किल कर दी है। ट्रंप ने BRICS को खुले तौर पर ‘एंटी-अमेरिकन ब्लॉक’ कहा है और चेतावनी दी है कि यदि BRICS एक संयुक्त मुद्रा लाने की कोशिश करेगा तो अमेरिका भारी भरकम टैरिफ लगाएगा। ऐसे में, तुर्की के लिए BRICS के दरवाजे खटखटाना एक दोधारी तलवार पर चलने जैसा हो गया है, क्योंकि एर्दोगन एक तरफ BRICS से जुड़ना चाहते हैं तो दूसरी तरफ ट्रंप से भी अपने संबंध बिगाड़ना नहीं चाहते।
एर्दोगन की महत्वाकांक्षाएं और क्षेत्रीय प्रतिद्वंद्विता
विश्लेषकों का मानना है कि तुर्की के राष्ट्रपति एर्दोगन पर भरोसा नहीं किया जा सकता है। तुर्की ने पाकिस्तान का खुलकर साथ देकर कई दुश्मनी मोल ली हैं। साथ ही, तुर्की अब अतातुर्क के ऐतिहासिक दिनों की तरह एक भव्य तुर्क साम्राज्य की थीम को आगे बढ़ाना चाहता है, और एर्दोगन पूरे यूरोप और काकेशस में पुराने ओटोमन तुर्क साम्राज्य को फिर से स्थापित करने का इरादा रखते हैं। इसके अलावा, तुर्की सऊदी अरब और ईरान के साथ भी क्षेत्रीय प्रतिस्पर्धा में उलझा हुआ है। ये सभी कारक तुर्की को एक अस्थिर खिलाड़ी बनाते हैं, जिससे BRICS के मौजूदा सदस्य असहज महसूस करते हैं।
इन सभी कारणों के चलते, तुर्की की BRICS सदस्यता की संभावनाएं अब करीब-करीब खत्म मानी जा रही हैं। भारत और चीन की अनुमति के बिना किसी भी देश के लिए BRICS में शामिल होना संभव नहीं है, और इन दोनों प्रमुख देशों ने स्पष्ट रूप से अपने विरोध का संकेत दे दिया है।