भारत की न्याय व्यवस्था ( श्रृंखला ) : शाह बानो केस

शाह बानो केस: समान नागरिक संहिता की जंग का पहला मोर्चा

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पूनम शर्मा
1985 में इंदौर की एक 62 वर्षीय वृद्ध महिला ने भारत की न्यायिक और राजनीतिक व्यवस्था को हिला कर रख दिया। शाह बानो बेगम बन गईं उस ऐतिहासिक कानूनी संघर्ष का चेहरा, जो अब भी भारतीय समाज और संसद में गूंजता है। मो. अहमद खान बनाम शाह बानो बेगम का मामला केवल गुज़ारे भत्ते तक सीमित नहीं था — यह संवैधानिक नैतिकता बनाम धार्मिक कट्टरता की लड़ाई थी।
एक महिला जिसे पीछे छोड़ दिया गया
शाह बानो की शादी एक नामी वकील मो. अहमद खान से लगभग 40 साल पहले हुई थी। 1978 में खान ने तीन तलाक के ज़रिए उन्हें तलाक दे दिया और आगे कोई गुज़ारा भत्ता देने से मना कर दिया। तब 62 साल की शाह बानो ने CrPC की धारा 125 के तहत स्थानीय मजिस्ट्रेट कोर्ट में याचिका दायर की, जो सभी नागरिकों को बिना धर्म देखे जीवन निर्वाह के लिए सहायता पाने का अधिकार देती है।

खान ने कहा कि इस्लामिक कानून के अनुसार ‘इद्दत’ की अवधि तक ही उनका कर्तव्य था, और उन्होंने उस दौरान भत्ता दे दिया था।

कानूनी सवाल: धर्म या संविधान?
प्रश्न था: क्या धारा 125 CrPC, जो एक सार्वजनिक, धर्मनिरपेक्ष कानून है, धार्मिक निजी कानूनों से ऊपर है? और यदि हाँ, तो क्या यह धार्मिक स्वतंत्रता में हस्तक्षेप नहीं माना जाएगा?

यह मामला अंततः सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ तक पहुँचा , जिसकी अध्यक्षता मुख्य न्यायाधीश वाई. वी. चंद्रचूड़ ने की।

निर्णय: गुज़ारा भत्ता का कोई धर्म नहीं होता
सुप्रीम कोर्ट ने शाह बानो के पक्ष में फैसला सुनाया। कोर्ट ने कहा कि CrPC की धारा 125 सभी नागरिकों पर समान रूप से लागू होती है, और इसका उद्देश्य किसी को दरिद्रता से बचाना और सामाजिक न्याय सुनिश्चित करना है। कोर्ट ने यह भी कहा कि “समान नागरिक संहिता वक्त की ज़रूरत है।”

सबसे महत्वपूर्ण बात यह रही कि कोर्ट ने स्पष्ट कर दिया कि व्यक्तिगत कानूनों के नाम पर किसी महिला को जीवन और सम्मान के अधिकार (अनुच्छेद 21) से वंचित नहीं किया जा सकता।
बवाल और राजनीतिक पलायन
फैसले के बाद मुस्लिम समुदाय के रूढ़िवादी तबकों में भारी विरोध हुआ। धार्मिक संस्थानों ने कहा कि यह शरिया कानून में हस्तक्षेप है। राजनीतिक दबाव में आकर राजीव गांधी सरकार ने 1986 में मुस्लिम महिला (तलाक के बाद अधिकारों की सुरक्षा) अधिनियम पारित किया, जिससे सुप्रीम कोर्ट के फैसले को काफी हद तक निष्प्रभावी बना दिया गया।

इस अधिनियम ने मुस्लिम पति की ज़िम्मेदारी को केवल इद्दत तक सीमित कर दिया, लेकिन इसमें कुछ कानूनी अस्पष्टताएं छोड़ दी गईं, जिन्हें आगे की अदालतों ने महिला-सुलभ तरीके से व्याख्यायित किया।
एक ऐसा फैसला जो मरकर भी ज़िंदा रहा
राजनीतिक समझौते के बावजूद, शाह बानो का फैसला एक विचार बन गया। बाद में आए फैसले जैसे कि डेनियल लतीफी बनाम भारत सरकार (2001) और शायरा बानो बनाम भारत सरकार (2017) ने शाह बानो के निर्णय को आधार बनाकर महिलाओं के अधिकारों को और मजबूती दी।

कानूनी जानकार मानते हैं कि यह केस अनुच्छेद 44 में उल्लिखित समान नागरिक संहिता की ओर पहला मजबूत कदम था। यह भारत के धर्मनिरपेक्ष संविधान और धार्मिक विविधता के बीच के द्वंद को उजागर करता है।
न्याय की विरासत और फिल्मी दस्तावेज
हालाँकि सामाजिक दबाव में आकर शाह बानो ने अंततः अपना दावा वापस ले लिया, लेकिन उनका नाम इतिहास में संविधान, साहस और न्याय की प्रतीक बन गया। उनकी कहानी पर एक फिल्म भी बनी, जो इस संघर्ष को आमजन तक पहुँचाने  का माध्यम बनी।

चार दशक बाद भी, जब UCC (समान नागरिक संहिता) पर चर्चा फिर तेज हो रही है, शाह बानो का फैसला आज भी गूँजता है। यह हमें याद दिलाता है कि संविधानिक मूल्यों को संप्रदायिक दबाव से ऊपर रखा जाना चाहिए — और न्याय कभी भी परंपरा के नाम पर कुर्बान नहीं होना चाहिए।

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